तंत्र से ही निकलेगा ’सफाई‘ का मंत्र

Last Updated 18 Jul 2020 01:05:09 AM IST

राजनीति के अपराधीकरण के लिहाज से विकास दुबे एनकाउंटर मामला इसीलिए अहम हो जाता है और महत्त्वपूर्ण हो जाती है वो बहस जो उसके एनकाउंटर को लेकर हो रही है। बेशक, इसके सही या गलत होने पर अलग-अलग राय रखी जा सकती है, लेकिन इस बात से कौन इनकार करेगा कि मौत से पहले अगर वो पूछताछ के दौर से गुजरता तो यकीनन कई ऐसे राज उगलता जो सियासी और पुलिस तंत्र से अपराधियों की सफाई में काम आते।


तंत्र से ही निकलेगा ’सफाई‘ का मंत्र

उत्तर प्रदेश के दुर्दांत अपराधी विकास दुबे के एनकाउंटर की गुत्थी अभी भी कई सवालों में उलझी हुई है। तमाम शक-शुबहों के बीच उसकी मौत ने राजनीति और अपराध के गठजोड़ से जुड़ी चुनौतियों को भी नये सिरे से जिंदा कर दिया है। गुनाह की दुनिया में ‘फलने-फूलने’ के समानांतर ही उत्तर प्रदेश की सियासत में पैठ जमाने के इस प्रकरण से साबित होता है कि कोई कितना भी दावा करे, अपराध और तंत्र के गठजोड़ में कोई बदलाव नहीं आया है, बल्कि पहले की तुलना में इसकी ‘जड़ें’ और गहरी हुई हैं। नब्बे के दशक की तरह बेशक, राज्यों की व्यवस्थाएं अपराधियों के संगठित गिरोहों के सामने लाचार ना दिखती हों, लेकिन यह हमारे तंत्र की सफलता नहीं है, बल्कि इसकी एक बड़ी वजह यह है कि ऐसे गिरोह अब व्यवस्था के समानांतर सरकार चलाने की जगह सरकारों का ही हिस्सा बन गए हैं।
 

साल 1993 में जब इस गठजोड़ का पता लगाने के लिए बनी वोहरा कमेटी की रिपोर्ट संसद में पेश की गई तो काफी हंगामा मचा। रिपोर्ट में इस बात का साफ इशारा था कि देश के कई प्रदेशों में सिस्टम की जड़ें खोद रहे स्थानीय माफिया को वहां के सियासी दल और सरकारी अफसर ही खाद-पानी मुहैया करवा रहे हैं। बहरहाल, रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी गई और गठजोड़ को उसी समय तोड़ने का मौका गंवा दिया गया। मौके गंवाने का यह सिलसिला आगे भी जारी रहा। सरकारी कमेटियां बार-बार खतरे की ओर इशारा करती रहीं और सरकारें आंखें फेरती रहीं। साल 2002 में एक बार फिर संविधान के कामकाज की समीक्षा करते हुए एनसीआरडब्ल्यूसी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि राजनीति में गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन हम फिर भी नहीं चेते।

चुनावी राजनीति के इस कुचक्र
नतीजा सामने है, सिस्टम में फैलते-फैलते अपराध का दीमक अब उस संसद तक पहुंच चुका है, जिस पर इस अपराध के खिलाफ कानून बनाने की जिम्मेदारी है। साल 2004 में लोक सभा में दागी सांसदों की संख्या 128 थी, जो 2019 आते-आते बढ़कर 233 हो गई है। इस लिहाज से नेशनल इलेक्शन वॉच और एडीआर की रिपोर्ट किसी अलर्ट से कम नहीं हैं। साल 2009 में 76 ऐसे सांसद जीत कर संसद पहुंचे थे, जिन पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे। साल 2019 में यह आंकड़ा 159 हो गया यानी एक दशक में ही हमारी संसद में गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसद 109 फीसद तक बढ़ गए। सोचिए, जिस संसद में हर दूसरा सांसद किसी-न-किसी अपराध से जुड़ा हो, जहां गंभीर अपराधों से जुड़े जनप्रतिनिधि दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहे हों, उसी संसद से सियासत और अपराध के गठजोड़ को तोड़ने वाले कानून की उम्मीद करना कितना तर्कसंगत होगा?
 

तो क्या चुनावी राजनीति के इस कुचक्र का कोई तोड़ नहीं है? है, लेकिन जिस न्यायिक व्यवस्था में इसका निदान मिल सकता है, उसमें फैसलों तक पहुंचने में अंतर्निहित देरी ही राजनीति के अपराधीकरण को बढ़ावा दे रही है। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं के खिलाफ संगीन मुकदमे दशकों से लंबित पड़े हैं। यह कितना भी अस्वाभाविक लगे, लेकिन हमारे यहां न्याय की यही चाल है। आपराधिक मामलों को निपटाने में हमारी अदालतें औसतन 15 साल लगा देती हैं। निचली अदालत सजा सुना भी दे, तो ऊपरी अदालत से स्टे मिल जाता है, जिससे चुनाव लड़ने का रास्ता साफ हो जाता है। इस तरह मामले लंबे समय तक लटके रहते हैं और नेता आराम से अपनी पूरी राजनीतिक पारी खेल लेते हैं। फैसलों की प्रक्रिया को गति देने में फास्ट ट्रैक कोर्ट कितनी कामयाब होगी यह देखने वाली बात होगी, क्योंकि इसी मकसद से बने कंज्यूमर कोर्ट और कुटुंब न्यायालय भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर पा रहे हैं।   
 

