नारी का वर्चस्व
नर और नारी यों दोनों ही भगवान की दाई-बाई आंख, दाई बाई भुजा के समान हैं। उनका स्तर, मूल्य, उपयोग, कर्त्तव्य, अधिकार पूर्णत: समान है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
फिर भी उनमें भावनात्मक दृष्टि से कुछ भौतिक विशेषताएं हैं। नर की प्रकृति में परिश्रम, उपार्जन, संघषर्, कठोरता जैसे गुणों की विशेषता है; वह बुद्धि और कर्म प्रधान है । नारी में कला, लज्जा, शालीनता, स्नेह, ममता जैसे गुण हैं; वह भाव और सृजन प्रधान है। यह दोनों ही गुण अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं। उनका समन्वय ही एक पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करता है। सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नर और नारी की इन विशेषताओं का उपयोग किया जाता है। युद्ध कौशल में पुरु ष की प्रकृति ही उपयुक्त थी सो उसे आगे रहना पड़ा । जो वर्ग आगे रहता है, नेतृत्व भी उसी के हाथ में आ जाता है । जो वर्ग पीछे रहते हैं उन्हें अनुगमन करना पड़ता है।
परिस्थितियों ने नर-नारी के समान स्तर को छोटा-बड़ा कर दिया, पुरु ष को प्रभुता मिली-नारी उसकी अनुचरी बन गई। जहां प्रेम सद्भाव की स्थिति थी, वहां वह उस आधार पर हुआ और जहां दबाव और विवशता की स्थिति थी वहां दमनपूर्वक किया गया। दोनों ही परिस्थितियों में पुरु ष आगे रहा और नारी पीछे । नये युग के लिए हमें नई नारी का सृजन करना होगा, जो विश्व के भावनात्मक क्षेत्र को अपने मजबूत हाथों में सम्भाल सके और अपनी स्वाभाविक महत्ता का लाभ समस्त संसार को देकर नारकीय दावानल में जलने वाले कोटि-कोटि नर-पशुओं को नर-नारायण के रूप में परिणत करना सम्भव करके दिखा सकें। नारी के उत्कषर्-वर्चस्व को बढ़ाकर उसे नेतृत्व का उत्तरदायित्व जैसे-जैसे सौंपा जाएगा वैसे-वैसे विश्व शांति की घड़ी निकट आती जाएगी। जिन नारियों को हम माता, पत्नी, बहन या पुत्री के रूप में प्यार करते हैं, जिन्हें सुखी बनाने की कुछ चिंता करते हैं, उनके लिए रुढ़िवादी मान्यताओं द्वारा हम अपकार भी पूरा-पूरा करते है। किसी स्त्री का जब सूर्य अस्त हो जाता है और घर की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं होती तो उस बेचारी पर कैसी बीतती है इसे हममें से हर कोई जानता है। पर्दा प्रथा के कारण जो नारी बाजार से साग खरीदकर लाना भी नहीं सीख सकी, किसी के बात करना भी जिसे नहीं आता वह मुसीबत के समय पति या बच्चों के लिए दवा खरीदने या चिकित्सक को बुलाकर लाने में भी समर्थ नहीं हो सकती।
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