CAA : पीड़ितों को मिलेगी नागरिकता

Last Updated 18 Mar 2024 01:18:48 PM IST

आखिरकार, लंबी चली जद्दोजेहद के बाद नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के नियम अधिसूचित कर दिए हैं। लोक सभा चुनाव के ठीक पहले इस कानून को अमल में लाना भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा माना जा सकता है।


CAA : पीड़ितों को मिलेगी नागरिकता

कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल इस कानून का इसलिए दुष्प्रचार करते रहे हैं कि इससे मुसलमानों की नागरिकता संकट में पड़ जाएगी जबकि इसमें देश के किसी भी धर्म से जुड़े नागरिक की नागरिकता छीनने का कोई प्रावधान नहीं है। हां, घुसपैठियों को जरूर नागरिकता सिद्ध नहीं होने पर बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है।

संसद और उसके बाहर ऐसे अनेक बौद्धिक आलोचक थे, जो प्रमाणित करने में लगे थे कि यह कानून ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ अर्थात संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है लेकिन यह संदेह जम्मू-कश्मीर से हटाई गई धारा-370 और 35-ए की तरह ही संवैधानिक है। इस कानून का मुख्य लक्ष्य धार्मिंक आधार पर प्रताड़ितों, हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई, जिन्हें पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से पलायन को मजबूर होना पड़ा है, को भारत में नागरिकता प्रदान करना है।

पहले भी इन तीनों देशों के मुसलमानों को भारतीय नागरिकता दी जा चुकी है। जाहिर है कि यह कानून किसी धर्म या संप्रदाय के आधार पर भेदभाव से नहीं जुड़ा है। साफ है, यह कानून किसी की नागरिकता छीनने का नहीं, बल्कि देने का कानून है। यह विधेयक मूल रूप में 1955 के नागरिकता विधेयक में ही कुछ परिवर्तन करके अस्तित्व में लाया गया है। 1955 में यह कानून देश में दुखद विभाजन के कारण बनाया गया था। इस समय बड़ी संख्या में अलग-अलग धर्मो के लोग पाकिस्तान से भारत आए थे। इनमें हिन्दू, सिख. जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई थे।

आजादी के बाद भारत ने धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश बनने का निर्णय लिया लेकिन पाकिस्तान ने खुद को इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया। पाक के संस्थापक एवं बंटवारे के दोषी मोहम्मद अली जिन्ना के प्रजातांत्रिक सिद्धांत तत्काल नेस्तनाबूद कर दिए गए। 1948 में जिन्ना की मौत के बाद पाकिस्तान पूरी तरह कट्टर मुस्लिम राष्ट्र में बदलता चला गया। नतीजतन, जो भी गैर-मुस्लिम समुदाय थे, उन्हें प्रताड़ित करने के साथ उनकी स्त्रियों के साथ दुराचार और धर्म परिवर्तन का सिलसिला तेज हो गया। ऐसे में ये पलायन कर भारत आने लगे। दरअसल, इन गैर-मुस्लिमों का भारत के अलावा कोई दूसरा ठिकाना इसलिए भी नहीं था कि पड़ोसी अफगानिस्तान भी कट्टर इस्लामिक देश बन गया था। 1955 तक करीब 45 लाख हिन्दू और सिख भागकर भारत आ गए थे। इनके दृष्टिगत नागरिकता निर्धारण विधेयक, 1955 बनाया गया था।

1971 में जब पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बना तो इस दौरान हिन्दू समेत अन्य गैर-मुस्लिमों पर विकट अत्याचार हुए। फलत: इनके पलायन और धर्मस्थलों को तोड़ने का सिलसिला और तेज हो गया। बड़ी संख्या में हिन्दुओं के साथ बांग्लादेशी एवं पाकिस्तानी मुस्लिम भी बेहतर भविष्य के लिए भारत चले आए जबकि वे धर्म के आधार पर प्रताड़ित नहीं थे। ये घुसपैठिए बनाम शरणार्थी पूर्वोत्तर के सातों राज्यों समेत प. बंगाल में भी घुसे चले आए। इनकी संख्या तीन करोड़ तक बताई जाती है। शरणार्थियों की तो सूची है, लेकिन घुसपैठिए अनुमान के आधार पर ही हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए शरणार्थियों की सूची मात्र 1 लाख 16 हजार लोगों की है, बाकी घुसपैठिए हैं। इन घुसपैठियों और शरणार्थियों की सही पहचान करने की दृष्टि से ही नागरिकता संशोधन विधेयक लाया गया है।

छब्बीस सितम्बर, 1947 को एक प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी ने कहा था, ‘पाकिस्तान में जो हिन्दू एवं सिख प्रताड़ित किए जा रहे हैं, उनकी मदद हम करेंगे।’ 1985 में केंद्र में जब राजीव गांधी की सरकार थी, तब असम में घुसपैठियों के विरुद्ध जबरदस्त प्रदर्शन हुए थे। नतीजतन, राजीव गांधी और आंदोलनकारियों के बीच समझौता हुआ जिसमें घुसपैठियों को क्रमबद्ध खदेड़ने की शर्त रखी गई। लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ।

डॉ. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए सदन में कहा था कि यदि पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिंक अल्पसंख्यक प्रताड़ित किए जा रहे हैं और वे पलायन को मजबूर हुए हैं, तो उन्हें भारतीय नागरिकता दी जानी चाहिए। किंतु मनमोहन सिंह ने दस साल प्रधानमंत्री बने रहने के बावजूद इस दिशा में कोई पहल नहीं की जबकि असम में इस दौरान कांग्रेस की सरकार थी। यदि नेहरू और लियाकत अली के बीच समझौते का पालन पाक ने किया होता तो इस विधेयक की न तो 1955 में बनाने की जरूरत पड़ती और न ही अब संशोधन की। बहरहाल, यह कानून मानवीयता के सरोकारों से जुड़ा अहम कानून है, जिसे दुनिया को मिसाल के रूप में देखना चाहिए।

प्रमोद भार्गव


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