मानवता का संदेश देता संत कबीर की निर्वाणस्थली

मगहर: मानवता का संदेश देता संत कबीर की निर्वाणस्थली

लोगों में अंधविश्वास प्रचलित रहा कि काशी में मुत्यु से मुक्ति मिल जाती है, जबकि मगहर के बारे में लोगों की सोच थी ‘मगहर मरै से गदहा होय’. मगहर की भौगोलिक स्थिति भी काफी खराब थी. ऐसे में संत कबीर ‘जस काशी तस उसर मगहर’ कहकर मगहर आ गए थे. काशी में लहरताला तालाब में सन् 1398 ई में जुलाहा दम्पत्ति नीरू-नीमा से कबीर साहब प्राप्त हुए थे और मगहर में जब माघ शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन आत्मदेह त्याग किए तो हिन्दू और मुस्लिम अनुयायी अपनी-अपनी विधि से जलाने व दफनाने के लिए शव प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगे. ऐसे में दोनों में कलह की स्थिति उत्पन्न हो गई. तभी आकाशवाणी हुई ‘खोलो पर्दा नहीं है मुर्दा क्यों करते हो व्यर्थ लड़ाई’. पर्दा हटने पर वहां कुछ फूल मिले. जिसे हिन्दुओं ने आधे फूल से समाधि बनाई और मुसलमानों ने आधे फूल को दफन करके मजार बनाया. दोनों स्मारक आज भी अगल-बगल मौजूद हैं.

 
 
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