टैक्स वसूली ‘मधुमक्खियां’ बनें मिसाल

Last Updated 01 Feb 2020 01:42:22 AM IST

सवाल उठता है कि क्या टैक्स ही सरकार की आमदनी का इकलौता जरिया है? क्या सरकार पुराने अनुभवों से सबक लेकर टैक्स वसूलने की कोई नई और बेहतर राह तैयार नहीं कर सकती? मंदी के दौर में ऐसा कौन-सा टैक्स सिस्टम बना सकती है, जिसमें आम जनता को तकलीफ भी न हो और सरकार का खजाना भी भरता रहे?


टैक्स वसूली ‘मधुमक्खियां’ बनें मिसाल

केंद्र सरकार की आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा जनता के चुकाए टैक्स से आता है। पिछले कुछ वर्षो के बजट के आकलन से पता चलता है कि सरकारी खजाने में जितना पैसा आता है, ये उसके 70 फीसद के करीब होता है। मोटे तौर पर आप ये रकम इनकम टैक्स और जीएसटी के रूप में चुकाते हैं, लेकिन इनके अलावा भी कई टैक्स होते हैं जो सरकार आप से प्रत्यक्ष या परोक्ष डायरेक्ट और इनडायरेक्ट तरीके से वसूलती है। टैक्स की मात्रा कम-ज्यादा हो सकती है, लेकिन सरकारी खर्च पूरा करने के लिए पूरी दुनिया में कमोबेश यही प्रणाली काम करती है।

इसके पीछे दलील ये होती है कि सरकारों पर अपने नागरिकों को कई तरह की सेवाएं उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी होती हैं, जिन पर काफी रकम खर्च करनी पड़ती है। इसमें सड़क, बिजली-पानी जैसी बुनियादी सेवाओं के साथ ही किसानों और गरीब तबके को दी जाने वाली सब्सिडी या आर्थिक मदद भी शामिल होती है। सुरक्षा और प्रशासन पर भी सरकार को काफी खर्च करना होता है। भारत जैसे विशाल देश में ये खर्च वैसे ही काफी बड़ा होता है। उस पर आबादी का बड़ा हिस्सा गरीब और कम आय वाला है, जो सुविधाओं के बदले किसी तरह का टैक्स देने की स्थिति में नहीं होता। इन स्थितियों में टैक्स अदा कर सकने वाली आबादी के अपेक्षाकृत छोटे हिस्से पर दोहरी मार पड़ती है। सरकारी खर्च पूरा करने के लिए उन्हें ज्यादा टैक्स और तरह-तरह के टैक्स चुकाने पड़ते हैं।

आम नागरिकों के साथ ही देश की आदर्श आर्थिक सेहत के लिए भी इस व्यवस्था को अच्छा नहीं कहा जा सकता। खपत बढ़ाने के लिए आम आदमी के हाथ में ज्यादा पैसा होना जरूरी है और इसके लिए उस पर टैक्स का बोझ कम होना चाहिए। हाल ही में एक कार्यक्रम में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस शरद ए बोबड़े ने भी उचित टैक्स की वकालत की है। नागरिकों पर अधिक टैक्स को उन्होंने सामाजिक अन्याय बताया है। उनकी ये टिप्पणी गौर करने वाली है कि जिस तरह मधुमक्खियां फूलों को नुकसान पहुंचाए बिना रस निकाल लेती हैं, वैसे ही सरकार की टैक्स प्रणाली से टैक्स अदा करने वालों को भी कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। दिलचस्प बात ये है कि कुछ साल पहले तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने भी टैक्स सिस्टम को कल्याणकारी बनाने के लिए ठीक यही मिसाल दी थी।

इस मिसाल का संदर्भ आर्थिक विषयों के सबसे बड़े ग्रंथ ‘अर्थ शास्त्र’ में मिलता है जिसमें कौटिल्य ने इसी उदाहरण को सामने रखते हुए कराधान प्रणाली यानी टैक्स सिस्टम को वास्तविक और सुनियोजित करने की सलाह दी थी। ‘मनुस्मृति’ में भी इस बात पर जोर है कि राजा को कर वसूली की ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि प्रजा करों की अदायगी करते समय कठिनाई महसूस न करे।

आय के वैकल्पिक स्रोत
कालांतर में कई शासक इस सीख पर चले और राज्य के सफल संचालन की वजह से अपनी प्रजा के बीच लोकप्रिय भी रहे। सम्राट अशोक के समय आचार्य चाणक्य की कर प्रणाली के सुरक्षित और लचीले मिश्रण के सबूत मिलते हैं। इतिहासकार बताते हैं कि मुगल सम्राट अकबर ने भी भूमि सुधार, दहशाला और करोड़ी कर प्रणाली को लागू किया। छत्रपति शिवाजी के समय कर लेने का सामान्य सिद्धांत यह था कि नागरिकों से कर ऐसे लिया जाए जैसे दूध में से मलाई, यानी थोड़ी-सी ऊपरी परत मात्रा भी न घटे और शासन को कर भी प्राप्त हो जाए। किसानों को शोषण से बचाने के लिए शिवाजी ने जागीरदारी और जमींदारी प्रथा को समाप्त कर दिया था। शिवाजी ने इसकी भरपाई के लिए किसानों को लगान मुक्त भूमि देकर नए इलाके बसाए और बेकार भूमि पर खेती के लिए तकाबी जैसे ऋण देकर उन्हें प्रोत्साहित किया। बुनियादी रूप से इन सभी महान शासकों ने अपनी जनता की तकलीफों का ध्यान रखते हुए कर प्रणाली को न्यायसंगत बनाया और शासन चलाने के लिए आय के वैकल्पिक स्रोत भी तलाशे।  

इसमें कोई दो-राय नहीं कि खाने-पीने की चीज हो या जीवन रक्षक दवाएं, यात्रा हो या मनोरंजन के साधन, आम आदमी से हर बात पर टैक्स वसूला जा रहा है। सवाल उठता है कि क्या टैक्स ही सरकार की आमदनी का इकलौता जरिया है? क्या सरकार पुराने अनुभवों से सबक लेकर टैक्स वसूलने की कोई नई और बेहतर राह तैयार नहीं कर सकती? मंदी के दौर में ऐसा कौन-सा टैक्स सिस्टम बना सकती है जिसमें आम जनता को तकलीफ भी न हो और सरकार का खजाना भी भरता रहे?

