लोकपाल पर ना-नुकुर
आखिर सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि केंद्र सरकार लोकपाल की नियुक्ति के लिए जिन अड़चनों की बात कर रही है, वे गंभीर नहीं हैं. उनके बिना भी नियुक्ति की जा सकती है.
लोकपाल पर ना-नुकुर |
यही नहीं, अदालत ने यह भी साफ कर दिया कि उसकी मंशा कार्यपालिका या विधायिका की भूमिका में हस्तक्षेप करने की नहीं है लेकिन सरकार जिन संशोधनों का इंतजार कर रही है, वे कोई ठोस वजह नहीं हो सकते. अदालत ने यह भी कहा कि 2013 का लोकपाल और लोकायुक्त कानून पर्याप्त है, जो 2014 से अमल में आ चुका है और उस पर कारगर ढंग से अमल किया जा सकता है.
अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी सिर्फ यही दलील दे पाए कि लोकपाल कानून में विपक्ष के नेता के बारे में संशोधन लंबित है और विधायका को किसी वैधानिक कार्य के लिए किसी समय-सीमा से नहीं बांधा जा सकता. यह दलील ही संकेत देती है कि सरकार लोकपाल की नियुक्ति को लेकर गंभीर नहीं है, जो आरोप याचिकाकर्ता एनजीओ ‘कॉमन काज’ ने लगाया है. सरकार उस संशोधन की बात कर रही है, जो लोकपाल की चयन समिति में लोक सभा में विपक्ष के नेता की परिभाषा के बारे में है.
मौजूदा कानून के मुताबिक चयन समिति के तीन सदस्यों में प्रधानमंत्री और प्रधान न्यायाधीश या उनके प्रतिनिधि के तौर पर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश के अलावा लोक सभा में विपक्ष के नेता का होना जरूरी है. फिलहाल विपक्ष के नेता का पद खाली है क्योंकि नियमों के मुताबिक सबसे बड़ी पार्टी के पास भी इसके लिए जरूरी दस प्रतिशत सदस्य संख्या नहीं है. यह कोरा बहाना है क्योंकि दिल्ली में 70 सदस्यों की विधानसभा में कुल तीन सदस्यों वाली भाजपा को भी यह मान्यता दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने दे रखी है.
वैसे भी लोक सभा में कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे संसदीय दल के नेता होने के नाते व्यावहारिक तौर पर यह भूमिका निभा रहे हैं. अगर सरकार की मंशा साफ होती तो निश्चित ही कोई उपाय तलाशा जा सकता था. सरकार भले पारदर्शिता की बात करे लेकिन अभी पीएमओ का नियंत्रण सर्वाधिक है. सरकार को सूचना का अधिकार कानून भी रास नहीं आता. प्रधानमंत्री मोदी ने इसके पहले गुजारत में बतौर मुख्यमंत्री लोकायुक्त की नियुक्ति में भी बड़ी बेरुखी दिखाई थी. इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने सही समय पर दखल देकर सरकार को राह दिखाई है.
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