प्रभु की विदाई तय
शनिवार को उत्कल एक्सप्रेस का दुर्घटनाग्रस्त होना और उसके तीन दिन के भीतर कैफियत एक्सप्रेस का भी हादसे का शिकार होना, यह बताने को काफी है कि देश में रेल प्रभु क्या वह किसी के भरोसे नहीं है.
प्रभु की विदाई तय |
खासकर रेल मंत्री सुरेश प्रभु के नवम्बर 2014 को मंत्रालय का पदभार संभालने के बाद से करीब 27 बड़े हादसे हुए हैं, जिनमें कइयों की जान जा चुकी हैं.
पेशे से चार्टड अकाउंटेंट रहे प्रभु ने रेलवे को आर्थिक मुसीबत से उबारने का तरीका भले आजमाया मगर वह ‘हादसों का मंत्रालय’ के सनातनी दागों को नहीं धो सके. और अंतत: अपने पूर्ववर्ती मंत्रियों की खींची गई बड़ी लकीर का अनुसरण करते हुए अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी. हालांकि यह काफी देर से उठाया गया कदम है.
भले यह तर्क उचित प्रतीत हो कि हादसों की जिम्मेदारी अकेले रेल मंत्री की नहीं होती है. किंतु लगातार यात्रियों को मौत का सफर कराने के बाद इस्तीफे के अलावा उनके लिए कुछ बचता भी नहीं है.
यह बात भी बिल्कुल सही है कि पटरियों पर रेल ट्रैफिक का काफी दबाव है, और इसे पटरी पर लाने के साथ बाकी आधारभूत संरचनाओं में सुधार की कवायद भी की गई, परंतु सुरक्षा के मामले में प्रभु बेहद ढीले साबित हुए. यहां तक कि ट्रेनों के विलंब से चलने की परिपाटी में रंच मात्र अंतर नहीं आया. साफ-सफाई से लेकर खान-पान की बदतर हालत से नाक कटी सो अलग.
उलटे सुरक्षा सेस और स्वच्छता सेस के नाम पर रेलवे की जेब भरी गई. यहां तक कि प्लेटफार्म टिकट को बढ़ाकर 20 रुपये कर दिया गया. जबकि देश के ताने-बाने को जोड़ने वाली रेल को हादसों से बचाने की संजीदगी और जवाबदेही परिभाषित नहीं हुई. इतने हादसों के बाद सरकार इसका अहसास हुआ है. तभी वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी जवाबदेही तय करने की बात की है.
इसका मतलब है कि प्रभु की विदाई तय हो चुकी है. यह काम दूसरे-तीसरे हादसे के बाद ही हो जाना चाहिए था. रेलवे बोर्ड में अब अनी लोहानी की तैनाती हो ही गई है. अब अन्य मंत्रालय से किसी को टैग करने के बजाय प्रशासनिक रूप से ऐसे सक्षम नेता को रेल मंत्री बनाया जाए, जिसकी निष्ठा सुरक्षित, समयबद्ध और साफ-सुथरी रेल चलाने की हो.
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