सबके प्रयास से जीत का विश्वास

Last Updated 22 Aug 2021 12:12:36 AM IST

21वीं सदी के तीसरे दशक में प्रवेश कर चुकी दुनिया का एक मुल्क आज जहन्नुम बन चुका है। एक ऐसा मुल्क जहां की हर नई सुबह अफगानियों के लिए खौफ और मातम का नया अध्याय लेकर आती है।


सबके प्रयास से जीत का विश्वास

एक ऐसा देश जहां मानवता तिल-तिल कर मर रही है, जिंदगी मौत से भी बदतर हो चुकी है और जहां इंसान और इंसानियत का जिक्र भी बेमानी हो गया है। काबुल से लेकर कंधार तक तालिबान जिस तरह खूनी खेल खेल रहा है उससे पूरी दुनिया सहमी हुई है।

तालिबान ने जितनी आसानी और तेजी से अफगानिस्तान पर कब्जा जमाया है, उसने दुनिया को अचंभित कर दिया है। धीमी शुरु आत के बाद राजधानी काबुल का तख्तापलट करने में तालिबान को दो हफ्ते से भी कम समय लगा, लेकिन अगर कोई ये सोच रहा है कि सारा खेल रातों रात पलटा है, तो यह भी सच नहीं है। अफगानिस्तान पर करीबी नजर रखने वाले विश्लेषक, इतिहासकार और कई खोजी पत्रकार लंबे समय से बार-बार वहां किसी अनहोनी की चेतावनी दे रहे थे। कम-से-कम तीन साल पहले से अमेरिका के ही कई नामचीन अखबारों में आज के अफगानिस्तान की झलक पेश करने वाले लेख छप रहे थे।

यह भी हकीकत है कि पिछले 20 साल में अमेरिकी साया में रहने के बावजूद किसी भी अफगानी सरकार के दौर में पूरा देश उसके कब्जे में कभी नहीं रहा। हर सरकार में कुछ-न-कुछ इलाकों में तालिबान की हुकूमत कायम रही। ये संघर्ष पिछले 20 साल से जारी था। जाहिर तौर पर जमीनी हालात से न तो अमेरिका अनजान था, न संयुक्त राष्ट्र और न ही नियमित तौर पर दुनिया की खोज-खबर रखने वाले जिज्ञासु लोग। इसीलिए अब जबकि अमेरिकी सेना वापस अपने वतन लौट रही है, तो उसके फैसले पर सवाल भी उठ रहे हैं। अमेरिका ने कैसे तय कर लिया कि अफगानिस्तान अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है, जबकि तालिबान ने उसके 20 साल के दावों को 20 दिन में ही तबाह कर दिया? या फिर अगर वाकई 9/11 का बदला और ओसामा बिन लादेन का सफाया ही उसका लक्ष्य था, तो 2 मई, 2011 को लादेन के मारे जाने के बाद अमेरिकी फौज अफगानिस्तान में क्या कर रही थी?

आखिर दो दशक का लंबा समय, 850 बिलियन डॉलर यानी करीब-करीब 64 लाख करोड़ रुपये का भारी-भरकम खर्च जो कई देशों की जीडीपी से भी ज्यादा है, करीब ढाई हजार अमेरिकी सैनिकों की जान और 20 हजार से ज्यादा सैनिकों को जीवन भर की अपंगता देने के बाद अमेरिका को इस फैसले से हासिल क्या हुआ? उल्टे अमेरिकी प्रशासन को करीब पौने चार करोड़ अफगानियों को नर्क में झोंककर खुद मैदान छोड़ने की तोहमत झेलनी पड़ रही है। हो सकता है कि इन सवालों के जवाब अमेरिका कभी न दे। बाकी दुनिया को भी इन सवालों से ज्यादा चिंता उस बड़े खतरे की होनी चाहिए, जिसकी आहट साफ सुनाई दे रही है। अफगानिस्तान की गद्दी हथियाने के लिए तालिबान को जिस तरह कई इस्लामी आतंकी संगठनों से मदद मिली है, वो आने वाले दिनों में वैश्विक सुरक्षा के लिए गंभीर खतरे की वजह बन सकती है। ब्रिटेन के डिफेंस सेक्रेटरी बेन वालेस ने आशंका जताई है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी और नाटो फौज की अचानक वापसी से जहां अल कायदा और आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठनों को फलने-फूलने के लिए एक सुरक्षित आरामगाह मिल सकती है, वहीं छोटे-छोटे आतंकी गुट अमेरिका, यूरोप और दक्षिण अफ्रीका में अपनी गतिविधि तेज कर सकते हैं। वालेस जिस अंदेशे को भांप रहे हैं, अफगानी फौज के जनरल सामी सादात ने उससे भी भयावह सूरतेहाल की चेतावनी दे डाली है। सादात का मानना है कि दुनिया भर के आतंकी संगठनों को ये उम्मीद इस दुस्साहस के लिए उकसा सकती है कि अगर तालिबान एक पूरे देश पर कब्जा जमा सकता है, तो वो भी ऐसा क्यों नहीं कर सकते? इस दावे को झुठलाया नहीं जा सकता।

