महंगाई से अभी लंबी है लड़ाई
बीते महीने में कुछ ऐसा हुआ है जिसने तीन दशक पुराने दिनों की यादें ताजा कर दी हैं। आप दिमाग पर जोर डालना शुरू करें, उससे पहले ही बता देता हूं कि मैं बात कर रहा हूं महंगाई की। मार्च महीने में थोक महंगाई दर चार महीने के अपने उच्चतम स्तर 14.55 फीसद पर पहुंच गई है। ब्लूमबर्ग के एक सर्वे के अनुसार यह दिसम्बर, 1991 के बाद की सबसे ऊंची महंगाई दर है।
महंगाई से अभी लंबी है लड़ाई |
तीन दशक पहले भारत की थोक मुद्रास्फीति 13.7 फीसद के स्तर पर पहुंच गई थी और देश एक बड़े आर्थिक संकट में फंस गया था। इस बार हालात बेशक, उतने खराब न हों, लेकिन महंगाई की मार में वही पुरानी धार दिख रही है। मुख्य रूप से यह बढ़ोतरी कच्चे तेल और खाद्य पदाथरे की कीमतों में तेजी के कारण हुई है। अप्रैल, 2021 से पिछले लगातार 12 महीनों से थोक महंगाई दर दोहरे अंकों में बनी हुई है। खुदरा महंगाई का भी यही हाल है। खाद्य कीमतों में बढ़ोतरी के कारण मार्च में यह बढ़कर 6.95 प्रतिशत हो गई, जो 17 महीने का उच्चतम स्तर है।
पहले कोरोना, फिर रूस-यूक्रेन का युद्ध और साथ-ही-साथ कच्चे तेल के बढ़ते दामों ने महंगाई की लपटों को भड़का दिया है। कच्चा तेल महंगा होने से परिवहन महंगा हुआ है। बीच के चुनावी मौसम को छोड़ दें, तो पिछले करीब एक साल में यह करीब-करीब 10 फीसद तक महंगा हुआ है। महंगे परिवहन की लागत जुड़ने से खाद्य वस्तुएं भी महंगी होती गई हैं। अनाज, खाद्य-तेल, फल-सब्जी सभी का परिवहन होता है। ऐसे में महंगे तेल की बढ़ती लागत इन रोजमर्रा की जरूरी चीजों को महंगी कर रही है। सात फीसद की दहलीज तक पहुंच चुकी खुदरा महंगाई दर कई वजहों से चिंताजनक है। इसकी सबसे बड़ी मार मध्यम वर्ग पर पड़ रही है। ये वो वर्ग है जो अभी हाल ही में कोरोना के इलाज में हुए स्वास्थ्य खर्च से ठीक से उबरा भी नहीं है। ऐसे में महंगी हो रही वस्तुओं ने उनकी खरीदने की क्षमता को बुरी तरह से प्रभावित किया है। लॉकडाउन में घटी आय और महंगाई की दोहरी मार अब उनकी बचत को निशाना बना रही है। इसका असर यह हुआ है कि लोग अब जरूरी चीजों की खपत में या तो कटौती कर रहे हैं, या क्वालिटी से समझौता। लोकल सर्किल के राष्ट्रीय सर्वे में कुछ इसी तरह के संकेत मिले हैं।
उपभोक्ता की जेब पर डाका
ऊंची थोक महंगाई दर भी घूम-फिरकर उपभोक्ता की ही जेब पर डाका डालती है क्योंकि उत्पादक तो बढ़ी हुई लागत ग्राहकों से वसूल लेते हैं। इसके बावजूद लगातार महंगे हो रहे निवेश और उधार की लागत से उत्पादक भी दोहरी मार के घेरे में हैं। जाहिर तौर पर उत्पादक इसका बड़ा अंश उपभोक्ता की ओर स्थानांतरित करेंगे। सीधे तौर पर यह चक्र केवल महंगाई को ही ऊपर नहीं ले जाएगा, बल्कि इससे विकास की संभावनाओं को भी झटका लगेगा। इसके शुरु आती संकेत इसी बात से मिलने लगे हैं कि भारतीय रिजर्व बैंक ने भी अब अपना ध्यान विकास को प्रोत्साहित करने से हटाकर बढ़ती मुद्रास्फीति के प्रभाव को कम करने पर केंद्रित कर दिया है। महंगाई का दबाव इतना बढ़ गया है कि रिजर्व बैंक को अपने सभी अनुमानों में बदलाव करना पड़ रहा है। इसका एक उदाहरण चालू वित्त वर्ष 2022-23 के लिए जीडीपी की विकास दर है, जिसे रिजर्व बैंक ने 7.8 फीसद से घटाकर 7.2 फीसद कर दिया है। गवर्नर शक्तिकांत दास भी मान रहे हैं कि मौजूदा वक्त में महंगाई हमारी अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गई है।
