अफगान नीति की उलझनें
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान के बारे में नई नीति की घोषणा की है.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप |
उनकी इस घोषणा का सीधा अर्थ है कि अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी फौज की वापसी नहीं करेगा और वहां अमेरिकी फौजों की संख्या बढ़ाएगा. जाहिर तौर पर अमेरिका आतंकवादियों के खिलाफ फौजी कार्रवाई तेज करेगा और राष्ट्र निर्माण का कार्य उसके एजेंडे में सबसे नीचे होगा.
अमेरिका की नई अफगान नीति वाशिंगटन की बौद्धिक संपदा के दिवालियापन को ही जाहिर करता है. सच्चाई तो यह है कि दक्षिण एशिया की भू-राजनीतिक यथार्थ के साथ बेहतर तालमेल बिठाने में अमेरिका का राजनीतिक नेतृत्व अक्षम रहा है.
यह वही ट्रंप हैं जो राष्ट्रपति बनने से पहले अफगानिस्तान में अमेरिकी फौज के जमावड़े की आलोचना करते रहते थे. 21 नवम्बर 2013 में ट्रंप ने यह बयान दिया था कि अफगानिस्तान में हमने अपना बेशुमार खून बहाया है. लेकिन वहां की सरकार ने कभी इस बात की प्रशंसा नहीं की. अलबत्ता, अब हमें वहां से बाहर निकल आना चाहिए. आखिर अब ऐसा क्या हो गया कि ट्रंप को अपने पुराने विचारों से हटना पड़ा.
दरअसल, सचाई तो यह है कि अमेरिका ने ही अफगानिस्तान को इस स्थिति में लाकर पहुंचाया है. और अब ट्रंप को यह अहसास हो रहा है कि अफगान समस्या का हल ढूंढ़ना आसान नहीं है. थोड़ी देर के लिए अगर यह मान लिया जाए कि अफगान में सक्रिय आतंकवादियों को नेस्तनाबूद करना अमेरिका का उद्देश्य है तो 2001 से लेकर अब तक के 16 वर्षो में उसने क्या किया?
अब यह कैसे मान लिया जाए कि ट्रंप की इस नई घोषणा के बाद अफगान से आतंकवादियों का सफाया हो जाएगा या उनका हृदय परिवर्तित हो जाएगा. ट्रंप के इस अफगान नीति का एक महत्त्वपूर्ण पहलू पाकिस्तान है. यह पहली बार है, जब किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने पाकिस्तान को साफ शब्दों में चेतावनी दी है.
लोगों को याद होगा कि जब अमेरिका में 9/11 में आतंकवादी हमला हुआ था तब राष्ट्रपति जार्ज बुश के मुख्य सलाहकार र्रिचड आर्मिकेज ने पाकिस्तान को धमकी दी थी कि यदि इस्लामाबाद में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका का साथ नहीं दिया तो उस पर हम इतने बम बरसाएंगे कि वह प्रस्तर युग में लौट जाएगा. इतनी कड़ी चेतावनी के बावजूद पाकिस्तान पर कोई असर नहीं हुआ. ऐसे में ट्रंप के इस बयान का क्या महत्त्व रह जाता है?
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