पर्यावरण : जलवायु बदलाव के एजेंडा को व्यापक बनाएं

Last Updated 31 Dec 2023 01:37:45 PM IST

दुबई में कॉप-28 अथवा जलवायु बदलाव के महासम्मेलन के अंतर्गत एक फिर विश्व के विभिन्न देशों के प्रतिनिधि और विशेषज्ञ एकत्र हुए जहां उनके विमर्श से बात कुछ आगे बढ़ी पर समय रहते असरदार समाधान की उम्मीद अभी दूर है। आखिर, जलवायु बदलाव पर इतना ध्यान केंद्रित होने के बावजूद संतुलित समाधान क्यों नहीं प्राप्त हो रहे हैं?


पर्यावरण : जलवायु बदलाव के एजेंडा को व्यापक बनाएं

एक बहुत उपेक्षित मुद्दा यह है कि युद्ध और विध्वंसक हथियारों की दौड़ को इस चर्चा से बाहर रखा गया है, जबकि युद्ध और विध्वंसक हथियार व इनसे जुड़ी तमाम तैयारियां और  कार्यवाहियां अपने में बहुत विनाशक होने के अतिरिक्त बड़े स्तर के प्रदूषण और ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन की भी वजह हैं। अत: वि शांति, युद्धविहीन भविष्य और निशस्त्रीकरण को भी इस विमर्श में जुड़ना चाहिए। दूसरी बड़ी जरूरत यह है कि न्याय, समता और सादगी की व्यापक सोच को जलवायु बदलाव के समाधान से जोड़ा जाए। यदि ऐसा हो तो भटकाव से बच कर हम मूल लक्ष्य से जुड़े रहेंगे। जलवायु बदलाव के कभी-कभी कुछ ऐसे समाधान भी प्रस्तुत कर दिए जाते हैं, जिनसे अन्य और नई गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। एक समस्या को हल करने के लिए नई समस्याओं को उत्पन्न करते जाना समझदारी नहीं है।

जलवायु बदलाव और ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कभी-कभी कहा जाता है कि ऊर्जा आवश्यकता को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर परमाणु ऊर्जा सयंत्र लगाए जाएं पर खनन से लेकर अवशेष ठिकाने लगाने तक परमाणु ऊर्जा में भी खतरे ही खतरे हैं, गंभीर समस्याएं हैं। परमाणु बिजली उत्पादन के साथ परमाणु हथियारों के उत्पादन की संभावना का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है। इसी तरह कुछ लोग कह रहे हैं कि अधिक ऊर्जा पनबिजली परियोजनाओं के बड़े बांध बनाकर प्राप्त की जाए और इस कार्य में तेजी लाई जाए। बांध-निर्माण से जुड़ी अनेक गंभीर सामाजिक और पर्यावरणीय समस्याएं पहले ही सामने आ चुकी हैं।

जलवायु बदलाव के नियंतण्रको प्राय: तकनीकी मुद्दे के रूप में देखा जाता है, ऐसे तकनीकी उपायों के रूप में जिनसे ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम हो सके। यह संकीर्ण नजरिया है। सच है कि अनेक तकनीकी बदलाव जरूरी हैं पर जलवायु बदलाव का मुद्दा इन तक ही सीमित नहीं है। जलवायु बदलाव को नियंत्रित करने के लिए जीवन-शैली में बदलाव जरूरी है, और इसके साथ जीवन-मूल्यों में भी बदलाव जरूरी है,  उपभोक्तावाद का विरोध जरूरी है, विलासिता और नशे का विरोध जरूरी है, युद्ध और हथियारों की दौड़ और होड़ का विरोध करना जरूरी है। पर्यावरण पर बोझ डाले बिना सबकी जरूरतें पूरी करनी हैं, तो न्याय व साझेदारी की सोच जरूरी है, पर्यावरण को क्षति से बचाना है, तो आपसी भागेदारी से कार्य करना जरूरी है।

अत: जलवायु बदलाव नियंतण्रका सामाजिक पक्ष महत्त्वपूर्ण है। लोग तभी बड़ी संख्या में इसके लिए आगे आएंगे जब आम लोगों में, युवाओं और छात्रों में, किसानों और मजदूरों के बीच न्यायसंगत और असरदार समाधानों के लिए तीन-चार वर्षो तक धैर्य से, निरंतरता और प्रतिबद्धता से कार्य किया जाए। पहले भी कहा जाता था कि संसाधन सीमित हैं, उनका सही वितरण करो पर अब तो ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन से जुड़ी कार्बन की भी सीमा है। इस सीमा के बीच में ही हमें सब लोगों की जरूरतों को टिकाऊ   आधार पर पूरा करना है। अत: अब विषमता को दूर करना, विलासिता और अपव्यय को दूर करना, समता और न्याय को ध्यान में रखना, भावी पीढ़ी के हितों को ध्यान में रखना पहले से भी कहीं अधिक जरूरी हो गया है। सही और विस्तृत योजना बनाना इस कारण और जरूरी हो गया है कि ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को तेजी से कम करते हुए ही सब लोगों की बुनियादी जरूरतों को न्यायसंगत ढंग से और टिकाऊ  तौर पर पूरा किया जाए।