हकीकत तो यह भी है कि रूस-यूक्रेन युद्ध का असर भारत ही नहीं, दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं पर दिख रहा है। समूची वैश्विक अर्थव्यवस्था बढ़ी हुई कीमतों से जूझ रही है, जिससे आर्थिक मंदी की आशंका बढ़ रही है। अमेरिका, यूरोप और जापान सभी जगह मुद्रास्फीति बढ़त की ओर है। अमेरिका में मार्च का उपभोक्ता मूल्य सूचकांक 8.5 फीसद तक उछला है, जो दिसम्बर, 1981 के बाद से साल-दर-साल की सबसे बड़ी वृद्धि है। ब्रिटेन में मार्च का उपभोक्ता मूल्य सूचकांक 7.0 प्रतिशत रहा है, जो 1992 के बाद का उच्चतम स्तर है। इसी तरह जापान भी रिकॉर्ड महंगाई के दौर से गुजर रहा है। बैंक ऑफ जापान के अनुसार मार्च का सूचकांक, दिसम्बर, 1982 के बाद के उच्चतम स्तर 112.0 पर रहा। जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, स्पेन, तुर्की सभी जगह महंगाई नये रिकॉर्ड बना रही है। इसके पीछे की वजह रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण सप्लाई चेन में रु कावट, मजबूत उपभोक्ता मांग और वैिक खाद्य एवं ऊर्जा बाजार में आया व्यवधान है। एक और वजह चीन का कोविड शटडाउन भी है, जिसे वो बढ़ते संक्रमण के खिलाफ अपनी जीरो टॉलरेंस नीति का हिस्सा बता रहा है। कुछ दिनों पहले तक चीन के मुख्य व्यावसायिक महानगर शंघाई तक सिमटा यह शटडाउन अब दूसरे शहरों और बंदरगाहों में भी व्यावसायिक गतिविधियों को बंद कर रहा है। यह बात हास्यास्पद लगती है कि इतनी भारी-भरकम कवायद एक ऐसे वायरस को कैद करने के लिए हो रही होगी जिसकी मौत बांटने की दर महज 0.5 फीसद है। जाहिर तौर पर इसका निशाना वो बहुराष्ट्रीय अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियां हैं, जिन पर चीन से कारोबार खत्म करने का दबाव डाला जा रहा है। बदले में कोविड शटडाउन के जरिए अमेरिका और यूरोप की ओर जाने वाली सप्लाई चेन को प्रभावित कर चीन यह साबित करने में जुटा है कि वो अब वैिक कारोबार के लिए अपरिहार्य बन चुका है, और उसकी अनदेखी संभव नहीं है।
देशों की परस्पर निर्भरता
तमाम देशों की ‘नेशन फस्र्ट’ विचारधारा के बावजूद दुनिया अपने अस्तित्व के लिए एक-दूसरे पर आज पहले की तुलना में ज्यादा निर्भर दिखती है। डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल में शुरू हुआ चीन-अमेरिकी ट्रेड वॉर इसकी प्रत्यक्ष मिसाल है। कोविड शटडाउन एक तरह से उसी कारोबारी युद्ध का नया अंग है, जो अब अमेरिका और यूरोप से बाहर भी अपने प्रभाव का विस्तार कर रहा है। ऐसे में अलग-अलग देशों में वहां की शासन व्यवस्थाओं की ओर से किए जा रहे प्रयासों के व्यापक असर नहीं दिखाई पड़ रहे हैं।
इस सबके बीच एक विषय जो हैरानी की वजह बन रहा है, वो यह है कि अगर महंगाई दुनिया भर में डायन बनी हुई है, तो यह भारत में मुद्दा क्यों नहीं बन पा रही है? हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों पर इसका कोई प्रत्यक्ष असर नहीं दिखाई दिया। एक कमजोर विपक्ष के अलावा इसकी बड़ी वजह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ जुड़ी देश के विास की पूंजी भी है। अंग्रेजी में इसे ही ट्रस्ट कैपिटल कहा जाता है। प्रधानमंत्री मोदी के मामले में यह पूंजी जाति-धर्म-क्षेत्रीयता की सीमाओं से परे होकर निम्न और उच्च वर्ग के बीच समान रूप से साझा हो रही