विपश्यना और रेकी राह अलग लक्ष्य एक

Last Updated 29 Jun 2013 04:30:36 PM IST

हर रेकी साधक को विपश्यना अवश्य सीखनी चाहिए और हर विपश्ययी साधक को रेकी अवश्य सीखनी चाहिए.


विपश्यना और रेकी राह अलग लक्ष्य एक (फाइल)

जब रेकी में साधक अपने 24 अंगों की रेकी करता है तो अपना पूरा ध्यान उस अंग पर रखना होता है और उसे भी वहां होने वाली हर संवेदना को चुपचाप निष्क्रिय भाव से अनुभव करना पड़ता है.

यदि विपश्यना कृष्ण है, बुद्ध है, तो रेकी मीरा है, चैतन्य है, क्योंकि ज्ञान और भक्ति दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. भले ही मार्ग अलग है, बुद्धि और भावना मानव मस्तिष्क के अभिन्न अंग हैं. किसी को भी हम नकार नहीं सकते.

सारत: दोनों का ही अपना-अपना महत्व है. विपश्यना का मार्ग लंबा है, जो कदम-दर-कदम, धीरे-धीरे, कठिनाइयों से जूझते हुए, तूफानों से लड़ते हुए दृढ़ निश्चय को बरकरार रखते हुए एवरेस्ट की चोटी (ध्यान शिखर) पर पहुंचाता है. पर बामुश्किल कुछ ही लोग संसार में इस शिखर को छू पाते हैं.

वहीं रेकी सहज मार्ग है जो स्वयं में ध्यान का मार्ग न होते हुए भी ध्यान का पूर्ण लाभ देती है. यूं समझ लें कि रेकी सीखने की इच्छावश या स्वास्थ्य पाने के प्रयास में अनजाने ही रेकी साधक ध्यान के साथ सहज जुड़ जाता है, रेकी चाहे स्वयं की करनी हो या दूसरों की, हर साधक को ईश्वरीय प्राण ऊर्जा का माध्यम बनकर कुछ समय चुपचाप साक्षी भाव से, समता में रहकर प्रेम और करुणा में डूबकर, मंगल कामना करते हुए अकर्ताभाव से रेकी करनी होती है.

\"\"दूसरे, ध्यान एक बार को बोरियत पैदा कर भी दे परंतु रेकी कभी बोरियत नहीं पैदा करती, उपचार करने के चक्कर में साधक को एकाग्र होकर अपने आप पर ध्यान देना ही पड़ता है और अपने साथ रहना ही पड़ता है. इसलिए रेकी सही मायने में उपवास है क्योंकि उपवास का असली अर्थ अपने नजदीक (समीप) रहना है, भूखा रहना नहीं. अन्य उपवास में दिनभर ध्यान भोजन पर होता है और रेकी में ध्यान अपने आप पर रहता है.

रेकी स्वयं, अपने आपमें एक विपश्यना ही है. जिस तरह विपश्यना में हरेक अंग पर समतापूर्वक साक्षीभाव से ध्यान कराया जाता है और उठती हुई संवेदनाओं के प्रति बिना राग-द्वेष के निष्क्रिय रहने को कहा जाता है, उसी तरह जब रेकी में भी साधक अपने 24 अंगों की रेकी करता है तो अपना पूरा ध्यान उस अंग पर रखना होता है और उसे भी वहां होने वाली हर संवेदना को चुपचाप निष्क्रिय भाव से अनुभव करना पड़ता है.

इस तरह धीरे-धीरे ध्यान, साक्षीभाव, दर्शकभाव, समताभाव में लगातार रहने की आदत से रेकी साधक को पता भी नहीं चल पाता कि वह कब धीरे-धीरे एवरेस्ट पर पहुंच गया. इतना सहज और सरल शायद ही कोई और ध्यान का मार्ग होगा. अन्य धर्म और ध्यान की विधियों ने लोगों को ध्यानी बनाया या नहीं किन्तु रेकी ने अवश्य हर सीखने वाले आदमी को ध्यानी बना दिया.

विपश्यना साधना में व्यक्ति सोच-समझकर, जानबूझकर अपनी व्यक्तिगत रुचि या खोज के चक्कर में प्रवेश करता है परंतु रेकी में सामान्य व्यक्ति अपने रोग, दुख, गरीबी और समस्याओं से छुटकारा पाने की लालसा से प्रवेश कर ध्यान और समर्पण की गहराइयों में चला जाता है. छोटे से लाभ की आशा में जीवन के महाप्रसाद, महास्वर्ग से जुड़ जाता है.

