दुखद : उत्तराखंड में बढ़ रही नवजात शिशु मृत्यु दर

Last Updated 15 Oct 2017 05:56:31 AM IST

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के हालिया सालाना सर्वेक्षण सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के मुताबिक उत्तराखंड देश के उन राज्यों शामिल हो गया है, जहां नवजात शिशुओं की मृत्यु दर घटने की बजाय बढ़ गई है.


उत्तराखंड में बढ़ रही नवजात शिशु मृत्यु दर

आंकड़ों के मुताबिक 2016-17 में उत्तराखंड में नवजात शिशु मृत्यु दर 38 प्रति हजार है जो कि पिछले साल यानी 2015-16 के मुकाबले चार अधिक है. साफ है कि उत्तराखंड में जन्म लेने वाले बच्चे पहले की तुलना में ज्यादा काल का ग्रास बन रहे हैं.

पिछले महीने आई रिपोर्ट के मुताबिक नौ इम्पार्वड एक्शन ग्रुप राज्यों बिहार, असम, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदे्श, उत्तराखंड , झारखंड , छत्तीसगढ़, उड़ीसा और राजस्थान में उत्तराखंड ही अकेला राज्य है, जहां नवजात शिशु मृत्यु दर बढ़ी है. इन राज्यों को एक साथ इसलिए लिया जाता है क्योंकि इन राज्यों में देश के अन्य क्षेत्रों की तुलना में नवजात शिशु मृत्यु दर अधिक है.

आंकड़ों पर गौर करें तो मध्य प्रदेश में इस साल नवजात शिशु मृत्यु दर घटकर 50 से 47 , उत्तर प्रदेश में 46 से 43, असम में 47 से 44, उड़ीसा में 46 से 44, राजस्थान में 43 से 41, छत्तीसगढ़ में 41 से 39, बिहार में 42 से 38 व झारखंड में 35 से 31 हो गई है. पिछले साल के सव्रे में उत्तराखंड में नवजात शिशु मृत्यु दर 34 थी जबकि इस बार यह 38 होगई है. कन्या शिशु मृत्यु दर 41 तो नवजात बालक मुत्यु दर 36 है. प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में कन्या नवजात शिशु मृत्यु दर बहुत ज्यादा यानी 44 है. 

राज्य में 2010 में  नवजात शिशु मृत्यु दर 38 थी लेकिन तब से अब तक इसमें लगातार सुधार हुआ था. 2015 में यह 34 थी जिसमें बालक शिशु मृत्यु दर  31 व  बालिका शिशु मृत्य दर 38 थी. शहरी क्षेत्रों में बालक शिशु मृत्यु दर 27 व  बालिका शिशु मृत्य दर 32 है. शिशु मृत्यु दर की स्थिति गांवों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में बेहतर है. शहरों में यह 29 प्रति हजार है तो गांवों में 41 प्रति हजार है. हरिद्वार जैसे जिलों में ज्यादा निरक्षरता की वजह से नवजात शिशु मृत्यु दर अधिक है. यहां यह 64 तक है.

हाल में जारी हंगर इंडेक्स में भी भारत में भुखमरी के हालत बदतर प्रदर्शित हुए हैं. बाल मृत्यु दर बढ़ने का यह भी एक कारण माना जा सकता है. स्वास्थ्य सेवाओं में काम कर चुके देवेंद्र बुड़ाकोटी का कहना है कि पिछले कुछ समय से 108 इमरजेंसी सेवाओं का जो हाल रहा, उसके स्टाफ को वेतन तक नहीं दिया गया, ऐसे में संभव है कि नवजात शिशु मृत्यु दर में इस तरह का लापरवाही का भी योगदान हो. बता दें कि पिछले छह साल में 108 आपातकालीन सेवा के लिए उत्तराखंड में एक भी नई एम्बुलेंस नहीं खरीदी गई है.

साल 2008 में 90 एम्बुलेंस खरीदी गई थी. 2010 में18 एम्बुलेंस और 2011 में 30 एम्बुलेंस खरीदी गई. प्रदेश के 13 जिलों में आपातकालीन स्थिति में जान बचाने का जिम्मा इन्हीं 138 एम्बुलेसं पर हैं जिनमें अधिकांश 3 लाख से 5 लाख किलोमीटर तक चल चुकी है जबकि मानकों के हिसाब से तीन साल या फिर डेढ़ लाख किलोमीटर चल चुकी एंबुलेंस सेवा से बाहर हो जानी चाहिए लेकिन आलम यह है कि ये बुजुर्ग खटारा एंबुलेंस आज भी सड़कों पर दौड़ रही हैं या कहीं बेकार खड़ी हैं. पूर्व डीजी हेल्थ डॉ. डीएस रावत का कहना है कि राज्य के डॉक्टरों में समर्पण की भावना में कमी भी इसकी वजह हो सकती है. लगता है कि ज्यादा नवजात शिशु मृत्यु दर वाले जिलों के डॉक्टर इस पर अधिक ध्यान नहीं दे रहे हैं.

सहारा न्यूज ब्यूरो


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