सबसे बड़ी सिद्धि
यह नर जगत जन्म, जरा तथा मृत्यु के क्लेशों से पूर्ण है, अत: जो परम सिद्धी प्राप्त करता है और परमलोक कृष्णलोक या गोलोक को प्राप्त होता है, वह वहां से कभी वापस नहीं आना चाहता.
धर्माचार्य स्वामी प्रभुपाद |
इस परमलोक को वेदों में अव्यक्त, अक्षर तथा परमा गति कहा गया है. दूसरे शब्दों में, यह लोक हमारी भौतिक दृष्टि से परे है और अवर्णनीय है, किंतु यह चरमलक्ष्य है जो महात्माओं का गंतव्य है.
महात्मा कृष्णभावनामृत में भक्ति विकसित करते हैं और दिव्यसेवा में इतने लीन हो जाते हैं कि वे न तो किसी भौतिक लोक में जाना चाहते हैं और न ही वे किसी आध्यात्मिक लोक में जाना चाहते हैं. वे केवल कृष्ण तथा कृष्ण का सामीप्य चाहते हैं, अन्य कुछ नहीं. यही जीवन की सबसे बड़ी सिद्धि है. ऐसे भक्त कृष्णभावनामृत में जीवन की परमसिद्धी प्राप्त करते हैं. दूसरे शब्दों में, ऐसे भक्त सर्वोच्च आत्माएं हैं.
समस्त योगियों को, चाहे वे कर्मयोगी हों, ज्ञानयोगी या हठयोगी- अंतत: भक्तियोग या कृष्णभावनामृत में भक्ति की सिद्धी प्राप्त करनी होती है, तभी वे कृष्ण के दिव्य धाम को जा सकते हैं, जहां से वे फिर कभी वापस नहीं आते. किंतु जो सर्वोच्च भौतिक लोकों अर्थात देवलोकों को प्राप्त होता है, उसका पुनर्जन्म होता रहता है.
जिस प्रकार इस पृथ्वी के लोग उच्च लोकों को जाते हैं, उसी तरह ब्रह्मलोक, चंद्रलोक तथा इंद्रलोक जैसे उच्चतर लोकों से लोग पृथ्वी पर गिरते रहते हैं. छांदोग्य उपनिषद् में जिस पंचाग्नि विद्या का विधान है, उससे मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकता है, किंतु यदि ब्रह्मलोक में वह कृष्णभावनामृत का अनुशीलन नहीं करता, तो उसे पृथ्वी पर फिर से लौटना पड़ता है.
जो उच्चतर लोकों में कृष्णभावनामृत में प्रगति करते हैं, वे क्रमश: और ऊपर जाते रहते हैं और प्रलय के समय वे नित्य परमधाम को भेज दिए जाते हैं. श्रीधर स्वामी ने अपने भगवद्गीता भाष्य में एक श्लोक उद्धृत किया है, जिसका भावार्थ है- जब इस भौतिक ब्रह्मांड का प्रलय होता है, तो ब्रह्मा और कृष्णभावनामृत में निरंतर प्रवृत्त उनके भक्त अपनी इच्छानुसार आध्यात्मिक ब्रह्मांड को तथा विशिष्ट बैकुंठ लोकों को भेज दिए जाते हैं.
(प्रवचन के संपादित अंश श्रीमद्भगवद्गीता से साभार)
Tweet |