मिल-जुल कर रहें

Last Updated 23 Nov 2020 12:46:17 AM IST

यह उदाहरण कोई अपवाद नहीं। ‘एल्गी’ जाति के ‘प्रोटोंकोकस’ पोधे और फंगस जाति के एक्टीनो माइसिटीज’ पौधे भी आपस में मिलकर एक दूसरे को बहुत सुन्दर ढंग से पोषण की वस्तुएं प्रदान करते है।


हमें शिक्षा ज्ञान देता है पर हम अपनी अनपढ़ धर्मपत्नी या अशिक्षित पड़ौसी के लिए एक घण्टा भी नहीं निकाल सकते, हमारे माता-पिता हम जब बच्चे थे, तब आधे पेट गीले वस्त्रों में सोकर हमारी परवरिश करते थे, पर आज जब वे वृद्ध हो गए, तब हम उनकी क्या उतनी सेवा कर पाते हैं? दुकानदार, रेल वाला, बस वाला, सारा संसार यों कहिये अपनी सेवाएं हमें देने को तत्पर है, तब यदि हम दूसरों को धोखा देने की बात सोचें कृतघ्नता दिखायें तो ऐसे व्यक्ति से नीच और घृणित कौन होगा? पौधों का क्या अस्तित्त्व, पर वे मनुष्य जाति से अच्छे हैं। ऊपर के दोनों पौधे मिलकर एक चपटे आकार का ढांचा बना लेते हैं, उसे ‘जूलॉजी’ में ‘लाइकन’ कहते हैं।

इसमें से होकर एल्गी की जड़ें फंगस के पास पहुंचती है और फंगस की एल्गी के पास। एल्गी के पास जिस तत्त्व की कमी होती है, उसे फंगस पूरा कर देता है और फंगस की कमी को एल्गी-दोनों के आदान-प्रदान में यह थैला भी विकसित होता रहता है। औरों के कल्याण में अपना कल्याण, सबकी भलाई में अपनी भलाई अनुभव करने वाले समाज इसी तरह विकास और वृद्धि करते हैं और अपने साथ उन छोटे-छोटे दीन-हीन व्यक्तियों को भी पार कर ले जाते हैं, जो सहयोग के अभाव में दबे पड़े पिसते रहते हैं। स्कॉरपियन नामक एक मछली अपने शरीर के ऊपर छोटे-छोटे हाइड्रा जाति के जीवों को फलने-फूलने देती है, वे छोटे-छोटे जन्तु हजारों की संख्या में एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरी सतह में फैले रहते हैं।

देखने में यह हरे रंग के होते हैं। मछली के शरीर के ऊपर इनका पूरी तरह पोषण होता रहता है। जब एक अविकसित मछली दूसरे दीन-दुर्बलों की सहायता में इतना योगदान दे सकती है, तो हम समाज के दलिल माने-जाने वाले वगरे हरिजनों, आदिवासियों, दहेज के अभाव में पीड़ित बहनों, दवा के अभाव में पिसते रोगियों के लिए कल्याण की योजनाएं क्यों नहीं बना सकते। जीव-जीव, पेड़-पौधों तक में जब एक दूसरे के प्रति सेवा और सहयोग का भाव पनप रहा हो, तब मनुष्य जाति उससे पीछे हटे, यह उसका दुर्भाग्य ही कहना चाहिए।



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