‘जड़ों’ में मिलेगी कोरोना की जड़

Last Updated 22 Mar 2020 12:04:34 AM IST

कोरोना का कहर अब 100 दिन पार कर चुका है और इसका कोहराम रोज ही किसी-न-किसी नये इलाके में सुनाई दे रहा है।


‘जड़ों’ में मिलेगी कोरोना की जड़

बेशक, अभी भी कुछ क्षेत्र इसके सीधे असर से बचे हुए हैं, लेकिन कोरोना का खौफ पूरी दुनिया पर हावी हो चुका है। इसकी बड़ी वजह है अब तक इसका लाइलाज होना। ऐसा भी नहीं है कि दुनिया के तीन-चौथाई हिस्से और लाखों लोगों में फैल चुकी इस बीमारी से अब तक कोई ठीक नहीं हुआ हो। हजारों लोग ठीक भी हुए हैं, लेकिन एक भी मामले में यह दावा नहीं किया जा सकता कि यह किसी दवा का कमाल है। हर देश में इलाज का तरीका लगभग एक जैसा ही दिखा है-आपसी संपर्क से परहेज, स्वच्छता और सजगता।
भारत में भी कोरोना की रोकथाम के लिए फिलहाल इसी रणनीति पर काम किया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी देशवासियों से संकल्प और संयम दिखाने की अपील की है। अच्छी बात यह है कि भारत अब तक इस बीमारी को दूसरे चरण में रोके रखने में कामयाब दिख रहा है। इसके संक्रमण के बढ़ने की रफ्तार नियंत्रण में है और तीसरे चरण में होने वाले सामुदायिक प्रसार का खतरा फिलहाल टला हुआ है। इसी वजह से कोरोना की रोकथाम के लिए भारत के कदम की सराहना हो रही है और दुनिया की निगाहें एक बार फिर भारत पर आकर टिक गई हैं।

