एक साथ 3 तलाक असंवैधानिक, संविधान पीठ का 3 : 2 के बहुमत से फैसला

Last Updated 23 Aug 2017 06:28:36 AM IST

सुप्रीम कोर्ट ने तीन-दो के बहुमत से तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक करार दिया है. कोर्ट ने कहा है कि एक साथ तीन बार तलाक बोलकर संबंध विच्छेद करने की अनुमति न तो शरिया देता है और न ही भारतीय संविधान.


तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिये जाने के फैसले के बाद मुस्लिम महिलाएं विजयी चिन्ह दिखाते हुए खुशी का इजहार करती हुईं.

तीन तलाक संविधान में प्रदत्त समता के अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है.

चीफ जस्टिस जगदीश सिंह खेहर और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर ने तीन तलाक को इस्लामिक कानून और पर्सनल ल का अभिन्न अंग माना और कहा कि सुप्रीम कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता और सरकार इसपर कानून लाए, लेकिन वह अल्पमत में रहे. जस्टिस कुरियन जोसेफ, रोहिंटन फली नरीमन और उदय उमेश ललित ने कहा कि तीन तलाक भारतीय संविधान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता. यह इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों के भी खिलाफ है. इस्लामिक कानून में साफतौर पर कहा गया है कि तलाक की नौबत आने से पहले पति-पत्नी के बीच सुलह सफाई की कोशिश अनिवार्य है.

पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 395 पृष्ठ के फैसले के अंत में कहा कि तीन-दो के बहुमत में रिकार्ड की गई अलग-अलग राय के मद्देनजर तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक) की प्रथा निरस्त की जाती है. संविधान पीठ के पांच न्यायाधीशों में से तीन ने अलग-अलग निर्णय दिए. इनमें से बहुमत के लिए लिखने वाले जस्टिस कुरियन जोसेफ और रोहिंटन फली नरीमन ने मुख्य जजमेंट लिखने वाले चीफ जस्टिस खेहर के मत से असहमति व्यक्त की. वह सीजेआई और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर के अल्पमत के इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं थे कि तीन तलाक धार्मिक प्रथा का हिस्सा है और सरकार को इसमें दखल देते हुए एक कानून बनाना चाहिए.

 

जस्टिस जोसेफ, नरीमन और उदय उमेश ललित ने इस मुद्दे पर चीफ जस्टिस खेहर और जस्टिस नजीर से स्पष्ट रूप से असहमति व्यक्त की कि क्या तीन तलाक इस्लाम का मूलभूत हिस्सा है. तीन तलाक की प्रथा पिछले लगभग 1400 साल से प्रचलित थी. तीन तलाक की प्रथा निरस्त होने के बाद अब सुन्नी मुस्लिम, जिनमें तीन तलाक की प्रथा प्रचलित थी, इस तरीके का इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे क्योंकि शुरू में ही यह गैरकानूनी होगा.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा तलाक-ए-बिद्दत या एकबारगी तीन तलाक कहकर तलाक देने की प्रथा निरस्त किए जाने के बाद अब इनके पास तलाक लेने के दो ही तरीके-तलाक हसन और तलाक अहसान ही उपलब्ध हैं. तलाक अहसान के अंतर्गत मुस्लिम व्यक्ति पत्नी को लगातार तीन महीनों में एक एक बार तलाक कहकर तलाक ले सकता है. यह अवधि मासिक धर्म के अनुसार होती है. तलाक हसन के अंतर्गत मुस्लिम व्यक्ति मासिक धर्म के एक के बाद एक चक्र के दौरान  तलाक कहकर तलाक ले सकता है, लेकिन इन तीन मासिक धर्म के चक्र के दौरान किसी प्रकार का संसर्ग नहीं होगा.

अप्रैल में संविधान पीठ को सौंपा गया था मामला
► 30 अप्रैल, 2017 :  सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीा जे एस खेहर की अध्यक्षता में तीन जजों की पीठ ने तीन तलाक का मामला 5 सदस्यों वाली संविधान पीठ को सौंपा.
► 11 मई 2017 :  सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यों वाली संविधान पीठ ने सुनवाई शुरू की. संविधान पीठ ने तीन तलाक, हलाला, बहु विवाह प्रथा, उत्तराधिकार और बच्चों से संरक्षण से संबंधित मामले पर शुरू की सुनवाई.
► 1 अप्रैल 2017 : तीन तलाक के मुद्दे पर केन्द्र सरकार ने उठाए 4 बड़े सवाल.
► 16 फरवरी, 2017 : सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों से ट्रिपल तलाक पर उनकी राय मांगी.

सायरा बानो मामला
► फरवरी 2017 -  उत्तराखंड के काशीपुर की सायरा बानो ने तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली. सायरा बानो के पति ने शादी के 10 साल बाद मायके में चिट्ठी लिख कर तलाक दे दिया . चिट्ठी में सिर्फ तीन बार तलाक तलाक तलाक लिखा था. सायरा बानो ने गुजारा भत्ता के बजाए तलाक की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. सायरा ने एक से ज्यादा शादी और हलाला को भी चुनौती दी.

पहला सवाल - क्या तीन तलाक, हलाला और बहु विवाह प्रथा संविधान में मिले धार्मिक स्वतंत्रता के तहत आते हैं.
दूसरा सवाल-  समानता का अधिकार और गरिमा के साथ जीने का आधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में प्राथमिकता किसको दी जाए.
तीसरा सवाल-  क्या पर्सलन लॉ को संविधान की धारा 13 के तहत कानून माना जाए.
चौथा सवाल- क्या तलाक-ए-बिद्दत यानी तीन तलाक, निकाह, हलाला और बहु-विवाह प्रथा उन अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत सही है जिस पर भारत ने भी दस्तखत किए हैं. सभी पक्षों को इन सवालों के जवाब 30 अप्रैल तक देने को कहा गया.

आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की दलीलें
► ट्रिपल तलाक के खिलाफ दाखिल याचिकाएं सुनवाई योग्य नहीं हैं. मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधान के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत सुरक्षा हासिल है, उसे मूल अधिकार के कसौटी पर नहीं आंका जा सकता. अदालतें पर्सनल लॉ को दोबारा रिव्यू नहीं कर सकतीं और उसे बदला नहीं जा सकता. जब विवाह अपनी परंपराओं के अनुसार हो सकता है तो तलाक, उत्तराधिकार पर भी वही नियम लागू होने चाहिए.  

आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सवाल
► क्या पर्सनल लॉ का मूल अधिकार की कसौटी पर टेस्ट हो सकता है. क्या कोर्ट धर्म और धार्मिक नियमों की व्याख्या कर सकता है.  मुस्लिम पर्सनल लॉ संविधान के अनुच्छेद 25, 26 और 29 में प्रोटेक्टेड है. ऐसे में क्या इसकी व्याख्या या रिव्यू हो सकता है.  बोर्ड की दलील है कि इस्लाम में तीन तलाक की इजाजत है क्योंकि पति सही फैसला ले सकता है.
 

समयलाइव डेस्क


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