राष्ट्र के विकास की संकल्पना शिक्षा के बगैर अधूरी

Last Updated 18 Jan 2024 01:18:54 PM IST

शिक्षा समाज का आधार होती है। किसी राष्ट्र के विकास की संकल्पना को शिक्षा के बगैर पूरा नहीं किया जा सकता।


शिक्षा : विकास की जरूरी शर्त

राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक विकास में ठोस शिक्षा व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। विगत कुछ दशकों में हमारे देश की जो प्रगति है, उसमें शिक्षा का केंद्रीय योगदान है। संप्रति केंद्रीय शिक्षा मंत्री धम्रेद्र प्रधान ने देश को विकसित अर्थव्यवस्था बनाने के संकल्प को पूरा करने के अंतर्गत उच्च शिक्षा में सकल नामांकन उत्पाद को 2030 तक वर्तमान के 27 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा है।

नि:संदेह यह लक्ष्य भारत की विकसित अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाई देगा। कोई भी देश एक दिन में विकास के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। भारत का 2047 तक विकसित देश बनने का संकल्प एक कोरी कल्पना भर नहीं है, बल्कि उसके पीछे ठोस, दूरदर्शी और ईमानदार प्रयास शामिल है। भारत की नई शिक्षा नीति 2020 का उद्देश्य शिक्षा प्रणाली में बुनियादी परिवर्तन लाकर शैक्षणिक व्यवस्था को गुणवत्तापूर्ण, अनुसंधानपरक एवं रोजगारोन्मुख बनाना है। भारतीय शिक्षा पद्धति पर बार-बार प्रहार किया जाता है कि यह शिक्षा पद्धति मौलिक नहीं है, बल्कि मैकाले की शिक्षा पद्धति का ही संशोधित संस्करण है। एक हद तक यह आरोप सत्य के सन्निकट है।

पहली बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से देश के दिमाग को आकार देने की कोशिश शरू हुई हैं। यह प्रयास स्तुत्य है। किसी भी देश की शिक्षा पद्धति उस देश की भाषा और संस्कृति के समन्वय पर आधारित होना जरूरी होता है। भारतीय संविधान ने देश के 6 से 14 वर्ष की उम्र के सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का मूल अधिकार दिया है। शिक्षा जैसे संवेदनशील विषय को संविधान की समवर्ती सूची में इसलिए स्थान दिया गया है ताकि बेहतर शिक्षा व्यवस्था के लिए केंद्र और राज्य अपने स्तरों पर त्वरित निर्णय ले सकें ताकि शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित न हो। भारत में शिक्षा पर व्यय अन्य देशों की तुलना में कमतर रहा है।

यही कारण है कि हमारे राज्यों के सकल घरेलू उत्पाद का 2.5-3.2 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च होता है। 1964 में कोठरी आयोग ने सरकार से शिक्षा पर खर्च की बढ़ोतरी की अनुसंशा की थी। कोठरी आयोग ने सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की अनुसंशा की थी। आजादी के अमृत वर्ष के बीत जाने के बाद भी शिक्षा का बजट सकल घरेलू उत्पाद के 3.5 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो पाया है।  राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा बजट को सकल घरेलू उत्पाद के छह प्रतिशत करने की बात की गई है।

यह बेहतर शिक्षा व्यवस्था के लिए उम्मीद भरा प्रयास है। अन्य देशों की तुलना में भारत का शिक्षा पर खर्च संतोषप्रद नहीं है। शिक्षा पर खर्च के मामले में भारत का दुनिया में 135वां स्थान है। हमारे यहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अभाव को युवा सबसे बड़ी चुनौती मानते हैं। इस तथ्य से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि शिक्षा पर खर्च हमारी प्राथमिकता नहीं रहा। बेहतर शिक्षा व्यवस्था के लिए आर्थिक संरक्षण बेहद जरूरी  होता है, तभी हम शिक्षा व्यवस्था में मात्रात्मक विस्तार, गुणवत्ता और समानता में सुधार, विविधता को मजबूत करने और शैक्षणिक विकास के अन्य महत्त्वपूर्ण पहलुओं के लिए बड़ी धनराशि के व्यय का महत्त्व समझ सकेंगे।

