ईद : एक ईश्वरी पुरस्कार

Last Updated 11 Apr 2024 12:10:41 PM IST

दुनिया की तमाम सभ्यताओं में किसी न किसी नाम और रूप से किसी न किसी त्योहार की परंपरा रही है। अरब और उसके आसपास के समाज में मुहम्मद (स.) के अवतरण से पहले भी त्योहार और मेलों का चलन था।


ईद : एक ईश्वरी पुरस्कार

इस्लाम के शुरू में नये-नये मुस्लिम समाज में भी तीज-त्योहारों की कोई परिकल्पना नहीं थी। जब लोगों ने अपने नबी से इस संबंध में आग्रह किया तो नबी ने कहा कि सभी कौमों में त्योहार होते हैं, लेकिन हम मुसलमानों के लिए दो त्योहार हैं। एक, ईद उल फित्र; और दूसरा, ईद उल अज़हा।

जहां ईद उल फित्र रमजान के पूरे एक महीने उपवास के उपरांत मनाया जाता है वहीं ईद उल अज़हा पैगंबर इब्राहिम द्वारा अपने बेटे को ईश्वर के लिए बलिदान करने की घटना की याद के रूप में चौपाए की बली देकर मनाया जाता है। ईद उल फित्र, जिसे ईद भी कहा जाता है,  प्रत्येक वर्ष अरबी कैलेंडर के माह रमजान में पूरे महीने के निर्जला व्रत की समाप्ति के बाद शव्वाल माह की प्रथम तिथि को मनाया जाता है। धारणा है कि यह ईश्वर प्रदत्त पुरस्कार है जो उसके भक्तों को एक माह के निर्जला व्रत, संयम और धर्मपरायणता के फलस्वरूप दिया जाता है। ईद का शाब्दिक अर्थ खुशी होता है। इस दिन सामान्य दिनचर्या के अलावा सुबह विशेष सामूहिक प्रार्थना (ईद की नमाज) ईदगाह या किसी भी मस्जिद में अदा की जाती है। मुस्लिम नये कपड़े पहनते हैं, बच्चों को उपहारस्वरूप ईदी के रूप में पैसे और गिफ्ट दिए जाते हैं। लजीज पकवान बनाए जाते हैं, और स्पेशल मिष्ठान सेवई भारतीय उपमहाद्वीप में ईद की विशेषता रही है।

लोग एक-दूसरे के घर जाकर उनसे गले मिल कर ईद की बधाई देते हैं। मुस्लिम श्रद्धालु रमजान और ईद के अवसर पर जकात (एक प्रकार का धार्मिंक-आर्थिक कर जो इस्लाम के पांच बुनियादी स्तंभों में से एक है और जिसका निकालना आर्थिक रूप से संपन्न प्रत्येक मुसलमान के लिए अनिवार्य है) निकालते हैं, जो उनकी कुल वार्षिक बचत का लगभग 2.5% होता है, जिसे वो निर्धन रिश्तेदारों, पड़ोसियों और अन्य गरीब लोगों में बांटते हैं। फित्रा (संपन्न लोगों पर एक निर्धारित रकम) एक प्रकार का धार्मिंक-आर्थिक उपहार है। इसे भी बेसहारा और जरूरतमंद लोगों को ईद की विशेष नमाज से पहले देने की परंपरा है ताकि वो अपनी जरूरत के सामान खरीद कर ईद की खुशी में समाज के साथ भागीदार हो सकें। इसी फित्रा दान के कारण इस ईद का नाम ईद उल फित्र रखा गया है।

ईद के दिन एक दूसरे को क्षमा करने और क्षमा मांगने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है। मुस्लिम महिलाएं भी इस पर्व पर घर-गृहस्थी को सजाने-संवारने में तत्पर रहती हैं। मौजूदा दौर में अपवादस्वरूप ही सही कुछ घरों में गांव-मुहल्ले की महिलाएं इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से जमात बना कर ईद की नमाज भी पढ़ती हैं। ईद ऐसा पर्व है जो सालोंसाल से बिछड़े एवं रूठे परिवार को परिवार से, दोस्त को दोस्त से, भाई को भाई से और दुश्मन को दुश्मन से मिला कर दोस्ती, हमदर्दी, भाईचारा पैदा करता है, बल्कि ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी की बिडंबना से ऊपर उठ कर आपस में मेल-जोल एवं मुहब्बत से रहने का संदेश भी देता है, आपसी भाईचारा और शांति तथा सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाने का बहुमूल्य अवसर प्रदान करता है।

पैगंबर मुहम्मद (स.) के समय ईद हषरेल्लास के साथ-साथ उत्पीड़ित, उपेक्षित, प्रताड़ित समाज को मुख्य धारा में लाने और उनकी जकात, फित्रा से आर्थिक मदद द्वारा सामाजिक उत्थान के रूप में मनाया जाता था एवं महिलाएं भी ईद की विशेष प्रार्थना सभा (ईद की नमाज) में उपस्थित रहा करती थीं। पैगंबर मुहम्मद (स.) चाहते थे कि उनके अनुयायी अपने सुख-दुख बिना किसी नस्ली, जातिगत, आजाद-गुलाम और लैंगिक भेदभाव के आपस में साझा करें। उनका स्पष्ट संदेश था कि न सिर्फ  ईद के दिन बल्कि हर समय समाज के बीच आपसी सहायता एवं सहयोग हो। पैगंबर मुहम्मद (स.) ईद के दिन किसी भी प्रकार के शक्ति प्रदर्शन, रौबदारी, दिखावा और अतिक्रमण को उचित नहीं मानते थे।

देशज पसमांदा मुस्लिम समाज भी अपनी अभावग्रस्त स्थिति के बावजूद धर्मपरायणता और भारत की आध्यात्मिकता से वशीभूत होकर ईद का त्योहार हिन्दू भाइयों के साथ मिल-जुल कर मनाता है। पसमांदा की  अभावग्रस्त स्थिति का चितण्रकरते हुए आसिम बिहारी ने एक बार कहा था, ‘हमें ईद कहां नसीब, हमेशा दूसरों की ईद देखता हूं या फिर अखबारों में ईद के लेख पढ़ता हूं, मेरी ईद तो उस वक्त होगी जब मेरे प्यारे समाज की ईद होगी, हां,  बच्चों की ईद की खुशियां देखने की तमन्ना दिल में जरूर पैदा होती है।’ आज जब देश में सांप्रदायिकता का माहौल अपने चरम पर है, तो ऐसे में ईद जैसे त्योहार की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। हम सब भारतीयों को चाहिए कि ऐसे त्योहारों को आपसी सौहार्द और भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल करें और दुआ करें कि हम सब एक समृद्ध और उन्नत भारत के निर्माण के साक्षी बनें।

डॉ. फैयाज अहमद फैजी


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