बहुत रचनात्मक कार्य और चुनौती हमारे सामने है कि सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हुए साथ-साथ कार्बन सीमा के भीतर रहा जाए। दूसरे शब्दों में, हम ग्रीनहाऊस गैसों में तेज कमी लाते हुए सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकें। अमन-शांति, न्याय और समता, पर्यावरण रक्षा के कार्य एक साथ हो सकें, इनके आंदोलन मिल कर कार्य करें, एक संभावित कार्यक्रम बनाएं तो यह उपलब्धि होगी। वि-स्तर के सभी बड़े पर्यावरण संकटों की बात करें या केवल जलवायु बदलाव की, एक बड़ा सवाल जीवन-पद्धति का है। यदि बड़ी संख्या में मनुष्यों की जीवन-पद्धतियां या इस बारे में सोच पर्यावरण संरक्षण के प्रतिकूल हैं, तो पर्यावरण रक्षा कठिन है। ऐतिहासिक स्तर पर देखें तो सामाजिक-आर्थिक विषमताओं ने जीवन-पद्धति संबंधी सोच को प्रभावित किया।

जब विषमता अधिक होती है, तो उपलब्ध संसाधनों के बड़े हिस्से पर कब्जा कर अपेक्षाकृत कम संख्या के लोग अपना विलासिता और भौतिक सुखों का जीवन अपने लिए और भावी पीढ़ियों के लिए सुनिश्चित कर लेते हैं। चाहे यह जीवन पद्धति अन्याय और अपव्यय पर आधारित हो, पर यह आकषर्क रूप में अन्य लोगों के सामने आ जाती है और अधिकांश लोगों की सोच बनने लगती है कि इसे प्राप्त करने में ही जीवन की बड़ी सफलता है। औपनिवेशिक दौर में वि की थोड़ी सी जनसंख्या वाले देशों ने वि के बड़े हिस्से के संसाधनों पर कब्जा कर लिया और इस आधार पर इन देशों ने ऐसी जीवन पद्धति प्राप्त की जिसे वि भर में आकषर्क माना गया। यह शोषण-दोहन और अन्याय द्वारा ही प्राप्त की गई, इसमें संसाधनों का बहुत अपव्यय हुआ, एक जीवन-शैली का पर्यावरण पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा इन सभी तथ्यों को भूलकर इसका आकषर्ण ही लोगों के सामने आया। उपनिवेशों के उभरने से अभिजात वर्ग ने भी इसी जीवन-शैली की अंधाधुंध नकल की। आगे चल कर वि में जहां-जहां नये अमीर वर्ग का उदय हुआ उसने भी इस जीवन-पद्धति को ही अपनाना चाहा। इस होड़ में यह बुनियादी सवाल पीछे छूट गया कि क्या यह जीवन-पद्धति सामाजिक नैतिकता और न्याय के अनुकूल है, या नहीं तथा क्या यह पर्यावरण रक्षा के अनुकूल है, या नहीं।

चालीस-पचास वर्ष पहले यह सवाल पहली बार उठना शुरू हुआ कि इस जीवन पद्धति के चलते कहीं धरती की जीवन दायिनी क्षमता ही तो खतरे में नहीं पड़ जाएगी। इस तरह के सवाल उठने के बाद भी जीवन पद्धति और इससे संबंधी सोच में किसी बुनियादी बदलाव की जरूरत नहीं समझी गई। दूसरी ओर, तथ्यात्मक स्तर पर यह बात पहले से और प्रमाणित होती जा रही है कि जलवायु बदलाव के संकट सहित पर्यावरण के अधिक व्यापक संकट को समय रहते नियंत्रित करना है तो इसके लिए सादगी, समता, अहिंसा और अमन-शांति के जीवन मूल्यों को अपनाना जरूरी है, और इस आधार पर ही उचित जीवन पद्धति भी तय होनी चाहिए। मिथ्या आकषर्ण वाली जीवन शैली को छोड़कर उस जीवन-शैली को केंद्र में लाना होगा जो मनुष्य की सभी जरूरतों को पूरा करते हुए भौतिक साधन-सुविधाओं की अंधाधुंध होड़ से बची रहे, जिसमें दूसरों के प्रति न्याय के लिए उचित स्थान हो तथा जो अंतहीन लालच और उससे जुड़ी हिंसा व आक्रामकता से मनुष्य को बचाए। इस व्यापक सोच को ध्यान में रखते हुए ही पर्यावरण रक्षा के तकनीकी मसलों जैसे जीवाश्म ईधन को न्यूनतम करने जैसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य की संतुलित सोच बढ़ सकेगी।

भारत डोगरा


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