मदर इंडिया : न्याय की खातिर जो संघषर्रत रहीं

Last Updated 03 Mar 2024 01:19:37 PM IST

लगभग 65 वर्ष पहले महान फिल्मकार महबूब ने अपनी फिल्म ‘मदर इंडिया’ में ऐसी महिला की जीवन-कथा चित्रित की थी जो जीवन-भर गरीबी और अभाव से संघर्ष करने के बाद भी न्याय के लिए, जन-हित के लिए बड़ा बलिदान करने के लिए तैयार रही।


मदर इंडिया : न्याय की खातिर जो संघषर्रत रहीं

हम ऐसे फिल्म-चरित्र की तो बहुत प्रशंसा करते हैं, पर कभी-कभी भूल जाते हैं कि ऐसी अनेक महान महिलाएं हमारे बीच सदा रही हैं-ऐसी ‘मदर इंडिया’ जिसे अपने गांव और आस-पड़ौस के गांव के बाहर चाहे लोग न जानते हों पर गांव के लोग जानते हैं कि उन्होंने बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में न्याय, जन-हित के लिए कितना कुछ किया है।

‘मेथी मां’ का जीवन इस विचार का सजीव उदाहरण है। उनके जीवन के शुरुआती दौर में दुखद घटनाओं का ऐसा सिलसिला रहा जिन पर उनका कोई नियंतण्रनहीं था। इसके बावजूद उन्होंने साहस और धैर्य के बल पर न केवल अपने दुखों पर काबू पाया, बल्कि आगे बढ़कर गांव के कल्याण तथा विकास में असाधारण योगदान दिया सूचना का अधिकार, मनरेगा जैसे बड़े सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाई। राजस्थान के जिला अजमेर में किशनगढ़ प्रखंड के अंतर्गत खेड़ा गांव में रहने वाली 65 वर्षीय दलित महिला मेथी मां जब बहुत छोटी थीं तभी उनके माता-पिता का देहांत हो गया। वे प्रवासी मजदूर थे जिनकी चम्बल की बाढ़ में डूबने से मृत्यु हो गई। माता-पिता की मृत्यु के बाद वह एक शराबी रिश्तेदार के घर में रहीं जिसने मेथी मां को चंद रुपयों के लिए एक उम्रदराज व्यक्ति को सौंप दिया। मेथी का उम्रदराज पति एक दुर्घटना में इतनी बुरी तरह घायल हो गया कि उसके बाद कभी बिस्तर से उठ नहीं सका। मेथी ने इस विपत्ति की घड़ी में लंबे समय तक उसकी हर संभव देखभाल की।

इन सब परेशानियों के बावजूद मेथी जब सामाजिक कार्यकर्ताओं के संपर्क में आई तो अपने गांव की सेवा के लिए बड़ी जिम्मेदारियां उठाने के लिए तैयार थीं। उन्होंने प्रसाविका (प्रसव में सहायिका दाई) का प्रशिक्षण लिया और जल्द ही इस काम में कुशलता हासिल कर ली। उन्होंने धुआंरहित चूल्हा बनाना भी सीख लिया और अपने गांव के रसोईघरों में अनेक धुआंरहित चूल्हे बिठाए। गांव में महिला-समूहों को संगठित करने में अग्रणी भूमिका निभाई।

शीघ्र ही जात-पात के संकीर्ण दायरे को सफलता से पार करते हुए उन्होंने गांव के लोगों का इतना समर्थन पा लिया कि पंचायत में लोगों ने मेथी को वार्ड सदस्य चुन लिया। एक बार जब उनके गांव में दो परिवारों के बीच झगड़ा हुआ और लगा कि झगड़ा हिंसात्मक रूप ले लेगा, ठीक उसी समय मेथी मां अदम्य साहस दिखाते हुए बीच-बचाव करती हुई कूद पड़ीं और अपने दोनों हाथों को जोड़ते हुए विनती के स्वर में कहा, मार-पीट पर उतारू होने के पहले सिर्फ इतना सोच लेना कि नुकसान तुम्हारे सगे-संबंधियों का ही होगा। उनके इस आग्रह में इतनी गहराई थी कि झगड़े में शामिल दोनों परिवार पीछे हट गए और सौहार्दपूर्ण तरीके से सुलह कर ली।

मेथी के गांव में शराब का एक ठेका था जिसकी वजह से गांव की महिलाएं तथा बच्चे बेहद परेशान थे। उन्होंने महिलाओं को एकजुट करके शराब के ठेके के खिलाफ ऐसी मुहिम छेड़ी कि शराब के ठेके को गांव से बाहर ही निकाल दिया। गरीब परिवार की एक महिला को गांव के एक दबंग परिवार ने डायन कहकर बहुत मारा-पीटा था। मेथी मां ने इस अन्याय के विरोध में गांव वालों को एकजुट किया। जल्द ही उस दबंग परिवार ने माफी मांगी और उस गरीब महिला को दोषमुक्त घोषित किया गया।

