मुद्दा : त्रिपुरा के जनजातीय हित

Last Updated 14 Mar 2024 01:18:43 PM IST

बारह साल पहले त्रिपुरा में उग्रवादियों के समर्पण-सह-पुनर्वास की विशेष योजना बनाई गई थी और अब भारत सरकार, त्रिपुरा सरकार और सबसे बड़े जनजातीय गठबंधन समूह से जुड़े राजनीतिक दल टिपरा मोथा के बीच त्रिपक्षीय समझौता हुआ है।


मुद्दा : त्रिपुरा के जनजातीय हित

इसके तहत त्रिपुरा की जनजातियों के इतिहास, भूमि और राजनीतिक अधिकारों, आर्थिक विकास, पहचान, संस्कृति और भाषा संबंधी मुद्दों को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल करने पर सभी पक्षों के बीच सहमति बनी है।

दरअसल, धार्मिंक कट्टरपंथ से अभिशप्त बांग्लादेश तथा जातीय समूहों की प्रतिद्वंद्विता की आग में झुलसते म्यांमार की नदी घाटियों के बीच भारत का छोटा सा राज्य त्रिपुरा स्थित है।  इसके तीन तरफ बांग्लादेश है और उत्तर-पूर्व में यह असम और मिजोरम से जुड़ा हुआ है। त्रिपुरा में उन्नीस जनजातियां रहती हैं, जिनमें कई भाषायी और क्षेत्रों की सांस्कृतिक विभिन्नताएं हैं। वहीं, पूर्वी बंगाल और बाद में बांग्लादेश से अवैध प्रवासियों और शरणार्थियों की आमद से त्रिपुरा की जनसांख्यिकी में बड़े बदलाव के कारण यहां त्रिपुरी बनाम गैर-त्रिपुरी तथा बंगाली बनाम गैर-बंगाली का नारा भी खूब बुलंद हुआ है। किसी दौर में यह जनजातीय बाहुल्य राज्य था लेकिन अब यहां कथित रूप से बाहर से आकर बसे बंगालियों और बंगलादेशी मुसलमानों का बाहुल्य है। त्रिपुरा में जनजातियां अपनी पहचान और संस्कृति बचाने के लिए निरंतर संघर्ष कर रही हैं, जो कई बार हिंसक भी हुआ है।

कई जातीय और धार्मिंक समूह बन गए हैं, जिससे  चरमपंथ और पृथकतावाद को बढ़ावा मिला है। इन सबके बीच क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपना महत्त्व बनाएं रखने के लिए कभी जनजातियों के लिए अलग ग्रेटर टिपरालैंड स्वायत्त राज्य का नारा बुलंद करते हैं, तो कभी हिन्दू, ईसाई और जीववाद के बीच बंट चुकी जनजातियों के बीच ही संघर्ष पनपा दिया जाता है। दो दशक पहले त्रिपुरा के तत्कालीन राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल के. एम. सेठ ने राज्य की सुरक्षा संबंधी जटिलताओं पर कहा था कि अपर्याप्त सीमा प्रबंधन, सुरक्षा बलों की कमी और पड़ोसी देश में आतंकवादी शिविरों के अस्तित्व सबसे बड़ी समस्या हैं। ये समस्या अब भी जारी हैं।

उत्तर, दक्षिण तथा पश्चिम में त्रिपुरा बांग्लादेश से घिरा है तथा इसके कुल सीमा क्षेत्र का 84 फीसद अर्थात 856 किलोमीटर क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में है। लगभग आधा राज्य जंगलों से ढका है जहां बेशकीमती वृक्ष पाए जाते हैं। यहां सागौन के बाद सबसे कीमती लकड़ी शोरिया रोबस्टा है तथा प्राणियों में बाघ, तेंदुआ, हाथी भौंकने वाला हिरण मंटियाकस मुंटजैक शामिल हैं। भौगोलिक रूप से जटिल सीमा होने के कारण आतंकवादी, अलगाववादी, पृथकतावादी, तस्कर तथा  बांग्लादेश से अवैध प्रवासियों का आना सुलभ हो जाता है। उग्रवादियों, सशस्त्र डकैतों और तस्करों ने खुली सीमा का फायदा उठाया है, और वे लोगों की हत्या कर बंगलादेश में जा छुपते हैं। इनमें लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा, बोरोक नेशनल काउंसिल ऑफ त्रिपुरा और ऑल त्रिपुरा टाइगर फोर्स जैसे पृथकतावादी संगठन तथा कुछ मुस्लिम चरमपंथी संगठन शामिल हैं।

