मिल गई चीन के विस्तारवाद की ’वैक्सीन‘!

Last Updated 14 Mar 2021 12:04:40 AM IST

वैश्विक स्तर पर भारत के कद में लगातार इजाफा होता जा रहा है और बीते शुक्रवार इस अध्याय में एक और नया पन्ना जुड़ गया।


मिल गई चीन के विस्तारवाद की ’वैक्सीन‘!

चतुर्भुज सुरक्षा संवाद यानी क्वाड के मंच से अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने कोरोना महामारी के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में भारत की ‘विश्वगुरु ’ वाली छवि पर, परोक्ष रूप में ही सही, अपनी मुहर लगा दी। बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वैक्सीन राजनय के तहत 70 देशों को कोरोना से बचाने के लिए टीका देने की भारत की पहल की सराहना हुई और तय हुआ कि अब अमेरिकी वैक्सीन भी भारत में ही बनेगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संक्षिप्त संबोधन भी भारत से उम्मीद लगा रही दुनिया की भावना के अनुरूप ही रहा, जिसमें उन्होंने क्वाड को ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का विचार और पूरी दुनिया को एक परिवार बताया।

ऊपरी तौर पर यह पूरा घटनाक्रम जितना सीधा और सरल दिखता है, इसके निहितार्थ उतने ही गहरे हैं। कहा जा सकता है कि भारत वैसे भी दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन उत्पादक देश है और किसी भी दूसरे देश के लिए भारत की उत्पादन क्षमता का मुकाबला करना मुश्किल है। इस नाते भारत को मिली यह नई जिम्मेदारी न तो कोई संयोग दिखती है, न प्रयोग। बात सच है, लेकिन अधूरी है और इस नाते पूरा सच भी नहीं है। दरअसल, इस कदम से क्वाड देशों ने एक बड़ी साझा चिंता को साधने का प्रयास भी किया है। भारत को वैक्सीन उत्पादन और सप्लाई का वैश्विक ठिकाना बनाना एक तरह से चीन पर लगाम लगाना है। कोरोना फैलाने के आरोप से चीन अब तक बरी नहीं हो पाया है। इससे उसकी पहले से ही खराब छवि और बिगड़ी है, जिसकी भरपाई के लिए उसने अपनी वैक्सीन बांटने की मुहिम छेड़ रखी है। क्वाड का यह फैसला चीन के मंसूबों की काट बन सकता है। बैठक से पहले अमेरिका के नए विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने इस ओर इशारा भी किया था।

ऐसा लगता है कि चीन ने भी इस इशारे को पहले ही ताड़ लिया था। तभी वो इस बैठक के शुरू होने से पहले शांति की बात करने लगा था और क्वाड देशों को नसीहत दे रहा था कि उन्हें किसी तीसरे देश को लक्ष्य बनाने की कोशिश से बचना चाहिए। इस फैसले का चीन को कितना नुकसान हो सकता है, उसके लिए यह जानना ही काफी होगा कि क्वाड देशों का चीन से सामूहिक व्यापार उसके कुल कारोबार का 27.4 फीसद बैठता है। इतना भी तय है कि जो लड़ाई वैक्सीन से शुरू हुई है, वो आने वाले दिनों में दूसरे क्षेत्रों में भी अपने पैर पसारेगी।

जल्द ही इसका असर चीनी विस्तारवाद के प्रतीक बन चुके दक्षिण चीन सागर में दिख सकता है, जो इस लड़ाई की असल जड़ है। बीते दो दशक से चीन के सिर पर यह जुनून सवार दिख रहा है कि अगर वह समुद्र पर कब्जा जमा लेगा, तो पूरी दुनिया उसके कब्जे में होगी। इस सोच को आगे बढ़ाते हुए चीन ने समुद्र में सैन्य ठिकाने बनाकर अपने कारोबार को विस्तार देने की मुहिम छेड़ रखी है। दक्षिण चीन सागर इस मुहिम का अहम केंद्र बन गया है, जहां खनिज और ऊर्जा संपदा के अथाह भंडार के बीच चीन ने नकली द्वीप तक बना डाले हैं। क्वाड को चीन इस मुहिम का रोड़ा मानता है क्योंकि उसे लगता है इस बहाने उसकी घेराबंदी की जा रही है।

