प्रकृति के संयोजन पर टिकीं वैदिक परम्पराएं

Last Updated 14 Feb 2019 03:46:50 PM IST

गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन दर्शन के जरिये मान्यताओं की नजीर पेश कर अनुकरणीय बताया है।


प्रकृति के संयोजन पर टिकीं वैदिक परम्पराएं

संगम की रेती पर बसे अध्यात्म नगर में जप, तप, पूजा, अनुष्ठान और साधना में सनातनी परम्पराएं जीवंत हैं।  संत, महत्मा, धार्मिक संस्थाओं के साथ वैरागी रूप में हजारों कल्पवासियों की पूजा पद्धति के अपने पौराणिक और वैदिक नियम, संयम हैं।  रेती दिनचर्या की इन्हीं प्रवृत्तियों के साथ भोर में शुरू होती है और रात को विश्राम पर चली जाती है।  

गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन दर्शन के जरिये मान्यताओं की नजीर पेश कर अनुकरणीय बताया है।

‘प्रात:काल उठिके रघुनाथा, मातु पिता गुरु नावहिं माथा।’

इस चौपाई के जरिये नित्य जीवन शैली में आत्मसात करने की प्रेरणा दी गयी है।  शास्त्रों और वेदों में प्रात:काल में उठने के साथ पृथ्वी को प्रणाम कर दिनचर्या की शुरुआत करने को कहा गया है। नित्य क्रिया के साथ स्नान और सूर्य नमस्कार का विधान है। धर्म से जुड़ी पूजा साधना की इन परम्पराओं में स्नान के साथ माथे पर तिलक लगाने के अपने प्रभाव हैं। कुमकुम, चंदन, रोली के तिलक दोनों आंखों के ऊपर आज्ञा चक्र पर लगाये जाते हैं। इससे मनुष्य की एकाग्रता बढ़ती है।

तिलक लगाते समय अंगूठे का जो दबाव बनता है, उससे रक्त कोशिकाओं का संचार और सक्रियता बढ़ जाती है। परम्परा की इस क्रिया का लाभ पूजा और साधना की एकाग्रता के लिए होता है। पूजा पद्धतियों में शिखा का विशेष महत्व है। ऋषि, मुनि पुराने समय से चोटी रखते थे। शिखा और जटा का प्रचलन आज भी है। चोटी वाला स्थान दिमाग की समस्त नसों का केन्द्र होता है। दिमाग को स्थिर करने और क्रोध को नियंत्रित करने के साथ मानसिक मजबूती और एकाग्रता बढ़ती है। एकाग्र मन से की जाने वाली साधना प्रभावकारी होती है। विभिन्न प्रकार की शिखा के अपने अलग प्रभाव है।

स्नान के साथ सूर्य को जल चढ़ाते हुए नमस्कार की परम्परा है। जीवन के ऊर्जा स्रोत सूर्य की किरणों जब आंखों तक पहुंचती हैं तो इनकी रोशनी बढ़ जाती है। ‘ऊं नमो भगवते सूर्यायाक्षितेजसेनम:’ के साथ अर्ध्य देने की क्रिया में आदित्य हृदय स्रेत का पाठ प्रभावकारी बताया गया है। त्रिवेणी में स्नान, ध्यान की इस क्रिया से वैरागी, कल्पवासी प्रात: पूजा की शुरुआत करते हैं।

सनातन संस्कृति के पूजा विधान में प्रणाम का अपना विशेष महत्व है। हाथ जोड़ नमस्कार करने के भी धार्मिक और वैज्ञानिक प्रभाव हैं। नमस्ते के समय जब दोनो हाथों की उंगलियां आपस में जुड़ती हैं तो इसके दबाव का असर आंखों, कान और दिमाग पर होता है। वैज्ञानिक इसे एक्यूप्रेशर की संज्ञा देते हैं। स्वस्थ चित्त का यह कारण बनता है। चरण स्पर्श प्रणाम संस्कृति के सम्मान भाव से जुड़ा है। गुरु परम्पराओं के साथ सामान्य जीवन में अपने बड़े, गुरुजनों, संतों और अपने ईस्ट को चरण छूने या साष्टांग प्रणाम को आदर, सम्मान का प्रतीक माना गया है। यह प्रत्येक दशा में फलदायी है। मान्यता है कि प्रणाम के वक्त मस्तिष्क की ऊर्जा सामने वाले के शरीर में पहुंचती है और सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद के वक्त ऊर्जा पुन: शरीर में वापस आती है। इसे ऊर्जा चक्र कहा गया है। मस्तिष्क एकाग्रता के साथ पूजा, वंदना असरकारी मानी जाती हैं।