अपने दुख, समस्याएं और रोगों को भूलकर स्वास्थ्य, समता, निरंहकारिता, समृद्धि एवं आनंद के सागर में हिलोरे ले रहा होता है. \'निकले थे कहां जाने के लिए, पहुंचे हैं कहां मालूम नहीं\' ऐसा अनोखा हाल हो जाता है. जो भी रेकी साधक रेकी में ईमानदारी से काम कर रहा है वह इस अनुभव एवं सत्य का अवश्य अनुमोदन करेगा.

विपश्यना की सीमाएं हैं. रेकी असीमित है. विपश्यना का एकमात्र लक्ष्य है-आत्मबोध, प्रकृति के नियमों एवं सत्य का बोध जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा, बुद्धत्व को प्राप्त होना, परमहंस होकर सदा के लिए उड़ जाना. इस लक्ष्य की कामना होने पर शरीर, मन, भावनाओं, संसार, परिवार, व्यवहार, धन-समृद्धि, इच्छाएं, सपने, नवीन रचनाएं, अनुसंधान, विकास जैसी चीजों के कोई मायने नहीं रह जाते. \"\"

इन चीजों से गुजरे बिना, इन्हें निबद्ध हृदय से भोगे बिना जो साधक विपश्यना साधना में प्रवेश करता है उसको वस्तुत: भयंकर संघर्ष से गुजरकर अपनी दमित, अतृप्त वासनाओं और कामनाओं से जूझते हुए ध्यान में एवरेस्ट पर चढ़ना होता है जिसमें 99 प्रतिशत तो आधे रास्ते में ही भटक जाते हैं या नीचे गिर जाते हैं. केवल एक प्रतिशत एवरेस्ट पर चढ़ पाते हैं जो बुद्ध, महावीर जैसे लोग जो इनको खूब भोगकर, तृप्त होकर इस मार्ग पर आए थे.

इसलिए हम पाते हैं कि विपश्यना साधक या कोई ध्यान के मार्ग में बढ़ रहे साधक या पहुंचे हुए महात्मा आध्यात्मिक उन्नति के बावजूद बड़ी-बड़ी बीमारियों से ग्रस्त होकर मरते हैं एवं बहुध जीवन की समृद्धियों से परे निर्धनता, दरिद्रता और सादगी में जीते हैं. निश्चय ही तब यह एकांग योग है संपूर्ण सर्वांगीण योग नहीं. संपूर्ण सर्वागीण योग तो परम स्वास्थ्य, परम समृद्धि एवं परम आनंद को कहा जाता है.

मानव को सच्चिदानन्द कहने के पीछे भी आनन्द को उसका एक मूल घटक मानने का सत्य निरूपित है, अकेला परम आनं द एवरेस्ट पर जाकर भी लंगड़ा है, अधूरा है क्योंकि वहां परम स्वास्थ्य एवं परम समृद्धि का अभाव है. भारत में सदियों से इस धारणा को अपनाने के कारण हम आत्मा से तो समृद्ध हो गए परंतु शरीर और समृद्धि के मामले में कंगाल रह गए. भारत के शीघ्र विकसित और समृद्ध न होने का यह एक सबसे बड़ा कारण है- आत्मा से मालामाल-शरीर धन से कंगाल. रेकी ठीक इसके विपरीत संपूर्ण योग की बात करती है.

वह न केवल शरीर के सभी साध्य-असाध्य रोगों से मुक्त करती है बल्कि निर्धनता से निकालकर परम समृद्धि की ओर ले जाती है. रेकी की सही साधना करने पर यह आत्मबोध एवं बुद्धत्व तक भी ले जाती है. इसमें कोई शक नहीं कि विश्वभर में अधिकतर रेकी साधक शरीर या मानसिक साधना तक ही सीमित रह गए हैं या रह जाते हैं और कुछेक तो शरीर तक ही सीमित रह जाते हैं. यह रेकी का बहुत आंशिक उपयोग है और सीमित लाभ की स्थिति है. बहुत कम साधक इसके पूर्ण लाभ या एवरेस्ट को प्राप्त कर पाते हैं.

