वरदान बन सकता है आपका ऐसा दान
परोपकारी कायरे को प्राय: केवल अति धनी व्यक्तियों के दान से जोड़ कर ही देखा गया है क्योंकि मान लिया गया है कि उनके पास ही दूसरों के लिए अतिरिक्त धन है। पर परोपकार की एक अन्य समझ को भी समाज में विकसित करना जरूरी है जिसके अंतर्गत उन सभी को कुछ न कुछ निर्धन भाई-बहनों, बच्चों और बुजुगरे की मदद के लिए कहा जाता है जो थोड़ी-सी भी मदद नियमित करने में सक्षम हैं।
वरदान बन सकता है आपका ऐसा दान |
इस तरह विकासशील देशों के समाज में भी करोड़ों दाताओं को तैयार किया जा सकता है जिससे बहुत सार्थक बदलाव आ सकता है।
इस संदर्भ में एक समझ यह बनी है कि जो भी सक्षम हैं, उनसे अधिक नहीं अपनी आय का मात्र दो प्रतिशत हिस्सा नियमित तौर पर दान देने के लिए कहा जाए। यह मुख्य रूप से निर्धन परिवारों को सहायता के लिए दिया जाए हालांकि इसे साथ में पर्यावरण रक्षा जैसे अन्य महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों से भी जोड़ा जा सकता है।
कुछ लोग कहेंगे कि आय का 2 प्रतिशत हिस्सा तो बहुत कम हुआ। इसे जान-बूझकर ही कम रखा गया है ताकि अधिक से अधिक लोग इसे अपना सकें। यदि कुछ लोग अधिक हिस्सा दे सकें तो इसका स्वागत ही होगा। सौ में से 2 रुपये दान करने का अर्थ यह हुआ कि महीने में 50,000 रुपये आय है वह इसमें से कम से कम 1000 रुपये निर्धनों की भलाई के कायरे के लिए दान कर दें। इसे एक नारे के रूप में व्यक्त किया गया है-‘सौ में दो, अभी दे दो’। यदि इस तरह कोई व्यक्ति या परिवार प्रति दिन औसतन 30 रुपये भी दे रहा है, तो उसके जीवन में एक नया आयाम जुड़ता है और एक सुकून मिलता है कि चाहे छोटे स्तर पर ही सही, किसी का दुख-दर्द कम करने से वह जुड़ा है।
आगे सवाल यह है कि कोई व्यक्ति यह निश्चय कर ले तो फिर दान के लिए बचाए पैसे को खर्च कैसे करे। दान करने वाले व्यक्ति अपने आसपास के किसी भी निर्धन परिवार से जुड़ सकते हैं या निर्धनता कम करने के किसी प्रयास से जुड़ सकते हैं। यदि उन्हें इसमें कोई कठिनाई हो, तो ऐसी किसी भी संस्था में दान कर सकते हैं जो निर्धन वर्ग की सहायता से प्रतिबद्धता से जुड़ी है, जिसकी ईमानदारी सुनिश्चित है और जो पारदर्शी तौर-तरीके अपनाती है। इस तरह 2 प्रतिशत आय का दान देने में सक्षम लोगों की सक्रियता से निर्धन लोगों की सहायता और पर्यावरण रक्षा जैसे कायरे के लिए बहुत-सा धन इस तरह जुटाया जा सकता है। इस तरह बहुत से नये दाता बढ़ेंगे जो निर्धनता कम करने और पर्यावरण रक्षा पर पहले से अधिक ध्यान देना आरंभ करेंगे। इस पर अधिक सोच-विचार भी करेंगे। इस तरह पूरे समाज में संवेदनशीलता बढ़ेगी, सार्थक कायरे के लिए सक्रियता बढ़ेगी। व्यापक स्तर पर देखें तो यह समाज में सादगी और समता बढ़ाने के उद्देश्य से जुड़ी सोच है। सादगी का अर्थ है कि अपनी जीवन परिस्थिति के अनुसार हम अपनी आवश्यकताओं का निर्धारण कर लें और इससे अधिक यदि कुछ हो तो उसका उपयोग जन-हित में करें। सादगी का यह सिद्धांत हमें दूसरों की भलाई करने के लिए तो प्रेरित करेगा ही, साथ ही कई तरह के नशे, अय्याशी और अन्य बुराइयों से भी बचाएगा। समता के सिद्धांत का अर्थ यह है कि हर व्यक्ति को अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने का अधिकार है, और समाज के अन्य सदस्यों का कर्त्तव्य है कि गरीब से गरीब व्यक्ति का यह अधिकार उसे मिले।