न्यायालयों की यही विसंगतियां विकास दुबे जैसे अपराधियों के एनकाउंटर को जायज ठहराने का आधार बनती हैं। यकीनन विकास दुबे ने जैसे कर्म किए, वैसा फल भुगता। उसके जघन्य अपराधों की सजा भी कड़ी ही होती। लेकिन यह चर्चा आज भी चल रही है कि अगर वो अब तक नहीं मारा जाता, तो कल कहीं का विधायक या सांसद बन जाता और अपने आकाओं की मदद से तमाम अपराधों को विपक्षियों की साजिश का जामा पहना देता। क्या यह खुले आम हमारी न्यायिक व्यवस्था पर अविास नहीं है? एनकाउंटर करने वाली पुलिस को इस आधार पर बधाई दी जा रही है कि उसने अपने साथियों की शहादत का बदला लिया। लेकिन यह सवाल तब भी बरकरार रहेगा कि देश के कानून ने कब पुलिस को किसी की जान लेने का अधिकार दे दिया, भले ही वो अपराधी क्यों ना हो? आखिर, देश में अदालतें किस काम के लिए बनी हैं? वैसे भी विकास दुबे समेत 6 अपराधियों का मारा जाना एनकाउंटर नहीं, बल्कि अपराध तंत्र के गवाहों की हत्या है। अगर ये गवाह जिन्दा बचते, तो कई राज उगलते। उन भेदियों को बेनकाब करते जो पुलिस की वर्दी पहने हुए विकास दुबे गैंग के लिए काम कर रहे थे। लेकिन पुलिस ने क्या किया? क्या विकास दुबे के घर को खंगालने की जगह आनन-फानन में उसे ढहा कर पुलिस ने सबूत तलाशने की जगह सबूत मिटाने का काम नहीं किया? क्या पूरा-का-पूरा घटनाक्रम अपराध जगत के नियमों से संचालित गैगवार की तरह दिखाई नहीं देता? क्या नेताओं, पुलिस और अपराधियों के गठजोड़ के लिए रक्षा कवच बनकर सामने नहीं आया यह एनकाउंटर?

अहम कड़ी
इस गठजोड़ में पुलिस एक अहम कड़ी है, क्योंकि कानून से मिली ताकत से वो इस गठजोड़ का खेल बना सकती है, तो खेल बिगाड़ भी सकती है। अक्सर कहा जाता है कि गलत राह में पुलिस का साथ मिल जाए, तो मंजिल का सफर आसान हो जाता है। यह कोई सकारात्मक व्याख्या नहीं है, लेकिन अक्सर इस ताकत के भ्रम में नेताओं और अपराधियों का मोहरा बन जाती है पुलिस। इसीलिए हर संगीन अपराध के बाद पुलिस सुधार की बात उठती है। इस बार भी उठ रही है, लेकिन क्या सुधार लाने से वो मानसिकता भी सुधर जाएगी, जो पुलिस तंत्र को नेताओं और अपराधियों का ‘गुलाम’ बनने के लिए मजबूर करती है? इसलिए बेहतर तो यह होगा कि राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए पुलिस को झोंकने से पहले पुलिस को आपराधिक मानसिकता की राजनीति से बचाने की कोशिश की जाए।  
 

हालांकि सैकड़ों जातियों में बंटे समाज के बीच यह काम भी आसान नहीं दिखता। यह कोई रहस्य नहीं कि हमारे यहां जातीय गोलबंदी का चुंबक भी नेताओं और माफिया को एक दूसरे के करीब लाता है। एक वक्त था जब सामंती शोषण को बनाए रखने के लिए सवर्ण जातियां आतंक को अपना हथियार बनाती थीं, लेकिन अब तो इस मामले में भी लोकतंत्र स्थापित हो चुका है। सत्ता में जो जाति हिस्सेदारी से दूर हो जाती है, वो अपने माफिया सरगनाओं की मदद से समाज में कथित बराबरी का हक हासिल करती है। विकास दुबे इसी मानसिकता का नमूना था, जिसने उत्तर प्रदेश की सत्ता में ब्राह्मणों की कथित अनदेखी का इस्तेमाल अपनी ताकत बढ़ाने के लिए किया। उसके एनकाउंटर के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले एक पूर्व केंद्रीय मंत्री का ब्राह्मण समाज को यह याद दिलाना कि उन पर अत्याचार हो रहा है, क्या महज संयोग कह कर खारिज किया जा सकता है? राजनीति केअपराधीकरण के लिहाज से विकास दुबे एनकाउंटर मामला इसीलिए अहम हो जाता है और महत्त्वपूर्ण हो जाती है वो बहस जो उसके एनकाउंटर को लेकर हो रही है। बेशक, इसके सही या गलत होने पर अलग-अलग राय रखी जा सकती है, लेकिन इस बात से कौन इनकार करेगा कि मौत से पहले अगर वो पूछताछ के दौर से गुजरता तो यकीनन कई ऐसे राज उगलता जो सियासी और पुलिस तंत्र से अपराधियों की सफाई में काम आते।

उपेन्द्र राय


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