संगम की रेती पर ध्यान, योग, अनुष्ठान की क्रिया से जुडे कल्पवासियों की अपनी दुनिया है। वैराग्य स्वरूप में मास पर्यत नियम संयम के इनके विधान में एक वक्त का भोजन और विशेष अवसरों पर व्रत विधान है। यह गृहस्थ पूजा पद्धतियों का भी हिस्सा है।  संस्कृति का यह विधान अत्यन्त प्रभावकारी माना गया है। प्रकृति ग्राही वायु, जल, अग्नि, सूर्य, शिखा, सूत्र से जुड़ी पूजा पद्धतियों में ज्ञान मार्गपर चलने के लिए कहा गया, ‘प्रथमा सहजावस्था, द्वितीया ध्यान धारणा, तृतीया प्रतिमापूजा, यज्ञयात्राचतुर्थकाम्’। साधक को इन चार अवस्थाओं से जुड़कर साधना विधान बताया गया है।

सामान्य जीवन प्रक्रिया और परम्परा में प्रकृति प्रदत्त उन नौ शुभ पत्तों का रोजमर्रा साधना का गहरा जुड़ाव है। धार्मक परम्पराओं में इनकी अपनी मान्यताएं हैं। इनमें तुलसीपत्ता, विल्व पत्र, पान पत्ता, केला पत्ता, आम के पत्ते, शमी, पीपल के साथ सोम की पत्तियों का जुड़ाव वैदिक काल से होता रहा है। 

तुलसी को शास्त्र शुभकारी आयुर्वेद गुणकारी बताता है। किसी भी पूजा में तुलसी दल चढ़ाने का विधान है। घर में तुलसी पूजा, प्रत्येक कल्पवासी के साथ तुलसी के पौधे इसके महत्व को पुष्ट करते हैं। विल्व पत्र भगवान शंकर की आराधना का मुख्य अंग है।  यह तन, मन को स्वस्थ रखता है। पान को संस्कृत में ताम्बूल कहा गया है। पूजा, अनुष्ठान पान के पत्ते के बगैर संभव नहीं है। केला के पत्ते हमारे धार्मिक आयोजन से जुड़े हैं। इसके पेड़ को परम पवित्र माना जाता है। समृद्धि के लिए इसकी पूजा के साथ फल, पत्तों का उपयोग किया जाता है। कई रोगों के लिए भी यह कारगर है। मांगलिक कार्य में आम के पत्तों का विशेष महत्व है। मंडप, कलश, तोरण आदि की परम्परा रही है। इससे सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। इसकी लकड़ियों का उपयोग समिधा में वैदिक काल से किया जाता है।

शमी के पत्ते भगवान शिव के साथ गणोश जी को अर्पित किये जाते हैं। कलह दूर करने की इनकी मान्य है। सफेद कीकर, खेजड़ों, समड़ी शाई, बबली बली आदि नामों से भी जाना जाता है। गणेश जी को शमी पत्ते चढ़ाने से बुद्धि तीक्ष्ण होती है।

पीपल को देववृक्ष कहा गया है। स्कंद पुराण में इसकी विशद व्याख्या की गयी है। इसके पत्तों में देवदास बताया गया है। इसकी पजा, इसके पत्तों पर रामनाम लिखकर हनुमान जी को चढ़ाना फलदायी होता है। सोमलताएं बहुधा पर्वत श्रृंखलाओं में पायी जाती है। इनका उपयोग सभी देवी देवताओं की पूजा में किया जाता है।    

 

शशिकांत तिवारी/सहारा न्यूज ब्यूरो
प्रयागराज


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