तेल की मार, रास्ता निकालो सरकार

Last Updated 21 Feb 2021 12:44:20 AM IST

पेट्रोल-डीजल को लेकर देश के लोगों का सबसे बुरा ख्वाब हकीकत बन गया है।


तेल की मार, रास्ता निकालो सरकार

कल तक तेल के दाम को लेकर जो बात मजाक-मजाक में कही जाती थी, वही अब सच बनकर लोगों का तेल निकाल रही है। अबकी बार पेट्रोल वाकई 100 के पार हो गया है और इसकी चौतरफा मार से सारा देश हलकान है। पेट्रोल-डीजल ही नहीं, रसोई गैस भी तीन महीने में 175 रुपये महंगी हो गई है। बेशक देश की नाराजगी अभी सड़कों पर नहीं उतरी है, लेकिन जिस तरह तेल के दाम लगातार बढ़ रहे हैं, उसी अनुपात में यह आशंका भी बढ़ती जा रही है।  

यह विषय इसलिए गंभीर है क्योंकि पेट्रोल-डीजल के दामों का बढ़ना अकेले एक कमोडिटी का महंगा हो जाना भर नहीं होता है, बल्कि इसका असर व्यापक होता है। महंगा तेल सीधे-सीधे माल ढुलाई को महंगा करता है, जो बदले में रोजमर्रा की जरूरी चीजों को महंगा कर देता है। इससे महंगाई में इजाफा होता है और आम आदमी सीधे प्रभावित होता है। देश में जब-जब तेल के दाम में आग लगती है, तो उसकी पड़ताल हमें हमेशा अंतरराष्ट्रीय बाजार तक ले जाती है। सरकार चाहे कोई भी हो, कच्चे तेल के बढ़ते दाम को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। साल 2010 के बाद से दूसरा ठीकरा तेल कंपनियों पर फोड़ा जाने लगा है।

दरअसल, जून 2010 में तत्कालीन सरकार ने तेल कंपनियों को ही पेट्रोल की कीमतें तय करने का अधिकार दे दिया था। फिर अक्टूबर 2014 में डीजल का नंबर आया और अप्रैल 2017 से तो पेट्रोल-डीजल के दाम रोज-रोज बदलने लगे। ताजा सूरतेहाल यह है कि एक बार फिर कच्चे तेल का कच्चा चिट्ठा खोला जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल इस साल 23 फीसद तक महंगा हो चुका है और इस समय 13 महीनों के सबसे ऊंचे स्तर पर है। तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक ने फरवरी और मार्च में उत्पादन में रोजाना 10 लाख बैरल तक की कटौती का फैसला किया है। तेल में तेजी इसी फैसले का नतीजा है। बेंचमार्क कच्चे तेल ब्रेंट क्रूड का भाव 65 डॉलर प्रति बैरल को पार कर गया है, लेकिन साल 2013 में जब क्रूड के इसी वैरिएंट का भाव 120 डॉलर प्रति बैरल था, तब पेट्रोल 76 रु पये प्रति लीटर पर था। इस हिसाब से तो क्रूड के भाव करीब-करीब आधे होने पर पेट्रोल का भाव भी उसी अनुपात में घट जाना चाहिए था। जिस भूटान को भारत से ही तेल जाता है, वहां इसकी कीमत हमारे यहां की तुलना में आधी ही है। भूटान ही क्यों, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और यहां तक कि चीन और पाकिस्तान में भी पेट्रोल हमारे यहां से कहीं सस्ता मिल रहा है।  

