सनातन है हमारा अस्तित्व

Last Updated 30 Jan 2015 03:10:00 AM IST

भगवद्गीता का प्रयोजन मनुष्य को भौतिक संसार के अज्ञान से उबारना है.


धर्माचार्य स्वामी प्रभुपाद

प्रत्येक व्यक्ति अनेक प्रकार की कठिनाइयों फंसा रहता है, जिस प्रकार अर्जुन भी कुरुक्षेत्र में युद्ध करने के लिए कठिनाई में था. अर्जुन ने श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली, फलस्वरूप इस भगवद्गीता का प्रवचन हुआ.

न केवल अर्जुन वरन हममे से प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक अस्तित्व के कारण चिंताओं से पूर्ण है. हमारा अस्तित्व ही अनस्तित्व के परिवेश में है. वस्तुत: हमें अनस्तित्व से भयभीत नहीं होना चाहिए. हमारा अस्तित्व सनातन है लेकिन हम किसी न किसी कारण असत में डाल दिये गये हैं. असत का अर्थ उससे है जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता है.

कष्ट भोगने वाले अनेक मनुष्यों में केवल कुछ ही ऐसे हैं, जो वास्तव में यह जानने के जिज्ञासु हैं कि वे क्या हैं और इस विषम स्थिति में क्यों डाल दिए गए हैं आदि-आदि. जब तक मनुष्य को अपने कष्टों के विषय में जिज्ञासा नहीं होती, जब तक उसे यह अनुभूति नहीं होती कि वह कष्ट भोगना नहीं, अपितु सारे कष्टों का हल ढूंढना चाहता है. तब तक उसे सिद्ध मानव नहीं समझना चाहिए. मानवता तभी शुरू होती है जब-जब मन में इस प्रकार की जिज्ञासा उदित होती है.

ब्रह्म सूत्र में इस जिज्ञासा को ब्रह्म जिज्ञासा कहा गया है- अथातो ब्रह्म जिज्ञासा. मनुष्य के सारे कार्यकलाप तब तक असफल माने जाने चाहिए जब तक वह परब्रह्म के स्वभाव के बारे में जिज्ञासा न करे. अतएव जो लोग यह प्रश्न करना प्रारंभ कर देते हैं, कि वे क्यों कष्ट उठा रहे हैं या वे कहां से आये हैं और मृत्यु के बाद कहां जाएंगे, वे ही भगवद्गीता को समझने वाले सुपात्र विद्यार्थी हैं.

निष्ठावान विद्यार्थी में भगवान के प्रति आदर भाव भी होना चाहिए. अर्जुन ऐसा ही विद्यार्थी था. जब मनुष्य वास्तविक जीवन के प्रयोजन को भूल जाता है तो भगवान कृष्ण विशेष रूप से उस प्रयोजन की पुनस्र्थापना के लिए अवतार लेते हैं. तब भी असंख्य जाग्रत लोगों में से कोई एक होता है जो वास्तव में अपनी स्थिति को जान पाता है और भगवद्गीता उसी के लिए कही गई है.

(प्रवचन के संपादित अंश ‘श्रीमदभगवद्गीता’ से साभार)



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