मन के हारे हार...
ब्रह्माबिंदु उपनिषद में एक श्लोक है-मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो: बंधाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम।
सद्गुरु |
इसका अर्थ है, मन ही मनुष्य के बंधन तथा मोक्ष का कारण है। विषयासक्त मन बंधन का तथा निर्विषय मन मुक्ति का कारण बनता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मन अनन्त है अर्थात मन की शक्तियां अनन्त हैं। चेतन, अवचेतन और अचेतन -तीन स्तरों पर मन कार्य करता है। संकल्प-विकल्प, चिन्तन-मनन सब कुछ मन से संभव होता है। अनन्त शक्ति सम्पन्न मन को गीता में बहुत चंचल कहा गया है, जिसे बांध कर रखना वैसे ही कठिन है जैसे वायु को बांधना। पर यह असंभव नहीं। हम मन के गुलाम न बनें, यह हमारे हाथ में है।
मन हमारा अनुचर बनकर चले हमारे साथ यही अभीष्ट है। अभ्यास से मन को साधा जा सकता है। मन की एकाग्रता यदि सम्भव कर सकें तो उसकी सम्पूर्ण शक्तियां एक ही स्थान पर लगेंगी, तब मनचाहा लक्ष्य प्राप्त किया जा सकेगा। पर यह हो क्यों नहीं पाता? मनोवैज्ञानिकों का तो कहना है कि हम मन की अनन्त सामथ्र्य का सौवां अंश भी प्रयोग नहीं कर पाते हैं। ऋग्वेद में दु:स्वप्ननाशनम (ऋग्वेद 10,164) एक सूक्त है, जहां मन की विशेषताओं का वर्णन किया गया है। साथ ही दृढ़ संकल्प तथा आत्मविश्वास से मन को उसकी नकारात्मकता से मुक्त करने की बात भी कही गई है। मन ही पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ, सुख-दुख दोनों के लिए उत्तरदायी है। यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर है कि वह दोनों में से कौन सा मार्ग अपने लिए चुनता है।
बहुत बार हम प्रत्यक्ष में भला दिखने का प्रयत्न करते हैं, पर हमारे अवचेतन में दबा दुर्भाव पग-पग पर प्रकट होकर कुछ और ही अभिव्यक्त कर देता है। घृणा, द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या आदि के नकारात्मक भाव अवचेतन में संग्रहित होते-होते इस कदर बढ़ जाते हैं कि वे वाणी और कार्य व्यवहार द्वारा हमारे अनजाने में ही प्रकट हो जाते हैं। तब हमारे व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा सामाजिक संबंध भी विघटित होने लगते हैं। वैदिक ऋषि ऐसे कुविचारों, दुर्भावनाओं से मुक्ति पाने का प्रयत्न करते थे। बहुधा जीवतो मन: अर्थात जीवित मनुष्य का मन बहुत प्रकार का है। तथा बहुत्ता जीवतो मन:-जीवित का मन बहुत स्थानों पर प्रवृत्त होता है। ऐसे शक्तिशाली मन को बुरे संकल्पों से बचाने के लिए बहुत अधिक आत्मविश्वास चाहिए।
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