तालिबान की कामयाबी अल कायदा के साथ-साथ लगभग खत्म हो चुके आईएसआईएस में नई फूंक सकती है। बोको हराम, हक्कानी गुट, अल सहाब के साथ पाकिस्तान में सक्रिय तहरीक-ए-तालिबान, लश्कर और जैश जैसे संगठन दुनिया में आतंक का तांडव मचाने के लिए हाथ भी मिला सकते हैं। भारत उन देशों में शामिल है, जो सीधे-सीधे इस संभावना के दायरे में आता है। तालिबान के साथ हमारे रिश्ते उतने सहज नहीं हैं, जितने चीन, पाकिस्तान या रूस-ईरान जैसे देशों के दिखते हैं। पिछले 20 वर्षो में भारत की सदैव कोशिश रही कि अफगानिस्तान एक समृद्ध और लोकतांत्रिक देश बने, लेकिन दूसरे देशों के लक्ष्य भिन्न रहे। चीन के लिए अफगानिस्तान में स्थिरता के मायने शिनजियांग प्रांत और उसके बेल्ट एंड रोड परियोजना की सुरक्षा से जुड़ते रहे हैं, तो रूस उसे मध्य एशिया में खुद और अपने सहयोगी देशों के कवच के तौर पर देखता है। ईरान की दिलचस्पी अपने यहां पैदा होने वाले शरणार्थी संकट को किसी तरह टालने की रही है।

यही हाल निवेश को लेकर है। भारत ने अफगानिस्तान में तीन बिलियन डॉलर का जो निवेश किया है, वो कर्ज वापसी के तौर पर नहीं, बल्कि चार दशक से वैश्विक महाशक्तियों के शक्ति प्रदर्शन और लूट-खसोट के शिकार एक देश के पुनर्निर्माण के लिए की गई मदद है। अफगानिस्तान के लोगों के जीवन में खुशहाली लाने के उद्देश्य से की गई है, लेकिन तालिबान की सत्ता में वापसी से काफी कुछ बदल सकता है। भारत ने अफगानिस्तान में अस्पताल, स्कूल, पुल जैसी करीब 500 छोटी-बड़ी परियोजनाओं में निवेश किया है। अफगानिस्तान के संसद भवन, सलमा डैम, जारांज-देलाराम जैसी परियोजनाएं काफी बड़ी हैं और इन पर खर्च भी काफी आया है। हालांकि तख्तापलट के बाद भी भारत की ये मदद अफगानिस्तान के लोगों के काम आती रह सकती है, लेकिन तालिबान का क्या भरोसा?

यह भी देखना होगा कि नई सरकार बनने के बाद वहां चीन और पाकिस्तान का कितना दखल रहता है। दोनों देश की दिलचस्पी अफगानिस्तान की परियोजनाओं से ज्यादा ईरान के चाबहार बंदरगाह को लेकर दिख सकती है। ये बंदरगाह भारत के लिए ईरान के रास्ते अफगानिस्तान और मध्य-एशियाई देशों से व्यापार की राह खोलने का काम करता, लेकिन अब ये योजना भी खटाई में पड़ सकती है। भारत के व्यापारिक हितों को चोट पहुंचाने के लिए चीन और पाकिस्तान तालिबान को कराची या ग्वादर बंदरगाह के जरिए व्यापार करने के लिए राजी कर सकते हैं। ऐसा होता है तो चाबहार में हमारे भारी-भरकम निवेश पर भले पूरी तरह से पानी न फिरे, लेकिन उसकी उपयोगिता बेहद कम रह जाएगी। आतंक के मूल सवाल पर लौटें तो पीओके भारत के लिए और चुनौतीपूर्ण बन जाएगा। जैश का सरगना मसूद अजहर तालिबान का पुराना साथी है। लश्कर, आईएस, अल कायदा सभी तालिबान के तख्तापलट में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से शामिल हैं। ये सभी जितने भारत के कट्टर दुश्मन हैं, पाकिस्तान इनका उतना ही कट्टर हिमायती है। मौजूदा वक्त में पाकिस्तान और चीन सबसे ज्यादा फायदे में दिख रहे हैं। चीन अफगानिस्तान को निवेश की नई जमीन के तौर पर देख रहा है, तो पाकिस्तान को अफगानिस्तान से भारत पर आतंक की धार तेज करने की नई ऊर्जा मिल रही है, लेकिन ये दोनों देश भी तालिबान की ‘सनक’ से सुरक्षित नहीं हैं। तालिबान किसी भी वक्त उइगर मुसलमानों को भड़काकर चीन को मुश्किल में डाल सकता है। इसी तरह अफगानी तालिबानों के प्रोत्साहन से पाकिस्तान में फल-फूल रहा तहरीक-ए-तालिबान इमरान खान की सरकार का सिरदर्द बढ़ा सकता है।

बहरहाल, बैकडोर डिप्लोमेसी के बीच भारत फिलहाल वेट एंड वॉच की स्थिति में है, लेकिन तालिबान के आतंक से आशंकित दुनिया को भारत से भरोसे का एक बड़ा पैगाम जरूर मिला है। सोमनाथ मंदिर की चार परियोजनाओं के लोकार्पण कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भोलेनाथ के भक्तों को सौगात देने के साथ ही इशारों-इशारों में दुनिया को तालिबान का अंजाम भी बताया है। तोड़ने वाली शक्तियां और आतंक के बलबूते साम्राज्य खड़ा करने वाली सोच किसी कालखंड में कुछ समय के लिए भले हावी हो जाएं, लेकिन उनका अस्तित्व कभी स्थायी नहीं होता। संकट की घड़ी में भी मानवता की जीत के प्रति प्रधानमंत्री का विश्वास अटल है। सबके प्रयास से जीत का ये विश्वास दुनिया के लिए किसी बड़े आासन से कम नहीं है।

उपेन्द्र राय


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