रेकी की गहरी जानकारी के अभाव में स्वयं रेकी आचार्य एवं उसके विद्यार्थी भी इसे उपचार पद्धति मानकर सीमित अनुभवों तक ठहर जाते हैं. रेकी एक अदृश्य सूक्ष्म तरंगों का महाविज्ञान है. इन तरंगों में अपनी इच्छानुसार परिवर्तन लाकर व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है, समृद्ध हो सकता है, आनंदित हो सकता है, अपने भाग्य, संयोग और भविष्य को जैसा चाहे बना सकता है, उनमें परिवर्तन ला सकता है. इस सूक्ष्म तरंगों के विज्ञान को जानने के बाद तथा इसके अचूक नियमों को पहचानने के बाद उसके लिए भाग्य, संयोग, चमत्कार, परमात्मा की मर्जी जैसे शब्द समाप्त हो जाते हैं.

रेकी साधक दृश्य और अदृश्य दोनों तरह की ऊर्जाओं का उपयोग कर जीवन को पूर्णता की ओर ले जाकर इसका पूर्ण उपयोग करता है. रेकी जीवन जीने की, प्रेम की, उपचार की एक ऐसी अतुलनीय कला है जो स्वयं में, दूसरों में, वस्तुओं में, परिस्थितियों में, भविष्य में, रिश्तों में, व्यापार में, संसार में कहीं पर भी एक सकारात्मक प्रेमपूर्ण उपचारात्मक ऊर्जा निर्मित करने की क्षमता रखती है.

\"\"वह जीवन से प्रेम करना सिखाती है, जीवन से भागना या कटना नहीं सिखाती बल्कि बार- बार इस जीवन में आकर ज्ञान पाने की कला सिखाती है. जीवन को लगातार असीम समृद्धियों की ओर ले जाना सिखाती है, जीवन का पूर्ण उपभोग करना सिखाती है. यह दुख, रोग और समस्याओं को सकारात्मक ऊर्जा का अभाव मानकर विपरीत, सकारात्मक, ऊर्जा द्वारा स्वास्थ्य और संतुलन पैदा करती है. वह संबंधों की बढ़ोत्तरी पर इनसे भागना नहीं, वरन इन्हें सुधरना सिखाती है. रेकी जीवन में आने के पक्ष में है वहीं विपश्यना जीवन से मुक्त होने के पक्ष में है.

रेकी के लिए जीवन दुख ही है क्योंकि यहां सकारात्मक ऊर्जा का अभाव है पर जो पूर्ण करते ही जीवन आनंदमय बन जाता है. विपश्यना निश्चय ही आत्मोत्थान का मार्ग है परंतु विपश्यना किसी को रोगमुक्त नहीं कर सकती, समृद्धि नहीं कर सकती. विपश्यना जहां आंतरिक जगत को समृद्ध करती है, जिसके बिना बाहर का समृद्ध जगत कोई अर्थ नहीं रखता, वहीं रेकी बाहर के जगत को समृद्ध करती है जिसके बिना आंतरिक समृद्धि का कोई बहुत बड़ा महत्व नहीं है क्योंकि जिस जीवन को जीने के लिए, समृद्ध करने के लिए, पूर्णता को उपलब्ध होने के लिए हम विपश्यना द्वारा आत्मोत्थान की तरफ जाते हैं वहीं अगर आत्मोत्थान हमें संसार में, जीवन में, व्यवहार में, व्यापार में लेकर नहीं आता तो वह आत्मोत्थान या आत्मिक समृद्धि बुद्धों को ही मुबारक हो क्योंकि वह अधूरा योग है, अपूर्णता है. विपश्यना ब्रह्म है तो रेकी जगत है, दोनों अपनी जगह अटल सत्य हैं.

दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. ब्रह्म स्थिर खूंटी है तो जगत घूमने वाला बैल है. खूंटी के वगैर जिस तरह बैल अनियंत्रित हो जाएगा, उसी तरह खूंटी है और बैल नहीं है तो ऐसी हजारों खूंटियां भी पड़ी रहे कोने में, किसी काम की नहीं. जीवन संसार, व्यापार, व्यवहार, परिवार से दूर ले जाने वाली सारी साधनाएं संसार के विकास और इसकी समृद्धि के लिए घातक हैं.