मौजूदा टैक्स व्यवस्था को बदलते हुए अपना खजाना मजबूत करने के लिए सरकार के पास दो ही रास्ते दिखते हैं। ज्यादा से ज्यादा लोगों को टैक्स के दायरे में लाया जाए या फिर राजस्व बढ़ाने के दूसरे विकल्पों पर काम किया जाए। मौजूदा सरकार पहले उपाय पर तभी से विचार कर रही है, जब से वह सत्ता में आई है। आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर साल 39 लाख से भी ज्यादा लोग तिपहिया या चारपहिया वाहन खरीदते हैं, लेकिन 4 लाख से भी कम लोग 5 लाख रुपये से ऊपर का इनकम टैक्स भरते हैं। कई आर्थिक विश्लेषकों का मानना है कि सरकार को ऐसे लोगों को अपने टैक्स रेवेन्यू पूल में शामिल करना चाहिए। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी कहा था कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए देश को निचले दर के टैक्सेशन की जरूरत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी कई मौकों पर कह चुके हैं कि जिस तरह लाखों समर्थ लोगों ने अपने हिस्से की सब्सिडी छोड़ी है, उसी तरह लोग अपने-अपने हिस्से का टैक्स भरने की पहल करें। लेकिन चुनावी राजनीति की मजबूरी के बीच सरकार खुद इस दिशा में कोई पहल करेगी, इस पर बड़ा संदेह बना हुआ है।

अर्थनीति को जनकल्याण से जोड़ना होगा
ऐसे में दूसरा विकल्प ही सरकार के पास आखिरी रास्ता दिखता है और ये रास्ता है राजस्व बढ़ाने के नये तरीकों की खोज। इसके लिए सरकार को इंडस्ट्रियल ग्रोथ और इंफ्रास्ट्रक्चर समेत दूसरे संसाधनों के जरिए आमदनी बढ़ाने की कोशिश करनी होगी। सरकार ने इसी हफ्ते इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स पर 102 लाख करोड़ के प्लान का ऐलान किया है। ये प्रोजेक्ट एनआईपी यानी नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन का हिस्सा होगा और 5 साल में पूरा होगा।

एक अनुमान है कि तेज इकॉनोमिक ग्रोथ के लिए भारत को साल 2030 तक इंफ्रास्ट्रक्चर पर 4.5 लाख करोड़ डॉलर खर्च करने होंगे। एनआईपी के जरिए इस काम को अंजाम दिया जाएगा। सरकार को उम्मीद है कि इससे उसकी आर्थिक गतिविधियों का विस्तार होगा, नए रोजगार के अवसर बनेंगे, लोगों का जीवन स्तर सुधरेगा और सबसे बड़ी बात कि खुद उसका खजाना भरेगा। संक्षेप में कहें तो सरकार को लग रहा है कि आर्थिक वृद्धि के लिए ये प्रोजेक्ट जादू की छड़ी का काम कर सकता है।

लेकिन हमें ये बात भी याद रखनी होगी कि हाल ही में कॉरपोरेट टैक्स में बड़ी छूट का एलान करते समय भी वित्त मंत्रालय की ओर से इसी तरह के दावे किए गए थे। इन दावों की हकीकत से मुंह चुराना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा। ये इसलिए भी जरूरी है क्योंकि सरकार के सामने आम आदमी के साथ ही कॉरपोरेट जगत को भी ‘अन्याय’ से छुटकारा दिलाने की चुनौती है। एक साल पहले देश के जान-माने उद्योगपति टीवी मोहनदास पई ने कहा था कि कॉरपोरेट इंडिया डरा हुआ है क्योंकि पांच साल में टैक्स विवाद के मुद्दे दोगुने हो गए हैं। कुछ दिनों पहले ही राहुल बजाज के साथ देश के कई दूसरे उद्योगपति भी इस डर को सार्वजनिक कर चुके हैं। कैफे कॉफी-डे के संस्थापक वीजी सिद्धार्थ की खुदकुशी और कई बड़े कारोबारियों का देश से अपना कारोबार समेट कर विदेश चले जाने को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।



ये टैक्स कंफ्यूजन से जुड़े ऐसे मामले हैं जो विदेशी निवेशकों के सेंटीमेंट पर नकारात्मक असर डालते हैं। इससे देश की छवि खराब होती है जिसका सीधा असर देश की आर्थिक सेहत पर पड़ता है और आगे चलकर इस चक्की में आम आदमी भी पिसता है। आखिर में चाणक्य नीति को याद करते हुए यही कहा जा सकता है कि सरकार को अपनी अर्थनीति को जनकल्याण से जोड़ना होगा, क्योंकि अर्थ आम आदमी से नहीं जुड़ा तो अनर्थ को टालना मुश्किल हो जाएगा।

 

उपेन्द्र राय


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