नदी का मानवाधिकार

Last Updated 22 Mar 2017 01:57:18 AM IST

उत्तराखंड हाईकोर्ट ने पवित्र नदियों गंगा और यमुना को मानवाधिकार देने के लिए चाहे न्यूजीलैंड के हाल के एक फैसले की नजीर दी हो मगर यह कई मायनों में ऐतिहासिक है.


नदी का मानवाधिकार

अभी पिछले हफ्ते ही न्यूजीलैंड की संसद ने वांगनुई नदी को जीवित प्राणी की तरह अधिकार प्रदान किए. वांगनुई नदी को वहां के मूल अधिवासी मौरी लोग पवित्र मानते हैं और वे लगभग 150 साल से इस नदी के संरक्षण की लड़ाई लड़ रहे थे.

यूरोप के लोगों के वहां आ बसने के बाद वहां इस नदी का दोहन कई क्षेत्रों में इतना हुआ कि उसकी सांसें टूटने लगीं. अब नए कानूनी अधिकार के साथ नदी को बर्बाद करने वालों पर उन्हीं धाराओं के तहत कार्रवाई हो सकेगी जैसे मानव उत्पीड़न में होती है. यह किस्सा हमारे यहां से कितना मिलता-जुलता है. हमारे देश में भी विकास की आंधी ने हमारी नदियों की ऐसी दुर्दशा की कि कई नदियां तो वाकई मर चुकी हैं.

सबसे विशाल और पवित्र मानी जाने वालीगंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा वगैरह का भी कुछेक हिस्सों में प्रवाह लगभग मर चुका है. दिल्ली में तो यमुना की मानो सांस ही रुक जाती है. इसलिए उत्तराखंड हाईकोर्ट के न्यायाधीश राजीव शर्मा और आलोक सिंह साधुवाद के पात्र हैं. उन्होंने वह फैसला सुनाया, जो हमारी सरकारें और नेताओं ने कल्पना भी नहीं की. हालांकि नदियों की सफाई और उनका प्रवाह अवरुद्ध न करने की बातें लगातार होती रही हैं. 1985 से ही गंगा-यमुना सफाई के नाम पर हजारों करोड़ रुपये बहाए जा चुके हैं.

यह सरकार भी ‘नमामि गंगे’ योजना चला रही है और इसे अपनी महत्त्वाकांक्षी योजनाओं में भी गिनती है. लेकिन अभी तक ये सारी योजनाएं बेमानी हैं. न नदियों पर बांध बनना रुक रहा है, न शहरों और कारखानों के गंदे पानी को कहीं और बहाने का कोई मुकम्मल उपाय किसी के पास है. अगर उपाय है भी तो उन पर अमल करने की इच्छाशक्ति का अभाव है. ऐसे में अदालत ने राह दिखाई है.

उसने कई ऐसे प्रावधान बनाने को कहा है, जिनसे नदी संरक्षण किया जा सकेगा. लेकिन अगर नदी बचाने के नाम पर लोगों को पूजा-अर्चना करने से रोकने या उनके दैनिक कार्यों में रोड़ा अटकाने का अभियान चलेगा तो सारा प्रयास बेमानी होकर रह जाएगा. असली गुनहगारों यानी शहरों और कारखानों व बड़ी परियोजनाओं से होने वाले प्रदूषण पर लगाम लगाना होगा. तभी नदी के मानवाधिकार सुरक्षित रह पाएंगे.



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