अलगाववादियों से वार्ता नहीं
उच्चतम न्यायालय में शपथ पत्र देने के बाद अब किसी को इस बात में संदेह नहीं होना चाहिए कि केंद्र सरकार अलगाववादियों से बिल्कुल बातचीत नहीं करेगी.
अलगाववादियों से वार्ता नहीं |
हालांकि, केंद्र की ओर से यह बात कई बार स्पष्ट किया जा चुका था कि आजादी की मांग करने वाले या पाकिस्तान का कश्मीर में विलय का विचार रखने वाले हुर्रियत कांफ्रेंस नेताओं और उनके समर्थकों से वार्ता नहीं होगी. बावजूद इसके पिछले कुछ दिनों में जो माहौल कश्मीर में बना था और मुख्यधारा के नेताओं की ओर से जैसे बयान आए थे, उनसे यह संदेह होने लगा था कि शायद सरकार अपनी नीति में कुछ बदलाव करे.
जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा था कि सभी पक्षों से बातचीत की जानी चाहिए. प्रधानमंत्री से उनकी मुलाकात के बाद दिए गए बयान से इस आशंका को और बल मिला था. उच्चतम न्यायालय में स्पष्टीकरण के बाद इस तरह की तमाम आशंकाएं या कयास निमरूल साबित हुई हैं.
सरकार की इस नीति का समर्थन किया जाना चाहिए. यह तर्क दिया जाता है कि किसी समस्या का समाधान अंतत: बातचीत से ही होता है. कोई बातचीत से समाधान करने का इच्छुक हो तभी न उससे बातचीत हो सकती है.
आखिर जो लोग भारत की एकता-अखंडता में विश्वास नहीं रखते, जो देश को तोड़ना चाहते हैं और अपनी उस सोच पर अडिग हैं उनसे बातचीत कर क्या मिल सकता है? सच तो यह है कि बातचीत करने से हुर्रियत नेताओं को ताकत मिल जाती है. उनके समर्थकों को लगता है कि हमारे नेताओं का महत्त्व है तभी तो सरकार उनसे बातचीत कर रही है. वैसे भी उनसे बातचीत का आज तक कोई परिणाम नहीं निकला है. तो पिछले अनुभवों से सीख लेते हुए व्यावहारिक रणनीति यही हो सकती है कि उनको हर दृष्टि से हतोत्साहित किया जाए.
अगर देश का मूड देखा जाए तो एक-एक भारतवासी हुर्रियत नेताओं और पत्थरबाजों के खिलाफ कठोर कार्रवाई चाहता है. इसमें बातचीत देश के सामूहिक मनोविज्ञान के भी खिलाफ होगा. बातचीत अगर हो तो उनसे हो जो भारत के संविधान में विश्वास रखते हैं, जिनकी कुछ शिकायते हैं, लेकिन वे भारत को तोड़ने यानी कश्मीर को अलग करने की सोच नहीं रखते हैं. उच्चतम न्यायालय के सामने सरकार ने इसे भी स्पष्ट कर दिया है.
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