खामोश सियाराम के बोलते हैं समोसे, इशारे समझती हैं उंगलियां

Last Updated 22 Jan 2020 01:44:21 PM IST

उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के वजीरगंज कस्बे में चाय-पकौड़ी की दुकान करने वाला सियाराम भले ही खामोश है, उसे कानों से सुनाई नहीं देता, पर ग्राहकों के इशारे पर चलने वाली उसकी उंगलियां सब कुछ बोल, सुन और समझ लेती हैं।


चाय-पकौड़ी की दुकान करने वाला सियाराम

बड़ा दरवाजा इलाके का निवासी 32 वर्षीय सियाराम विश्वकर्मा ने जो कुछ एक बार खिला दिया, दूसरी बार की मांग पर भी अपने द्वारा बनाए पकवान का पहले वाला स्वाद ही चखाता है।

दिव्यांग सियाराम विश्वकर्मा न बोल पाता है और न ही कान उसके काम आते हैं। जुबां खामोश है और कान होते हुए भी उनके न होने का आभास है। बावजूद इसके, ग्राहकों को सियाराम से कोई शिकायत नहीं है। उसके बनाए पकवानों के खामोश स्वाद को सभी महसूस करते हैं। इसके हाथों के हुनर का लोहा घर वाले भी मानते हैं।

चाय, समोसा और नमकपारा खाने वाले हर ग्राहक भी यह कहने को विवश हैं कि सियाराम की उंगलियों के तराजू किसी इलेक्ट्रनिक कांटा से कम नहीं है। दूसरी बार बनाई गई चीजों में डाली गई मात्रा पहले बनाई गई चीजों के बराबर ही होती है।

गोंडा-अयोध्या हाइवे पर वजीरगंज कस्बे में स्थिति स्टेट बैंक के पास टी स्टॉल है। बगल की सर्राफा दुकान वाले दिनेश मौर्य का कहना है कि आज से चार साल पहले छोटू ने जब दुकान खोला तो किसी को यह अंदाजा नहीं था कि वह इतनी तेजी से और चीजों को पकड़ लेगा। महज एक महीने में ही वह समोसा, नमकपारा बनाने का अभ्यस्त हो गया है।

सियाराम की याददाश्त इतनी अच्छी है कि एक बार किसी को चीज को बनाते देख ले तो उसे वह हूबहू बना लेता है। समोसा, नमकपारा और चाय के स्वाद की तो बात ही निराली है। वह अपने काम की बदौलत 1000 से 800 रुपये हर दिन कमा लेता है।

उसके पिता सोमदत्त विश्वकर्मा का कहना है, "सियाराम जब डेढ़ साल का हुआ, तब उसकी दिव्यांगता का पता चला। वह न सुन सकता है और न ही बोल सकता है। गोंडा, फैजाबाद और लखनऊ जैसे शहरों में इलाज कराया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। थक-हार कर हम घर बैठ गए।"

परिजनों की मानें तो सियाराम पांच वर्ष की अवस्था से ही काफी सक्रिय था। दिनोंदिन उसकी प्रतिभा निखरती गई। 10 साल की उम्र से वह बनते हुए पकवानों और अन्य चीजों को हूबहू वैसा ही बनाने लगा।

मूक-बधिर सियाराम की देखादेखी अन्य दिव्यांगों ने भी काम करना शुरू किया है। दोनों पैरों से दिव्यांग अरविंद गांव में ढाबली रखकर किराना का सामान बेच रहा है। मूक-बधिर राजकुमार ने ऊर्जस्वित होकर दिहाड़ी शुरू कर दी है। बड़ा दरवाजा के बगल के गांव महादेवा के मूक-बधिर सुद्धू ने आटा फैक्ट्री में काम करना शुरू कर दिया है।

इसी तरह महादेवा के ही लालबाबू मूक-बधिर होने के बावजूद ट्रैक्टर चला रहा है और धर्मेद्र वजीरगंज बाजार में दिहाड़ी का काम कर रहा है।

आईएएनएस
गोंडा


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