त्रिपुरा के प्रभावशाली जनजातीय समूहों में भारत सरकार को लेकर गहरा अविश्वास देखा गया है, जिससे समस्या के दीर्घकालीन हल के मार्ग में चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने 1980 के दशक की शुरुआत में भावनात्मक और सांस्कृतिक एकीकरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पांच सीमा क्षेत्र परियोजनाएं शुरू की थीं लेकिन इसके बावजूद जनजातीय लोगों के जीवन की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ।

त्रिपुरा विधानसभा ने 1982 में त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद अधिनियम बनाया। केंद्र ने 1985 में संवैधानिक संशोधन के माध्यम से इसे छठी अनुसूची में शामिल कर लिया। 1988 में आतंकवादी समूह त्रिपुरा नेशनल वालेंटियर्स ने  केंद्र के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए, लेकिन विद्रोहियों ने 1992 में नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा, एनएलएफटी नामक अलगाववादी समूह का गठन  कर लिया। यह संगठन अंतरराष्ट्रीय सीमा के पार स्थित अपने शिविरों से हिंसा फैलाने जैसी गतिविधियों में शामिल रहा है। केंद्र की एनएलएफटी के साथ शांति वार्ता शुरू हुई, तब जाकर 2016 के बाद से इस संगठन ने कोई हिंसक कार्रवाई नहीं की है।

त्रिपुरा में व्यापक प्रशासनिक सुधारों के साथ जनजातीय वगरे को विश्वास में लेने की जरूरत है। आदिवासियों को पहाड़ों पर धकेल दिया गया है, और राजनीति और प्रशासन पर बंगालीभाषी स्थानीय लोगों और प्रवासियों का वर्चस्व हो गया है। गैर-आदिवासियों का आबादी में विस्तार तो हो ही गया है, साथ ही उनकी भूमि को भी बाहर से आने वाले समुदायों ने हड़प लिया है। इन परिस्थतियों में जनजातीय आबादी में भय और आक्रोश की भावना है। आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी समुदायों की जीवन शैली और उनकी संबंधित आर्थिक स्थितियों में असमानता के कारण आप्रवासी समूहों और राज्य के आदिवासियों के बीच विद्वेष बढ़ गया है। परिणामस्वरूप जनजातीय स्वायत्तता की मांग बढ़ने लगी और हिंसक अलगाववादी आंदोलन का भी उदय हुआ।

त्रिपुरा में शांति स्थापित करने के लिए नया समझौता केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक साहा और टिपरा मोथा के प्रमुख प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा की मौजूदगी में हुआ है। अपेक्षा की गई है कि टिपरा मोथा किसी भी प्रकार के विरोध अथवा आंदोलन का सहारा लेने से बचेगा। लेकिन टिपरा मोथा से जुड़े जनजातीय समूहों में ही इस मुद्दे पर सहमति बनती दिखाई नहीं दे रही। टिपरा मोथा माणिक्य राजवंश से आने वाले प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा का राजनीतिक दल है। पिछले साल त्रिपुरा के इंडिजनस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा ने ग्रेटर टिपरालैंड की मांग को उठाने के लिए  जंतर मंतर नई दिल्ली में दो दिवसीय धरना प्रदर्शन किया था। संगठन ने दावा किया था कि माणिक्य वंश के अंतिम राजा बीर बिक्रम किशोर देबबर्मन द्वारा उनके लिए आरक्षित भूमि से भी उन्हें बेदखल कर दिया गया है। केंद्र को जनजातीय समूहों को विश्वास में लेकर सामाजिक न्याय और जनजातीय इलाकों की स्वायत्तता स्थापित करने की दिशा में कदम उठाने की जरूरत है। त्रिपुरा के स्थानीय राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिए समझौतों की राजनीति करते रहे हैं, लेकिन इससे जनजातीय समूहों के अलग होने का खतरा सदैव बना रहता है, और यही संकट त्रिपुरा में स्थायी समाधान होने नहीं देता।

डॉ. ब्रह्मदीप अलूने


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