है। साल 2014 में उनके सत्ता में आने के बाद से महंगाई लगभग नियंतण्रमें रही है, जबकि यह पिछली सरकार के जाने की कई बड़ी वजहों में से एक वजह बनी थी। मई, 2014 और मार्च, 2020 के बीच खुदरा मुद्रास्फीति ने केवल आठ बार 6 प्रतिशत का आंकड़ा पार किया। इस अवधि में रिजर्व बैंक ने भी रेपो रेट को स्थिर रखते हुए इस मान्यता को बल दिया कि सरकार मध्यम वर्ग की समर्थक है। कोविड महामारी और लॉकडाउन के दौर में तमाम आर्थिक पैकेज और जनकल्याणकारी योजनाओं से सरकार ने इस मान्यता को और मजबूत किया है। इस समय जब देश में महंगाई बढ़ रही है, तो भी सरकार जनमानस को यह बात समझाने में कामयाब रही है कि इसके पीछे उसकी नीतियां नहीं, बल्कि वैिक वजहें जिम्मेदार हैं।
लोगों की नाराजगी से राहत
इससे निबटने के लिए उठाए कदमों ने भी आम जनता के साथ-साथ सरकार को काफी हद तक लोगों की नाराजगी से राहत देने का काम किया है। देश के गरीबों के लिए चलाई जा रही प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को हाल ही में छह महीने का विस्तार दिया गया है ताकि इसके करीब 80 करोड़ लाभार्थियों को हर महीने मुफ्त राशन मिलता रहे। इन लाभार्थियों में एक बड़ा तबका उस आबादी का भी है, जिसने लॉकडाउन में या तो अपना रोजगार गंवाया है, या जो दिहाड़ी कमाने पर मजबूर हैं। दूसरी तरफ नियमित रोजगार से जुड़े केंद्रीय कर्मचारियों के लिए महंगाई भत्ते में वृद्धि की गई है। इसी तरह कई राज्य सरकारों ने भी अपने कर्मचारियों का महंगाई भत्ता बढ़ाया है। लेकिन यह भी नहीं भूला जा सकता कि देश में जितने सरकारी कर्मचारी हैं, उससे कहीं ज्यादा संख्या निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की है, जिन्हें यह राहत नसीब नहीं हुई है। सप्लाई चेन के मोर्चे पर हालात और खासकर कीमतों पर काबू रखने के लिए केंद्र ने दाल और खाद्य तेल का आयात बढ़ाने की अनुमति दी है। जिन चीजों की कमी है उन पर शुल्क पूरी तरह हटा दिया गया है।
ब्याज दरों को लेकर चर्चा
महंगाई को देखते हुए इस बात की चर्चाएं भी जोर पकड़ने लगी हैं कि रिजर्व बैंक जून में होने वाली अपनी बैठक में ब्याज दरों को 50 बेसिस प्वाइंट तक बढ़ा सकता है। इससे अर्थव्यवस्था की साधारण समझ रखने वाले को भी एक बात समझ लेना चाहिए कि खुद सरकार का आकलन है कि अभी कम-से-कम जून तक तो महंगाई की आंच से राहत नहीं मिलने वाली यानी भारतीय परिवारों को अभी आगे भी परिवहन और पेट्रोल-डीजल पर ज्यादा खर्च करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। अब यह दो तरीके से हो सकता है या तो परिवार अपना खर्चा बढ़ाएं या दूसरी जरूरी चीजों में कटौती करें। एचडीएफसी बैंक की रिपोर्ट बताती है कि साल 2023 में पेट्रोल-डीजल और परिवहन पर एक औसत भारतीय परिवार का खर्च 2.5 फीसद तक बढ़ सकता है। परिवहन पर लागत बढ़ने से वस्तुएं महंगी होंगी जिससे मांग भी प्रभावित हो सकती है। रिजर्व बैंक अगर जून में रेपो रेट बढ़ाता है तो होम लोन भी महंगे होंगे। ऐसे में मानसूनी बारिश पर बहुत कुछ निर्भर करेगा जिसके बारे में स्काईमेट का पूर्वानुमान लंबी अवधि के औसत का 98 फीसदी रहने का है। अच्छा मानसून केवल गर्मी को ही नहीं, महंगाई को भी काबू में रखता है। फसल अच्छी हुई तो अनाज और दलहन के मोर्चे पर तो राहत मिल ही सकती है।
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