जापान और अमेरिका जैसे  विकसित देश शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद के 6 प्रतिशत से ज्यादा खर्च कर रहे हैं। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 31 जनवरी, 2023 को संसद में आर्थिक समीक्षा 2022-23 को प्रस्तुत करते हुए बताया कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का उद्देश्य 2030 तक समावेशी और समान गुणवत्ता वाली शिक्षा सुनिश्चित करना है, और सभी के लिए आजीवन सीखते रहने के अवसरों को बढ़ावा देना है।

सबको शिक्षा, अच्छी शिक्षा की तर्ज पर अधिक से अधिक लोगों को शिक्षित करने का लक्ष्य ही विकसित अर्थव्यवस्था बनाने में हमारी मदद करेगा। आज भाषायी दक्षता के साथ अनुसंधान और कौशल विकास पर आधारित शिक्षा की जरूरत है। सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता ही विकसित भारत की बुनियाद रखेगी। निरंतर महंगी होती जा रही शिक्षा सिर्फ आर्थिक संपन्न वर्ग के लिए सुलभ होती जा रही है। आज भी समाज का बहुत बड़ा वर्ग उच्च शिक्षा से अछूता ही रह रहा है।  

शिक्षा के बुनियादी ढांचे को मजबूत और वैज्ञानिक बनाने की दिशा में कई महत्त्वपूर्ण प्रयोग किए जा रहे हैं। अध्यापन विज्ञान पर ध्यान देने के साथ-साथ स्कूलों के बुनियादी ढांचे को सुविधापरक एवं डिजिटलीकरण, छात्र-शिक्षक अनुपात में परिलक्षित शिक्षकों की उपलब्धता, स्मार्ट कक्षाओं, आईसीटी प्रयोगशालाओं, शैक्षिक सॉफ्टवेयर और शिक्षण के लिए ई-सामग्री की उपलब्धता आदि सकारात्मक पहल हैं। भारत जैसे विकासशील देश में शिक्षा का बुनियादी संकट सुयोग्य शिक्षकों का अभाव भी है। हमारे देश में अन्य देशों की तुलना में शिक्षकों को सुविधा, वेतन, सम्मान तुलनात्मक रूप से कम हैं। यही कारण है कि सुयोग्य शिक्षकों की प्राथमिकता सरकारी संस्थान न होकर प्राइवेट संस्थान होते हैं। इस पीढ़ी के अंदर शिक्षा के प्रति लगाव का अर्थ सिर्फ अर्थोपार्जन है। हमें इस सोच से भी मुक्त होने की जरूरत है कि शिक्षा ज्ञान का पर्याय है, न कि डिग्री का पर्याय।

शिक्षा से संदíभत सभी क्षेत्रों को रोजगारोन्मुख बनाने की दिशा में पहल जरूरी है। शिक्षा आत्मनिर्भरता का द्योतक है। विकसित भारत बनाने की दिशा में हम सब अग्रसर हैं। देश की 50 प्रतिशत आबादी की उम्र 25 वर्ष से कम है। हमारा देश युवाओं का देश है। इसलिए हमारी चुनौतियां भी अलग हैं। स्त्री व वयस्क शिक्षा की दिशा में भी हम अभी न्यूनतम स्तर पर हैं। गावों और शहरों में रहने वाली महिलाओं के बीच शिक्षा का जो अंतर है, वह भी बड़ी चुनौती है।  

किसान-मजदूर को शिक्षित करना भी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। निरक्षरता के अभिशाप से मुक्त होकर ही हम प्रगति और ठोस अर्थव्यवस्था को साकार कर सकते हैं। शिक्षा मनुष्य के विकास और प्रगति की अनिवार्य शर्त है। यह हमारे सामाजिक जीवन में ज्ञान, नैतिकता, समझ, समर्पण और दक्षता की भावना को विकसित करती है। शिक्षा मानवीय संपदा को व्यापक और विस्तृत आकार देती है, और सभी क्षेत्रों में समृद्धि और आत्मनिर्भरता का मार्ग प्रशस्त करती है।

डॉ. मनीष कुमार चौधरी


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