एक पल हम ये सोच भी लें कि संसार में सारे लोग बुद्ध महावीर बन जाएं तो सारा संसार ही समाप्त हो जाएगा. जीवन ही नष्ट हो जाएगा. परमात्मा रचना में रुचि रखता है संसार को जीवनविहीन करने में नहीं. विपश्यना जहां ज्ञान का मार्ग है, बौद्धिक तार्किक लोगों को ज्यादा अपील करता है वहीं रेकी सीधी-सादी अनपढ़, गंवार, आदिवासी जैसी जनता को भी अपनी तरफ आकर्षित करती है क्योंकि रेकी में साधक पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, मन से भोला बनकर रहेगा तो उसकी रेकी उतनी ही प्रभावशाली होगी.

सच पूछा जाए तो रेकी और विपश्यना की तुलना निर्थक है क्योंकि विपश्यना फूल है तो रेकी उसकी सुगंध, विपश्यना जहां ईश्वर शब्द को ही समाप्त कर देती है, रेकी वहीं ईश्वर का रस स्वाद करवाती है. विपश्यना जहां सारी शक्तियों से विलग करती है; क्योंकि सारी शक्तियां अहंकार को पोषित करती है.

रेकी आपकी असीम शक्तियों की पहचान करवाती है जिससे आप जीवन को स्वस्थ, संतुलित, समृद्ध और आनंदित कर सकते हैं. अगर रेकी साधक के पास विपश्यना है तो वह इन शक्तियों से अहंकार या नकारात्मक भाव नहीं पैदा कर पाएगा. हालांकि अगर रेकी साधक विपश्यना नहीं भी जानता और नकारात्मक भाव पैदा करता है तो उसका आभामंडल एवं चक्र इन निगेटिव भावों से अपने आप संकुचित होकर रेकी प्रवाह को बंद कर देता है.

अहंकार, भय, लालसा एवं नकारात्मक भाव रेकी प्रवाह के दुश्मन हैं. परंतु यहां पर इस सुझाव पर जोर देना चाहूंगा कि हर रेकी साधक को विपश्यना अवश्य सीखनी चाहिए. इससे हममें संपूर्ण योग घटित होता है. हम पूर्णत्व को उपलब्ध होते हैं. अगर विपश्ययी साधक रेकी नहीं जानता तो वह पूर्ण योगी हो ही नहीं सकता क्योंकि उसे शारीरिक एवं सांसारिक समृद्धि एवं स्वास्थ्य के लिए दूसरों पर निर्भर रहना ही पड़ेगा.

विपश्यना सीखा हुआ रेकी साधक सभी निर्भरताओं से हमेशा के लिए मुक्त हो जाता है क्योंकि वह स्वयं रचनाकार बन जाता है. वह भाग्य, संयोग, स्वास्थ्य, परिस्थितियां और आदतें अपनी इच्छानुसार परिवर्तित कर सकता है. ये शक्तियां विपश्ययी साधक के पास नहीं होतीं. रेकी न जानने से वह इनसे वंचित रहता है. सार यही है कि हर रेकी साधक को विपश्यना अवश्य सीखनी चाहिए और हर विपश्ययी साधक को रेकी अवश्य सीखनी चाहिए. दोनों बौद्ध परंपरा के मार्ग मानव को संपूर्णता की ओर ले जाते हैं.

बौद्ध परंपरा के ये दोनों हीरे अनमोल और अतुलनीय हैं. दोनों की तुलना करके इस लेख के माध्यम से बौद्धिक प्रदर्शन करना मंतव्य नहीं है और न ही एक को अधिक महत्व देकर अहंकार का पोषण करना है. इस तुलना की मजबूरी से वे ग्रसित हैं जो दोनों विज्ञान की गहराइयों से अछूते हैं और परिणामवश गलतफहमी और नकारात्मक दृष्टिकोण की धुंध पैदा कर देते हैं. अक्सर ये धुंध सदियों तक छाई रहती है. भारत एवं विश्वभर के कुछेक विपश्यना साधकों में यह धुंध पैदा होने के कारण इस लेख को मजबूरन पैदा होना पड़ा है.

डॉ. एन. के. शर्मा
लेखक रेकी हीलिंग फाउंडेशन, दिल्ली के संस्थापक हैं


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