चाहे मामला आग लगने से पीड़ित अरामपुरा गांव के निवासियों की मदद का हो या कालीडुंगड़िया गांव में हुए हमले में पीड़ित व्यक्ति के लिए जयपुर फुट की व्यवस्था करने का, मेथी किसी भी तरह के अच्छे कामों में अपना योगदान देने के लिए स्वयंसेविका के रूप में हमेशा तैयार रहीं। यह लेखक उन्हें मिला तो उन्होंने कहा, ‘वास्तव में सबसे महवपूर्ण बात यह है कि हर इंसान दूसरे इंसान के दुख को कम करने में अपना योगदान करे।’

अधिकांश गांव वालों के लिए गाल्कू मां की छवि और व्यक्तित्व मां की रही। करीब तीस साल पहले किशनगढ़ प्रखंड के पानेर गांव में महिला समूह के संगठन से जुड़ने के बाद उनके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। कई स्थानों पर जहां महिला हिंसा तथा शोषण की घटनाएं होतीं तो गाल्कू मां जाकर विरोध प्रदर्शन में भाग लेतीं और यथासंभव मदद करती थीं। जयपुर में आरटीआई (सूचना के अधिकार) के एक धरने में वह लगातार 53 दिनों तक शामिल रहीं।

उनके गांव में मजदूरों को जब मजदूरी नहीं मिली तो गाल्कू मां ने मजदूरों को इसका विरोध करने के लिए एकजुट किया। परिणाम यह हुआ कि पदाधिकारियों ने रात में ही मजदूरी बांटने के लिए विशेष प्रबंध किया। जब राजस्थान मजदूर-किसान मोर्चा प्रारंभ हुआ तो वह मोच्रे की सक्रिय सदस्य बनीं और मोच्रे के विरोध-प्रदर्शनों में बढ़-चढ़कर भाग लेती थीं। गाल्कू मां ने वार्ड पंचायत का चुनाव लड़ा तो आराम से जीत गई। जरूरतमंद महिलाओं तथा बुजुगरे की पेंशन तथा अन्य लाभप्रद योजनाओं के सही-सही लागू होने पर उन्होंने विशेष ध्यान दिया। यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि रोजगार प्राप्ति में गरीबों को प्राथमिकता मिले और स्वयं नरेगा के कार्यस्थलों पर जाकर निरीक्षण करतीं और व्याप्त गड़बड़ियों का पता लगाती रहीं।

पिंगुन गांव, दुदु प्रखंड, जिला जयपुर की दलित महिला रुकमा मां अनेक संघर्ष से जुड़ी रहीं। एक बार रुकमा को दूरभाष से धौलप्रिया गांव में रेप की घटना की सूचना मिली। यह भी सूचना मिली कि बदमाशों ने गांव की घेराबंदी भी कर दी है ताकि कोई बाहर का व्यक्ति गांव में न घुस सके। ऐसे हालात में भी रुकमा ने एक ग्रामीण साथी को तैयार कर लिया जिसने उसे मोटरसाइकिल से घेराबंदी को तोड़ते हुए गांव के अंदर पंहुचा दिया। जब बदमाश और उनके साथियों ने रुकमा से उसका परिचय पूछा तो रुकमा ने जवाब दिया, ‘मैं तुम्हारी मां हूं।’ उन्होंने निडरता से न्याय के लिए लड़ाई की। रुकमा ने राजस्थान की रूपकंवर ‘सती’ घटना के विरोध में भी लोगों को संगठित किया।  आरटीआई धरने के लिए लगातार 40 दिन ब्यावर और लगातार 53 दिन जयपुर में मौजूद रहीं।

साठ वर्षीय भंवरी देवी ने ग्रामीण महिलाओं को संगठित करने का काम तीस वर्षो से भी अधिक समय तक किया। अपनी युवावस्था में आजीविका के लिए सब्जी बेचने का कार्य किया। फिर उनका रुझान वृहत्तर सामाजिक मुद्दों की तरफ होने लगा जैसे सूखा-राहत का काम कैसे किया जाए जिससे जरूरतमंदों को समुचित लाभ मिल सके। उनके सामने सबसे चुनौतीपूर्ण समय तब था जब उन्होंने गांव के उन ताकतवर लोगों के विरोध में खड़े होने का निर्णय कर लिया जो एक अव्यस्क लड़की के रेप के आरोपियों का बचाव कर रहे थे। भंवरी ने बड़ी जोखिम भरी लड़ाई लड़ी। कई मुश्किलों का सामना करने के बाद दोषियों को सजा मिली। एक अन्य लड़की के अपहरण के मामले में भंवरी ओर उनकी साथियों ने उस जगह को ढूंढ निकाला जहां अपहरणकर्ता छिपे थे। भंवरी और उनके साथियों ने उस जगह पर पंहुच कर उस कमरे का दरवाजा तोड़ दिया और लड़की को सुरक्षित बरामद कर लिया गया तथा अपरहणकर्ताओं को पुलिस के हवाले कर दिया गया।

भारत डोगरा


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