वैसे भी हाल के दिनों में क्वाड में शामिल चारों देशों से चीन के रिश्ते बुरी तरह बिगड़े हैं। सभी चीन की बढ़ती दादागीरी और विस्तारवादी आदतों से परेशान हैं। जापान के साथ पूर्वी सागर के द्वीपों को लेकर पांच दशक पुराना विवाद दो द्वीपों पर चीन के कब्जे के बाद नए सिरे से भड़क गया है। जापान को चीन वैसे भी फूटी आंख नहीं सुहाता है। साल 2006 में भारत के दौरे पर आए तत्कालीन जापानी उपप्रधानमंत्री तारो असो ने औपचारिक रूप से बयान दिया था कि बीते 1,500 साल में ऐसा कोई वक्त नहीं रहा, जब दोनों देशों के संबंध सामान्य रहे हों। ऑस्ट्रेलिया के साथ चीन का विवाद ताजा जरूर है, जो दुनिया में कोरोना फैलाने की चीन की जिम्मेदारी की जांच को समर्थन देने के कारण पैदा हुआ है। वरना एक दौर आज से लगभग एक दशक पहले का भी था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड ने कहा था कि ऑस्ट्रेलिया कभी नहीं चाहेगा कि उसे चीन और अमेरिका में से किसी एक को चुनना पड़े।

एक दशक पहले कमोबेश इसी तरह के हालात अमेरिका के सामने भी थे। ऐसे अनुमान भी लग रहे थे कि ट्रंप सरकार बदलने के बाद शायद वो दौर वापस लौट आए, लेकिन जो बाइडेन की नई एशिया नीति के सार्वजनिक होने के बाद तमाम कयास धराशायी हो गए हैं। 24 पन्नों के दस्तावेज में बाइडेन प्रशासन ने ट्रंप सरकार से आगे जाते हुए चीन को दुनिया के लिए बड़ा खतरा बताया है। इस रिपोर्ट में चीन की बढ़ती ताकत और एशिया में संतुलन के लिए भारत को जरूरी बताया गया है। इसे ट्रंप प्रशासन की 10 पन्नों वाली चर्चित रिपोर्ट से जोड़कर देखा जाए तो इसमें कोई संशय नहीं रह जाता कि चीन की काट के लिए अमेरिका ही नहीं, क्वाड का काम भी भारत के बगैर नहीं चल सकता।

इसकी वजह भी है। पूरी दुनिया में चीन की महत्त्वाकांक्षाओं से सबसे जोरदार भिड़ंत भारत ही लेता है। सवाल सीमा का हो या कारोबार का, विस्तारवाद के मोर्चे पर भारत ही चीन को नये सबक सिखाता है। गलवान इसकी ताजी मिसाल है। लेकिन इसके साथ ही चीन को लेकर क्वाड में शामिल बाकी देशों की तुलना में भारत की दुविधा भी सबसे ज्यादा है। क्वाड के साथ भारत ब्रिक्स का भी अहम सदस्य है, जिसका एक सदस्य देश चीन है। 15 साल पहले जब इसका गठन हुआ था, तब भारत और चीन के रिश्ते अपेक्षाकृत बेहतर थे। समय के साथ यह रिश्ते भले खराब हो गए हों, लेकिन इसी दौरान ब्रिक्स का दर्जा बेहतर हुआ है। अनुमान है कि दुनिया की पांच सबसे तेज रफ्तार से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं के बूते यह संगठन साल 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपना दबदबा कायम कर लेगा। क्वाड और ब्रिक्स में चीन को लेकर भारत परस्पर विरोधी भूमिका में दिखता है और हालात ऐसे हैं कि दोनों के बीच संतुलन साधना भी आसान नहीं दिखता। यहां यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि चीन से हमारी सरहद 4,500 किलोमीटर लंबी है, जो क्वाड देशों में सबसे ज्यादा है यानी चीन को लेकर हमारा दांव सबसे बड़ा हो जाता है।

इसलिए वैश्विक राजनीति में बढ़ते दखल के साथ भारत की परीक्षा भी बड़ी है। क्वाड की किसी बैठक में पहली बार शामिल हुए चारों देशों के प्रमुखों के संबोधन में यह फर्क साफ तौर पर दिखाई भी दिया। चीन को लेकर खास तौर पर मुखर दिखे अमेरिका और जापान के बीच प्रधानमंत्री मोदी का अंदाज कहीं ज्यादा सधा हुआ दिखा। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का संदेश देकर प्रधानमंत्री ने जताया कि वैश्विक भलाई के साथ ही उन्हें देश के हितों की चिंता भी है। यह उचित भी है, और अपेक्षित भी।

उपेन्द्र राय


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