पं भीमसेन जोशी का निधन

Last Updated 24 Jan 2011 09:44:18 AM IST

मशहूर शास्त्रीय गायक पंडित भीमसेन जोशी का पुणे में सोमवार को निधन हो गया.


भारत रत्न से सम्मानित पंडित भीमसेन जोशी ने पुणे के सह्याद्रि अस्पताल में सोमवार सुबह आठ बजे के करीब अंतिम सांस ली. वो काफी समय से बीमार चल रहे थे. उनकी उम्र 89 वर्ष थी.

जोशी कई बीमारियों से जूझ रहे थे और उन्हें किडनी से सम्बंधित बीमारियां भी थीं. उन्हें पिछले 25 दिनों तक आईसीयू में जीवन रक्षक प्रणाली पर रखा गया. उनके चिकित्सक अतुल जोशी ने कहा, "शनिवार शाम को उनकी स्थिति और खराब हो गई. तमाम प्रयासों के बाद भी उनकी स्थिति खराब होती गई और सुबह 8.05 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली."

पीएम ने जताया शोक

भारतीय संगीत के हस्ताक्षर

जोशी के निधन के समय उनके निकट सम्बंधी और परिवार के सदस्य उनके पास मौजूद थे.

जोशी को 2008 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान "भारत रत्न" से सम्मानित किया गया था. पंडित जोशी को 1999 में पद्मविभूषण, 1985 में पद्मभूषण और 1972 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया. उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था. जोशी का मशहूर गाना "मिले सुर मेरा तुम्हारा" अविस्मरणीय है.

शास्त्रीय गायन को नई ऊंचाईयों पर ले जाने वाले जोशी के निधन से पूरे भारत में शोक की लहर दौड़ गई.

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी समेत अनेक राजनीतिक हस्तियों ने उनके निधन पर शोक व्यक्त किया.

जोशी ख़्याल गायकी और भजन के लिए अपनी अलग पहचान रखते थे. जोशी का जन्म वर्ष 4 फरवरी, 1922 में कर्नाटक में हुआ था. भीमसेन जोशी किराना घराने के महत्वपूर्ण गायक थे. उन्होंने 19 साल की उम्र से ही गाना शुरू कर दिया था और लगभग सात दशकों तक शास्त्रीय गायन किया.

पंडित भीमसेन जोशी ने सुरों को उस ऊंचाई पर पहुंचा दिया कि आने वाले कई युगों तक ये स्वर हवाओं में तैरते रहेंगे. पंडित भीमसेन जोशी उन महान कलाकारों में से थे जो अपनी सुरमयी आवाज से हर्ष और विषाद दोनों ही भावों में जान डाल कर श्रोताओं के दिल में गहरे तक बस चुके थे.

दमदार आवाज़

वर्तमान समय में जोशी को सर्वाधिक लोकप्रिय हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायक बनाने में निर्विवाद रूप से उनकी दमदार आवाज की अहम भूमिका थी. जोशी किराना घराने का प्रतिनिधित्व करते थे लेकिन उन्होंने हल्के शास्त्रीय संगीत, भक्ति संगीत और अन्य विविधतापूर्ण संगीत में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी.

चातुर्य और जुनून के संगम ने ही जोशी को उन अन्य शास्त्रीय गायकों से अलग स्थान दिया था जो अपनी घराना संस्कृति से ही जुड़े रहते थे जिससे उनकी रचनात्मकता बाधित हो सकती थी.

जोशी को बचपन से ही संगीत से लगाव था. वह संगीत सीखने के उद्देश्य से 11 साल की उम्र में गुरू की तलाश के लिए घर से चले गए. जब वह घर पर थे तो खेलने की उम्र में वह अपने दादा का तानपुरा बजाने लगे थे. संगीत के प्रति उनकी दीवानगी का आलम यह था कि गली से गुजरती भजन मंडली या समीप की मस्जिद से आती 'अज़ान' की आवाज सुनकर ही वह घर से बाहर दौड़ पड़ते थे.

गुरू की तलाश में छोड़ा घर

स्कूल से घर लौटते समय जोशी, ग्रामोफोन रिकॉर्ड बेचने वाली एक दुकान के सामने खड़े हो जाते थे और वहां बज रहा संगीत सुनते थे. वहीं उन्होंने अब्दुल करीम खान का एक रिकॉर्ड सुना. यहीं से उनके मन में गुरू की चाह भी उठ खड़ी हुई. यह बात जोशी ने अपनी आत्मकथा में कही.

गुरू की तलाश के लिए जोशी ने घर छोड़ा और गडग रेलवे स्टेशन चल पड़े. मुड़ी-तुड़ी कमीज, हाफ पैंट पहने जोशी टिकट लिए बिना ट्रेन में बैठे और बीजापुर पहुंच गए. वहां आजीविका के लिए वह भजन गाने लगे.

एक संगीतप्रेमी ने उन्हें ग्वालियर जाने की सलाह दी. वह जाना भी चाहते थे लेकिन ट्रेन को लेकर कुछ गफ़लत हुई और जोशी महाराष्ट्र की संस्कृति के धनी पुणे पहुंच गए.

पुणे में उन्होंने प्रख्यात शास्त्रीय गायक कृष्णराव फूलाम्बरीकर से संगीत सिखाने का अनुरोध किया. लेकिन फुलाम्बरीकर ने उनसे मासिक फीस की मांग की जिसे देना उस लड़के के लिए संभव नहीं था जिसके लापता होने पर अभिभावक गडग पुलिस थाने में शिकायत दर्ज करा चुके थे.

पहुंचे ग्वालियर

जोशी निराश हुए लेकिन उनका मनोबल नहीं टूटा. वह पुणो से मुंबई चले गए. गुरू की तलाश उन्हें हिन्दुस्तानी संगीत के केंद्र ग्वालियर ले गई जो उनका वास्तविक गंतव्य था.

ग्वालियर के महाराज के संरक्षण में रह रहे सरोद उस्ताद हाफि़ज अली खान की मदद से युवा जोशी ने माधव संगीत विद्यालय में प्रवेश लिया. यह विद्यालय उन दिनों अग्रणी संगीत संस्थान था.

गायकी के तकनीकी पहलुओं को सीखते हुए जोशी ने 'ख्याल' की बारीकियों को आत्मसात किया. ख्याल गायन को ग्वालियर घराने की देन माना जाता है.



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