इन दो जीवन-मूल्यों-समता और सादगी-का चोली-दामन का साथ है, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, इन्हें अपनाया जाए तो दूसरों का हक छीनने के लिए जो हिंसा होती है न तो वह रहेगी और इस कारण जो विषमता उत्पन्न होती है, वह भी नहीं रहेगी। मनुष्य के अपने अधिकांश दुख एक दूसरे पर आधिपत्य करने की प्रवृत्ति के कारण हैं। मनुष्य के इतिहास में लिंग, जाति, रंग, नस्ल, वर्ग, राष्ट्र आदि के आधार पर दूसरों पर आधिपत्य जमाने के प्रयासों के कारण ही अधिकांश दुख उत्पन्न हुए हैं। आधिपत्य के स्थान पर प्रेमपूर्ण सहअस्तित्व की सोच जब विकसित होगी तभी मनुष्य के दुख व्यापक और टिकाऊ स्तर पर कम होंगे। इतिहास में जब कभी अनेक सुधार आंदोलनों के कारण ऐसा हुआ है, दुखी मानवता को राहत मिली है। प्रकृति के प्रति भी आधिपत्य और विजय की भावना न होकर यह समझ होनी चाहिए कि जहां तक संभव हो प्रकृति के विविध रूपों को कोई नुकसान पंहुचाए बिना, बल्कि उसकी हरियाली को बढ़ाते हुए, अपनी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करें। मनुष्य और मनुष्य के बीच विषमता को जितना हो सके, उतना ही कम किया जाए। सामाजिक स्तर पर लिंग, जाति, रंग, नस्ल आदि पर आधारित भेदभाव समाप्त किया जाना चाहिए। समाज के ऐतिहासिक स्तर के भेदभाव के जो शिकार रहे हैं, उन्हें सामाजिक बराबरी प्राप्त करने के विशेष अवसर मिलने चाहिए। किसी दूसरे के संसाधन या क्षेत्र हड़पने की होड़ न करें अपितु हम सब मिलकर कैसे एक नई दुनिया बनाएं जिसमें मनुष्य और सभी जीवों के दुख-दर्द को कम किया जाए, यही मुख्य उद्देश्य हो। एक मूल्य, जिसे हमारे दिल-दिमाग में गहरा बिठा दिया गया है, है प्रतिस्पर्धा का जीवन-मूल्य। पूरा जीवन जैसे एक दौड़ है जिसमें बहुत कम उम्र में ही हमें जुट जाना है और इतना जुट जाना है कि शायद जवानी से पहले ही हांफने और लस्त-पस्त होने की स्थिति पैदा हो जाए।
दूसरी ओर यदि दौड़ न हो, एक दूसरे से स्पर्धा न हो, केवल मिल-जुल कर, सहयोग से कार्य करने की भावना हो तो उसमें सबकी जीत हो सकती है, सभी बिना तनाव के एक दूसरे की सहायता करते हुए, एक दूसरे की क्षमता बढ़ाते हुए कहीं अधिक सार्थक कार्य कर सकते हैं। हमारा मुख्य उददेश्य एक-दूसरे से आगे निकलना न हो, बल्कि दूसरों से सहयोग स्थापित कर सामूहिक भलाई के लिए अधिक कार्य करना हो तो बहुत से तनाव स्वयं दूर हो जाएंगे और समाज के बहुत से रुके पड़े महत्त्वपूर्ण काम भी पूरे होने लगेंगे। आधुनिक जीवन में मनुष्य को बार-बार कहा जाता है कि वह अपनी निहित प्रतिभा को अधिक से अधिक चमकाए, इसी में उसके जीवन की सफलता है पर जरूरत चंद सुपर स्टारों की चमक-दमक की नहीं है। जरूरत इस बात की है कि समाज का हर व्यक्ति अपनी क्षमता के विकास का और इससे भी जरूरी समाज निर्माण में अपने योगदान का कुछ अवसर जरूर प्राप्त करे।
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