Maharaj Ranjit Singh's death anniversary: समारोह के लिए 417 भारतीय सिख लाहौर पहुंचे, जानिए कुछ महत्वपूर्ण बातें
महाराज रणजीत सिंह की पुण्यतिथि समारोह में शिरकत करने के लिए 400 से ज्यादा भारतीय सिख यात्री बुधवार को पाकिस्तान के लाहौर पहुंचे।
![]() महाराज रणजीत सिंह की पुण्यतिथि समारोह के लिए 417 भारतीय सिख लाहौर पहुंचे |
यात्रियों के बाघा सीमा पहुंचने पर उनका स्वागत इवेक्यूई ट्रस्ट प्रोपर्टी बोर्ड (ईटीपीबी) में ‘श्राइन’ के अतिरिक्त सचिव राणा शाहिद सलीम और पाकिस्तान सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अधिकारियों ने किया।
ईटीपीबी के प्रवक्ता आमिर हाशमी ने पीटीआई-भाषा से कहा, “ 417 भारतीय सिख बुधवार को यहां पहुंचे। सरकार ने 473 भारतीय सिखों को वीज़ा जारी किया था जिनमें से 417 ही आए।”
उन्होंने कहा कि मुख्य समारोह लाहौर किले के पास गुरुद्वारा डेरा साहिब में रणजीत सिंह की समाधि पर आयोजित होगा।
महाराजा रणजीत सिंह का परिचय
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि महाराजा रणजीत सिंह का जन्म महा सिंह और राज कौर के परिवार में पंजाब के गुजरांवाला (अब पाकिस्तान) में 13 नवंबर 1780 को हुआ था। छोटी सी उम्र में चेचक की वजह से महाराजा रणजीत सिंह की एक आंख की रोशनी चली गयी थी। जब वे 12 साल के थे, तभी उनके पिता चल बसे और राजपाट का सारा बोझ उन्हीं के कंधों पर आ गया। उस समय पंजाब प्रशासनिक तौर पर टुकड़े-टुकड़े में बंटा था। इनको मिस्ल कहा जाता था और इन मिस्ल पर सिख सरदारों की हुकूमत चलती थी। रणजीत सिंह के पिता महा सिंह सुकरचकिया मिस्ल के कमांडर थे, जिसका मुख्यालय गुजरांवाला में था।
10 साल की उम्र में पहला युद्ध लड़ा
पंजाब पर शासन करने वाले महाराजा रणजीत सिंह (Maharaja Ranjit Singh) ने 10 साल की उम्र में पहला युद्ध लड़ा था और 12 साल की उम्र में गद्दी संभाल ली थी। वहीं 18 साल की उम्र में लाहौर को जीत लिया था। 40 वर्षों तक के अपने शासन में उन्होंने अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के आसपास भी नहीं फटकने दिया। दशकों तक शासन के बाद रणजीत सिंह का 27 जून, 1839 को निधन हो गया, लेकिन उनकी वीर गाथाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।
► महाराजा रणजीत सिंह ने अन्य मिस्लों के सरदारों को हराकर अपने सैन्य अभियान की शुरुआत की। 7 जुलाई, 1799 को उन्होंने पहली जीत हासिल की। उन्होंने चेत सिंह की सेना को हराकर लाहौर पर कब्जा कर लिया, जब वे किले के मुख्य द्वार में प्रवेश किया तो उन्हें तोपों की शाही सलामी दी गई। उसके बाद उन्होंने अगले कुछ दशकों में एक विशाल सिख साम्राज्य की स्थापना की। इसके बाद 12 अप्रैल, 1801 को रणजीत सिंह की पंजाब के महाराज के तौर पर ताजपोशी की गई। गुरु नानक जी के एक वंशज ने उनकी ताजपोशी संपन्न कराई। महज 20 साल की उम्र में उन्होंने यह उपलब्धि हासिल की थी। इसके बाद 1802 में उन्होंने अमृतसर को अपने साम्राज्य में मिला लिया और 1807 में उन्होंने अफगानी शासक कुतुबुद्दीन को हराकर कसूर पर कब्जा किया।
► रणजीत सिंह ने अपनी सेना के साथ आक्रमण कर 1818 में मुल्तान और 1819 में कश्मीर पर कब्जा कर उसे भी सिख साम्राज्य का हिस्सा बन गया। महाराजा रणजीत ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ दिया। अब पेशावर समेत पश्तून क्षेत्र पर उन्हीं का अधिकार हो गया। यह पहला मौका था जब पश्तूनों पर किसी गैर-मुस्लिम ने राज किया। अफगानों और सिखों के बीच 1813 और 1837 के बीच कई युद्ध हुए। 1837 में जमरुद का युद्ध उनके बीच आखिरी भिड़ंत थी। इस भिड़ंत में रणजीत सिंह के एक बेहतरीन सिपाहसालार हरि सिंह नलवा मारे गए थे।
इस युद्ध में कुछ सामरिक कारणों से अफगानों को बढ़त हासिल हुई और उन्होंने काबुल पर वापस कब्जा कर लिया। उन्होंने पहली आधुनिक भारतीय सेना "सिख खालसा सेना" गठित किया। उनकी सरपरस्ती में पंजाब अब बहुत शक्तिशाली सूबा था। इसी ताकतवर सेना ने लंबे अर्से तक ब्रिटेन को पंजाब हड़पने से रोके रखा। एक ऐसा मौका भी आया जब पंजाब ही एकमात्र ऐसा सूबा था, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं था। ब्रिटिश इतिहासकार जे टी व्हीलर ने लिखा है के मुताबिक, अगर वह एक पीढ़ी पुराने होते, तो पूरे हिंदुस्तान को ही फतह कर लेते। महाराजा रणजीत खुद अनपढ़ थे, लेकिन उन्होंने अपने राज्य में शिक्षा और कला को बहुत प्रोत्साहन दिया।
पंजाब में क़ानून एवं व्यवस्था कायम की
उन्होंने पंजाब में क़ानून एवं व्यवस्था कायम की और कभी भी किसी को मृत्युदण्ड नहीं दिया। उनका सूबा धर्मनिरपेक्ष था उन्होंने हिंदुओं और सिखों से वसूले जाने वाले जजिया पर भी रोक लगाई। कभी भी किसी को सिख धर्म अपनाने के लिए विवश नहीं किया। इस बारे में वह कहते थे, भगवान ने मुझे एक आंख दी है, इसलिए उससे दिखने वाले हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, अमीर-गरीब मुझे सभी बराबर दिखते हैं। उन्होंने तख्त सिंह पटना साहिब और तख्त सिंह हजूर साहिब का निर्माण भी कराया। साथ ही उन्होंने अमृतसर के हरमंदिर साहिब गुरुद्वारे में संगमरमर लगवाया और सोना मढ़वाया, तभी से उसे स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा।
रणजीत सिंह के निधन के बाद सिख साम्राज्य का पतन
दशकों तक शासन के बाद रणजीत सिंह का 27 जून, 1839 को निधन हो गया। उनके बाद सिख साम्राज्य की बागडोर खड़क सिंह के हाथ में आई। रणजीत सिंह के मजबूत सिख साम्राज्य को संभालने में खड़क सिंह नाकाम रहे। शासन की कमियों और आपसी लड़ाई की वजह से सिख साम्राज्य का पतन शुरू हो गया। सिख और अंग्रेजों के बीच हुए 1845 के युद्ध के बाद महान सिख साम्राज्य पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया।
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