महामारी का बाल मानस पर प्रभाव-छोटे बच्चे, बड़े सवाल

Last Updated 13 Nov 2021 01:28:26 AM IST

कोरोना दुनिया के कई देशों में नये सिरे से दस्तक दे रहा है, तो कई देश उससे उबर कर दोबारा पटरी पर लौट रहे हैं। भारत ऐसे ही देशों में है जहां कोरोना फिलहाल काबू में है और इसका बड़ा श्रेय देश में सफलतापूर्वक चल रहे टीकाकरण अभियान को जाता है। जिस कोरोना ने पूरी दुनिया को उलट-पुलट कर रख दिया, उसका ‘तोड़’ भी पिछली महामारियों के दौरान अपनाए गए ‘प्रोटोकॉल’ से अलग रहा है।


महामारी का बाल मानस पर प्रभाव-छोटे बच्चे, बड़े सवाल

आम तौर पर टीकाकरण की प्रक्रिया केवल बच्चों तक सीमित रहती आई है और वयस्कों के लिए इसकी उपयोगिता की चर्चा कम ही सुनने में आई है। लेकिन कोरोना में टीकाकरण की शुरु आत बड़े-बुजुगरे से होते हुए युवा-वयस्कों तक आई और किशोर-छोटे बच्चे अभी भी इसके दायरे से बाहर हैं जबकि कोरोना की संभावित तीसरी लहर से इसी वर्ग को सबसे ज्यादा खतरे में बताया जा रहा है। बहरहाल, इस सबके बीच कई राज्यों में करीब डेढ़ साल से बंद रहे स्कूल फिर खुल चुके हैं, जहां बच्चों की दोबारा आमद कोरोना-काल में उम्मीद की सबसे खुशनुमा तस्वीर बनकर सामने आई है।

लेकिन अब जब ये बच्चे स्कूल पहुंच रहे हैं, तो इस बात का खुलासा भी हो रहा है कि महामारी ने उनके मानस को कितनी गहराई तक प्रभावित किया है। दरअसल, शुरुआत से ही मनोवैज्ञानिक बच्चों के सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य पर महामारी के असर को लेकर सतर्कता बरतने की सलाह दे रहे थे। राष्ट्रीय आपराधिक रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी की हाल ही में आई रिपोर्ट ने इस तथ्य को पुष्ट किया है कि महामारी ने असल में हमारे बच्चों को मनोवैज्ञानिक आघात पहुंचाया है। लंबे समय तक स्कूल से दूरी, दोस्तों-शिक्षकों से संवाद की कमी और सीमित सामाजिक संपर्क के बीच बच्चे जबर्दस्त भावनात्मक तनाव के दौर में रहे हैं। घरों में कैद रहकर उन्होंने उस घरेलू हिंसा को ‘साक्षात’ देखा है, जो अमूमन उनके पीछे हुआ करती थी। कई बच्चों ने अपने प्रियजन को इस महामारी की भेंट चढ़ते देखा है। कई बच्चे नौकरी और आजीविका गंवा चुके अपने असहाय अभिभावकों की हताशा और नैराश्य और उससे उपजे वित्तीय संकट की मार झेलने के लिए मजबूर हुए हैं। बड़ी संख्या ऐसे बच्चों की भी है जो अपनी पढ़ाई से जुड़े पाठ्यक्रम, परीक्षा और उनके परिणाम जैसे विषयों से जुड़ी अनिश्चितता को लेकर भारी दबाव में हैं।

तालाबंदी की प्रतिकूलता
और यह संख्या बहुत बड़ी है। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन का अनुमान है कि स्कूलों की तालाबंदी से प्रतिकूल तौर पर प्रभावित बच्चों का आंकड़ा 25 करोड़ तक हो सकता है। बड़ी संख्या में कम संसाधन-संपन्न बच्चे स्कूलों से बाहर हो गए, कइयों को घर चलाने के लिए पढ़ाई छोड़कर कमाई की राह भी पकड़नी पड़ी। इन सबके बीच बच्चों के लिए काम कर रही कई संस्थाओं ने एक और चिंताजनक पहलू से पर्दा उठाया है, और वो है कोविड के कारण लड़कियों का स्कूल से ड्रॉप आउट। स्कूल खुलने के बाद कई लड़कियां अपनी कक्षाओं में वापस नहीं लौटी हैं। वित्तीय संकट से जूझ रहे जो अभिभावक केवल एक ही बच्चे की पढ़ाई का खर्च उठा सकते हैं, वो लड़कियों के बजाय लड़कों को पढ़ाने को वरीयता दे रहे हैं।
कोविड-19 महामारी ने जिस ऑनलाइन शिक्षा को चर्चा का विषय बनाया, उसने समस्या को काफी हद तक सुलझाया तो जरूर लेकिन इसने शिक्षा में समाजिक विषमता की पहले से मौजूद चुनौती को और बड़ा कर दिया। शहरी क्षेत्रों में आर्थिक वजहों से और ग्रामीण भारत में संसाधनों की कमी के कारण बड़ी संख्या में औपचारिक शिक्षा ले रहे बच्चे ऑनलाइन व्यवस्था से बाहर हैं। सरकारी आंकड़े खुद जमीनी हकीकत बयां करते हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय के एक सर्वे में पाया गया कि भारत में 36 प्रतिशत से अधिक स्कूल बिना बिजली के संचालित होते हैं। नीति आयोग की साल 2018 की एक रिपोर्ट से पता चला है कि भारत के 55,000 गांवों में मोबाइल नेटवर्क कवरेज नहीं है। साल 2019 का एक और सरकारी सर्वेक्षण बताता है कि देश में केवल 24 फीसद घरों में इंटरनेट की सुविधा है। ग्रामीण भारत में तो यह पहुंच केवल चार फीसद घरों तक है। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं कि स्कूल बंद होने का सबसे ज्यादा असर ग्रामीण भारत या सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों पर हुआ जिनके पास न तो ऑनलाइन कक्षाओं के लिए जरूरी संसाधन थे, न सुविधाओं तक उनकी पहुंच थी। स्कूल खुलने से इन्हें बेशक इस ‘झंझट’ से मुक्ति मिल गई है, लेकिन नई चुनौती यह खड़ी हो गई है कि नौकरी गंवा चुके माता-पिता अब स्कूल जाने पर उनके स्टेशनरी और यूनिफॉर्म का इंतजाम कैसे करेंगे? ऑनलाइन पढ़ाई के दौर में लाखों बच्चे इंटरनेट और सोशल मीडिया के लगातार संपर्क में रहे और इनमें से कई हजार ऑनलाइन दुर्व्यवहार और साइबर अपराधों का शिकार तक बने।