इस विचार के पीछे का मकसद यह कहना बिल्कुल नहीं है कि भारत ने कोरोना का कोई रामबाण इलाज ढूंढ लिया है। हो सकता है आगे चलकर ऐसा हो भी जाए लेकिन अभी ऐसी स्थिति नहीं है। दरअसल, इस विचार की बुनियाद यह है कि कोरोना से लड़ने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर तमाम विकसित देशों में जो भी गाइडलाइन जारी हो रही है, वो सब हमारी संस्कृति में हजारों-लाखों साल से चलन में रही हैं, बस आधुनिकता की रेस में वो थोड़ी पीछे जरूर छूट गई है। अपने आसपास के वातावरण के साथ ही खुद की नियमित सफाई, कहीं बाहर से लौटने पर घर में प्रवेश से पहले हाथ-पैर धोना, नियम से सोना-जागना, भोजन करना, भोजन से पहले और शौच के बाद हाथों को अच्छी तरह से साफ करना, रोज नहाना और कपड़े धोना, अनुशासित जीवन शैली इस सब की सलाह तो हमारी जीवन पद्धति में पहले से दी जाती रही है। हमारे यहां सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: यानी समूची दुनिया के सुखी और निरोगी रहने की कामना तो वैदिक काल से जारी है और इसे प्राप्त करने के लिए ही नियमन पर जोर दिया गया है। यहां तक कि शुरुआती परिचय से लेकर अंतिम विदाई तक के लिए अपनाई जाने वाली विधि का परंपरा के साथ-साथ वैज्ञानिक आधार भी है। परस्पर अभिवादन के तौर पर हाथ मिलाने की जगह हाथ जोड़कर नमस्ते करना और मृत्यु के पश्चात शव का अग्निदाह सनातनी परंपरा है। कोरोना की चुनौती के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल और विश्व स्वास्थ्य संगठन की सलाह पर ज्यादातर देशों के लोग अब अभिवादन के लिए हाथ मिलाना छोड़ कर नमस्ते करने लगे हैं। इसी तरह अंतिम संस्कार की पद्धति में भी बदलाव दिख रहा है। मृत देह को दफन करने से जीवाणु संक्रमण का खतरा बरकरार रहता है। इसी कारण कई देशों में कोरोना पीड़ितों की दफन क्रिया को प्रतिबंधित करते हुए शव को जलाना अनिवार्य कर दिया गया है। कोरोना से बचाव के लिए दुनिया भारतीय परंपरा की एक और पुरानी पहचान योग का सहारा भी ले रही है। कोरोना के संक्रमण से जो लोग ठीक हुए हैं, उनका इम्यून सिस्टम यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी पाई गई है, जिससे उनका शरीर इस वायरस से लड़ने में कामयाब हुआ। योग इसका सबसे बड़ा सूत्र है क्योंकि यह रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ ही सन तंत्र भी मजबूत करता है। अमेरिका के प्रमुख चिकित्सा संस्थान हॉर्वर्ड मेडिकल स्कूल ने भी कहा है कि योग करने से कोरोना वायरस से बचा जा सकता है क्योंकि इससे सांस को नियंत्रित किया जा सकता है। रोजाना नियमित तौर पर योग के आसन करने से शरीर में ेत रक्त कोशिकाएं ज्यादा तेजी से बनती हैं। यही कोशिकाएं बीमारियों से लड़ने की क्षमता को बढ़ाती हैं जिससे हमारा इम्यून सिस्टम वायरस को खत्म करने की ताकत पाता है। कोरोना वायरस के संक्रमण से ऐसे लोगों को ज्यादा खतरा बताया जा रहा है जो ब्लडप्रेशर, हाईपरटेंशन, डायबिटीज और दिल की बीमारी से पीड़ित हैं और योग इन सभी बीमारियों को दूर करता है।
हमारे शास्त्रों में अध्यात्म चिकित्सा का भी उल्लेख मिलता है, जिसे अपना कर हमारे ऋषि-महर्षियों, योगियों और मुनियों ने कई असाध्य रोगों को हराया और निरोगी रहते हुए दीर्घायु प्राप्त की। ऋषि दुर्वासा का जीवन काल तो सतयुग, त्रेता और द्वापर, तीन युगों का माना जाता है। अध्यात्म चिकित्सा योग और मेडिटेशन पर ही केंद्रित थी, जिसे ऋषि-मुनियों ने संतुलित और संयमित जीवन शैली का संदेश देकर आगे बढ़ाया। आयुर्वेद और नैचरोपैथी भी अनुशासित जीवनशैली से स्वस्थ समाज की पैरवी करती है। स्वस्थ दिनचर्या शरीर और मन का अनुशासन है और इससे प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत होता है। दोपहर का भोजन भारी हो, रात्रि का भोजन हल्का और सूर्यास्त से पहले कर लिया जाए, पाचन के लिए नियमित सैर और रात में पर्याप्त नींद शरीर और मन की शुद्धि के साथ ही इम्यून सिस्टम को भी मजबूत करते हैं। इसी जीवनशैली से निकले दादी मां और नानी मां के साफ-सफाई और इलाज के घरेलू नुस्खे किसी वक्त घर-घर की बात हुआ करते थे। बच्चों पर संक्रमण का सबसे ज्यादा खतरा होता है, इसलिए बार-बार उनके हाथ धुलाना, तुलसी की चाय पीना, खाने में अंकुरित अनाज, अदरक-लहसुन की मात्रा बढ़ाना हमारे समाज का आजमाया हुआ फॉर्मूला है। एकल परिवार का चलन जिस परंपरा को लील गया वो कोरोना के डर से ही सही, फिर से हमारी जीवनचर्या का हिस्सा बन रहा है। आधुनिकता की चकाचौंध में अपनी समृद्ध संस्कृति से हमने जो दूरी बनाई, प्रकृति के तय नियमों की जिस तरह अनदेखी की, आज वो हमें सावधान करने के साथ गंभीर परिणामों की चेतावनी भी दे रही है। अच्छा तो यही होता कि तरक्की के साथ हम सदियों से चली आ रही पद्धतियों के बीच एक समन्वय स्थापित करते। अगर तात्कालिक लाभ के लिए ऐलोपैथ दवाओं का इस्तेमाल मजबूरी बन जाता है तब भी आयुर्वेद के चमत्कारिक फायदे को अनदेखा नहीं करते क्योंकि शोधों में यह साबित हो चुका है कि ऐलोपैथ दवाओं के साइड-इफेक्ट्स होते हैं, जिनका नियमित इस्तेमाल नये रोगों को आमंत्रित करता है। प्रकृति ने अगर समस्याएं पैदा की हैं, तो उसके निराकरण के उपाय भी दिए हैं। जरूरत है तो बस उन तय नुस्खों को आजमाने की।
कोरोना को जड़ से मिटाने के लिए केवल भारत ही नहीं, चीन भी अपनी जड़ों की ओर लौटा है। चीनी राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग और पारंपरिक चीनी चिकित्सा ब्यूरो की सलाह पर कोरोना के मरीजों का पारंपरिक दवाइयों से बने डिटॉक्स सूप से इलाज किया गया। करीब 60 हजार मरीजों पर इसका प्रयोग किया गया और इसके नतीजे भी अच्छे आए। इस मामले में ज्यादातर पश्चिमी देश बेबस दिखाई देते हैं। न तो उनके पास चिकित्सा की कोई पुरानी परंपरा दिखती है और कोरोना के बाद यह भी कहा जा सकता है कि नई चुनौती से निपटने की तैयारी भी नदारद है। तमाम देशों को हथियारों और परमाणु युद्ध के संसाधन जुटाने में पानी की तरह पैसा बहाने की प्रतियोगिता में ही उन्हें उपयोगिता दिखती है, लेकिन महामारी रोकने की तैयारी तभी प्राथमिकता बनती है, जब पानी सिर के ऊपर से निकलने लगता है। दुनिया आज जिस चुनौती के बीच घिर गई है, उसमें महात्मा गांधी की कही बात बार-बार सबक की तरह याद आती है। बापू कहते थे कि बीमारी इंसान की गलत आदतों का नतीजा है और जो गलती करता है, उसे भुगतना भी पड़ता है। यह भी दिलचस्प है कि बापू खुद अनुशासित और सेहतमंद दिनचर्या के बड़े पैरोकार थे।

उपेन्द्र राय


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