धर्म

Last Updated 17 Sep 2020 02:47:01 AM IST

आज के समय में लोगों ने धर्म को मजहब या संप्रदाय का पर्यायवाची मान लिया है।


श्रीराम शर्मा आचार्य

वे ‘धर्म’  शब्द सुनते ही किसी मत-पंथ या संप्रदाय से समझते हैं। यह नितांत भूल है। इसी भूल के चलते धर्म की गरिमा संदिग्ध हो गई है और मनुष्य धार्मिक कहलाने में गर्व अनुभव करने के बदले संकोच अनुभव करता है।

इस भ्रम को दूर करना जरूरी है। ‘धर्म’ कोई संप्रदाय नहीं, कोई मत-पंथ नहीं, बल्कि वह एक ऐसी रीति-नीति है, जो मानव को महामानव बनाकर खड़ा करती है। वह धारण करने की वस्तु है, न कि रटने भर की। उसे धारण करने पर ही वह अपेक्षित अनुदान दे सकने में समर्थ होता है। केवल रटने भर के धर्म में कोई ताकत नहीं होती जो किसी को कुछ दे दे।

सृष्टि निर्माण में मानवी चेतना के प्रादुर्भाव के साथ ही कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य की भावना ने सामाजिक प्राणी मानव के समक्ष धर्म का स्वरूप प्रस्तुत कर दिया। धर्म-भावना ईश्वरवादी सृष्टि से भी ऊंची है। संसार में कोई भी राष्ट्र, कोई भी प्राणी अधार्मिक होकर जी नहीं सकता क्योंकि प्राणी मात्र के कल्याण के लिए जो कुछ भी संभव हो सकता है, वह सब धर्म की सीमाओं में रहकर ही हो सकता है।

मनुष्य का धर्म यह है कि वह बाह्य व्यवहार एवं आंतरिक वृत्तियों का परिशोधन करे, अपने मूल रूप को जीवन में व्यक्त करे। यही शुद्ध स्वरूप ज्ञान ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ की श्रेष्ठतम भावनाओं को स्फुरित कर लोक मंगल को सहज साध्य बना सकता है। स्थूल स्तर पर हम धर्म को दो रूपों में देख सकते हैं। एक रूप वह जो देश, काल, पात्र के अनुरूप आचार संहिता प्रस्तुत करता है और आवश्यकतानुसार यथोचित परिवर्तन के साथ लोक मंगल की दिशाएं सक्रिय बनाता है।

धर्म का यह स्वरूप देश, काल और पात्र का सापेक्ष होता है। दूसरा स्वरूप वह है जो मूल तत्त्व है, शात है, अजर, अमर, अपरिवर्तनीय और अविनाशी है। यह मानवी आध्यात्मिक शक्तियों का उस चरम बिन्दु तक का विकास है, जहां धरती पर स्वर्ग और मनुष्य में देवत्व का अवतरण हो जाता है अर्थात् मानव का बाह्य आचरण एवं आंतरिक विचारणा मानव मात्र के कल्याण की दिशा में उन्मुख हो जाते हैं।



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