एनसीआरबी की जिस रिपोर्ट का मैंने शुरू में हवाला दिया है, उसके अनुसार पिछले साल देश में कुल 1,28,531 बाल अपराध दर्ज हुए। इससे जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए बच्चों के लिए काम कर रही नामी संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राइ) ने यह निष्कर्ष निकाला है कि महामारी के दौरान हर दिन बच्चों से जुड़े अपराधों के औसतन 350 मामले दर्ज हुए यानी एक घंटे में 15 मामले और हर चौथे मिनट में एक मामला। हालांकि इसमें साल 2019 के मुकाबले 13.3 फीसद की गिरावट है, लेकिन उल्लेखनीय रूप से बाल-विवाह में 50 फीसद और ऑनलाइन दुर्व्यवहार में 400 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। चिंता के दो विषय और हैं। बाल श्रम और बच्चों के अवैध व्यापार में बढ़ोतरी जो इस बात का इशारा हो सकता है कि या तो महामारी के दौर में रोजी-रोटी का आसरा छिन जाने से पैदा हुई आर्थिक मजबूरी ने बच्चों को मजदूरी की ओर ढकेला हो या फिर सिर से एक या दोनों अभिभावकों का साया उठ जाने के बाद बच्चे ऐसे अपराधों के आसान शिकार बन गए हों।
 

विश्व में पंद्रह लाख बच्चों के अनाथ होने का अनुमान
कई ग्लोबल एजेंसियों का अनुमान है कि वैश्विक महामारी अब तक लगभग 15 लाख बच्चों से उनके अभिभावक छीन चुकी है। इन रिपोर्ट्स का दावा है कि इनमें भारत के भी एक लाख 20 हजार बच्चे शामिल हैं। हालांकि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के सामने जो हलफनामा दिया है, उसमें कोविड-19 के कारण 3,621 बच्चों के अनाथ होने और 1 अप्रैल, 2020 से 5 जून के बीच महामारी के कारण कम से कम 26,176 बच्चों के माता या पिता में से किसी एक के खोने का उल्लेख है। राहत की बात यह है कि भारत सरकार ने ऐसे बच्चों की फिक्र की है और पीएम केयर्स फंड के जरिए वयस्क होने तक इनकी शिक्षा और स्वास्थ्य का पूरा जिम्मा उठाया है। बेशक, इससे माता-पिता को गंवाने से हुए नुकसान की भरपाई तो नहीं हो सकती, लेकिन इससे इन बच्चों को कम-से-कम अपना भविष्य सुरक्षित करने का भरोसा और अवसर, दोनों जरूर मिलेंगे।

बहरहाल, आज जब देश एक बार फिर बाल दिवस की दहलीज पर खड़ा है, तो यह सवाल सामयिक और यह चिंता वाजिब हो जाती है कि हमारे बच्चे भावनात्मक स्तर पर इस चुनौती से कितना निकल पाए हैं? यह सवाल इसलिए भी जरूरी हो जाता है क्योंकि हमारी 40 फीसद आबादी 18 वर्ष या उससे कम उम्र की है। केवल संख्यात्मक पैमाने पर ही नहीं, इस सवाल का सरोकार इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि महामारी का प्रभाव केवल मानसिक स्वास्थ्य तक ही सीमित नहीं है, हमारे बच्चों के जीवन, उनकी सुरक्षा, गरीबी जैसे कई आयाम भी इससे जुड़े हुए हैं। इस सबके बीच इस विचार का सदैव स्मरण रखना होगा कि बच्चे देश का भविष्य हैं, और उनका भविष्य सुरक्षित रखना देश की जिम्मेदारी है।

उपेन्द्र राय


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