इसे एक और आसान तरीके से समझा जा सकता है। एक बैरल यानी 159 लीटर। 65 डॉलर प्रति बैरल का भारतीय मुद्रा में दाम हुआ करीब 4,750 रु पये प्रति बैरल यानी करीब-करीब 30 रु पये प्रति लीटर जो मिनरल वाटर की एक बोतल के आस-पास ही है। फिर हम इसके बदले सोने का दाम क्यों चुका रहे हैं? इसकी वजह है कच्चे तेल पर हमारे यहां लगने वाला भारी-भरकम टैक्स। अभी केंद्र और राज्य सरकारें एक लीटर पेट्रोल पर 168 फीसद टैक्स वसूल रही हैं। जितना पेट्रोल का बेस प्राइस नहीं है, उससे ज्यादा की इस पर एक्साइज ड्यूटी लग रही है। साल 2014 से पेट्रोल-डीजल पर लगने वाला टैक्स 217 फीसद तक बढ़ गया है। इसमें राज्य सरकारें भी पीछे नहीं हैं। सबसे ज्यादा वैट राजस्थान में लगता है और उसके बाद मध्य प्रदेश में। पेट्रोल के दाम में सेंचुरी भी इन्हीं दोनों राज्यों में लगी है। बेशक इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि टैक्स से मिली राशि से केंद्र और राज्य सरकारों का राजस्व बढ़ता है, जिसका उपयोग देश और प्रदेश में विकास के ही काम में होता है। कोरोना-काल से प्रभावित अर्थव्यवस्था के दौर में टैक्स के जरिए राजस्व बढ़ाने की सरकारों की मजबूरी को खारिज भी नहीं किया जा सकता। पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे से बाहर रखने की एक वजह राजस्व की यह जरूरत भी है। सरकार पर आर्थिक रूप से कमजोर और वंचित लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाओं और सब्सिडी की व्यवस्था करने का दबाव भी होता है, लेकिन इन तमाम जरूरतों के बीच उस आम आदमी की परेशानी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जो तेल के बढ़ते दाम की वजह से खुद को बेबस महसूस कर रहा है। तेल पर जीरो टैक्स की उम्मीद कोई नहीं कर रहा, लेकिन कोरोना काल में जिस तरह सरकार की आमदनी सीमित हुई है, उसी तरह आम आदमी की कमाई भी प्रभावित हुई है। ऐसे में तेल के दाम में थोड़ी कटौती भी आम आदमी के लिए बड़ी राहत साबित हो सकती है। कुछ राज्यों में तो इसकी शुरु आत भी हो गई है।

असम की सरकार ने कोरोना के दौरान लगे अतिरिक्त कर को वापस लिया है, जिससे पेट्रोल वहां पांच रुपये तक सस्ता हुआ है। मेघालय ने भी अपने प्रदेशवासियों को इसी तरह की राहत पहुंचाई है। कुछ दिन पहले राजस्थान ने भी दो फीसद वैट घटाया है। बाकी राज्यों के साथ केंद्र सरकार भी अगर इस दिशा में कुछ पहल करे, तो देशवासियों को पूरी तरह से न सही, कुछ राहत तो मिल ही जाएगी। हालांकि सरकार भी यह जानती है कि टैक्स में राहत इस समस्या का स्थायी इलाज नहीं है। इसलिए सरकार ने इसके विकल्पों पर काम करना शुरू भी कर दिया है। हाल ही में तमिलनाडु में एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने ऊर्जा आयात पर निर्भरता को कम करने की जरूरत बताई है। इसके लिए मौजूदा सरकार पेट्रोल में एथेनॉल मिलाने का कार्यक्रम चला रही है। फिलहाल पेट्रोल में 8.5 फीसद तक एथेनॉल मिलाया जाता है, जिसे 2025 तक 20 फीसद तक पहुंचाने का लक्ष्य है। तेल आयात को कम करने के साथ ही इससे किसानों की आय बढ़ाने में मदद मिलेगी। पिछले छह-सात साल में तेल और गैस के नये कुओं की खोज पर भी काफी काम हुआ है। तेल आयात को सीमित करने के साथ ही सरकार तेल की खपत को भी कम करने का प्रयास कर रही है। कई देशों ने सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा और पनिबजली से पैदा होने वाली ऊर्जा को तेल के विकल्प के रूप में कामयाबी से अपनाया है। हमारे यहां भी सरकार ने इलेक्ट्रिक व्हीकल को प्रोत्साहित करने की नीति बनाई है, लेकिन इसके नतीजे आने में अभी 10-15 साल और लगेंगे।

सरकार एलएनजी यानी लिक्विड नाइट्रोजन गैस के विकल्प पर भी गंभीरता से विचार कर रही है। एलएनजी डीजल के मुकाबले करीब 40 फीसद सस्ती होती है और सीएनजी से ज्यादा ज्वलनशील होने के कारण बस-ट्रक जैसी लंबी दूरी के वाहनों में ज्यादा बेहतर परिणाम देती है, लेकिन इन तमाम विकल्पों को जमीन पर उतरने में वक्त लगेगा, जबकि सरकार के सामने चुनौती फौरी राहत पहुंचाने की है। ऐसा नहीं है कि महंगा तेल आम आदमी पर ही भारी पड़ रहा है, सरकार भी इसकी कीमत चुकाने के खतरे से बाहर नहीं है। उसके सामने एक तरफ अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की चुनौती है, तो दूसरी तरफ सियासी जमीन पर पकड़ मजबूत रखने का चैलेंज भी है। पश्चिम बंगाल और असम में चुनाव सिर पर हैं और महंगा तेल दोनों राज्यों में उसके सियासी लक्ष्य को धुंधला कर सकता है। वैसे पिछले छह साल के कार्यकाल में सरकार ने मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियों का कुशलता से हल निकाला है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार उसी कुशलता से इस चुनौती का भी कोई-न-कोई हल जरूर निकाल लेगी।

उपेन्द्र राय


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