बहुलतावाद पर खतरा
भारतीय संविधान और भारत के स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय उत्सवों के सामाजिक-सांस्कृतिक महत्त्व पर विचार करने से पहले इस तथ्य का अध्ययन अवश्य होना चाहिए कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के घोषित महान लक्ष्यों को पाने में हम कहां और क्यों भटक रहे हैं?
बहुलतावाद पर खतरा |
शायद भारत के वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक इतिहास को समझने में यह अध्ययन सबसे आकषर्क विषयों में से एक हो सकता है.
मुस्लिम लीग के संविधान सभा से बहिष्कार के बावजूद सभा में इतने योग्य, दूरदर्शी और अनुभवी लोग थे, जिन पर कोई भी देश गर्व कर सकता है. ये सभी सदस्य भारतीय समाज की विशिष्ट संरचना बहुलतावाद को आजाद भारत में दृढ़ता के साथ कायम रखना चाहते थे. इसलिए संविधान में राष्ट्रीय आंदोलन के धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूपों को शामिल किया गया.
संविधान के तहत अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के हित की रक्षा की समुचित व्यवस्था की गई. दरअसल, गांधी के नेतृत्व में संगठनात्मक स्तर पर कांग्रेस पार्टी का जो रूपांतरण हुआ उसमें पार्टी छोटे स्तर पर दबाव समूह की भूमिका से निकलकर जनआंदोलन में बदल चुकी थी. इसने मजदूरों-पूंजीपतियों, जमींदारों-किसानों, हिन्दू-मुसलमान, ब्राह्मणों-हरिजनों सभी का प्रतिनिधित्व हो चुका था.
जाहिर है, संविधान में समाज के सभी जातीय और धार्मिक समूहों की आकांक्षाएं व्यक्त की गई हैं, जिनके लिए लोगों ने इतना कठोर संघर्ष किया था. लेकिन उन धार्मिक समूहों और विशेषकर अल्पसंख्यकों की आकांक्षाएं और विासों पर उस समय कुठाराघात होने लगता है, जब बहुसंख्यकों के सामाजिक-सांस्कृतिक विासों को मानने के लिए उन पर अनावश्यक दबाव बनाया जाता है.
इन दिनों देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर ऐसा ही वातावरण बनाया जा रहा है. जाहिर है, इससे समाज के अल्पसंख्यक वर्ग में सुरक्षा का बोध कमतर हो रहा है. स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों में यह असुरक्षा का बोध देखा गया. यह प्रवृत्ति भारत जैसे बहुलतावादी राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए खतरनाक है.
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