मुद्दा : शीतकाल में भी जल रहे हैं जंगल

Last Updated 30 Dec 2023 01:27:49 PM IST

दिसम्बर 19, 2023 को उत्तरकाशी में स्थित मातली गांव के पश्चिम दिशा से धुएं का जैसा एक बड़ा गुब्बर फैलता नजर आ रहा था। पहले तो यह देखकर आशंका पैदा हो गई कि उस तरफ आइटीबीपी का भी सेंटर है।


मुद्दा : शीतकाल में भी जल रहे हैं जंगल

हो सकता है कि कोई विमान उतर रहा होगा, लेकिन 2 घंटे के अंदर ही स्थिति ऐसी हो गई की धुएं का यह विशाल गोला लगभग 8 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित चौरंगीखाल से लेकर भागीरथी नदी के किनारे 5 हजार फीट की ऊंचाई पर बसे मातली गांव के बीच में ऐसा भयानक दृश्य पैदा हो गया कि इस धुएं के गोले ने सूर्य की रोशनी को भी धरती पर धुंधला कर दिया।
किसी से पूछा तो पता चला कि यह आग लगाई गई है, जिसके कारण जंगल जल रहा है। फिर सोचा कि जंगल तो पश्चिम की तरफ जल रहा था, लेकिन इतनी जल्दी ही पूरब दिशा की ओर ऊंचाई के जंगल में आग कैसे पहुंच गई है?

कुछ लोगों ने कहा कि गांव वालों ने लगाई है, लेकिन सोचा कि हो सकता है कि गांव के नजदीक किसी ने लगाई भी होगी परंतु 8 हजार फीट  की ऊंचाई पर जाकर गांव वालों ने लगभग 30 किलोमीटर क्षेत्र में अभी-अभी कैसे आग फैला दी। यह बात समझ से परे थी। अब यह आग इतनी विकराल हो गई है कि पूरा उत्तरकाशी जिला धुंध के साये में है। सूर्य की रोशनी धरती पर पूरी तरह नहीं पहुंच पा रही है। आसमान से बारिश के कोई आसार नहीं हैं। जंगल इतनी तेजी से जल रहे हैं कि धुआं बढ़ने से आग के गोले भी पूरी तरह नहीं दिखाई दे रहे हैं। सुबह जब उठना है तो राख के ढेर घर की छत और आंगन में फैली हुई है। नाक के अंदर धुआं जा रहा है। सांस की तकलीफ वाले लोगों की परेशानियां बढ़ रही है।

ऐसा महसूस हो रहा है कि किसी जमाने में जब घर में लकड़ी से खाना बनाते थे तो चूल्हे में जलने वाली आग का धुआं नाक और आंख तक पहुंचता था। आंसू भी आ जाते थे। यही स्थिति उत्तरकाशी में पिछले दिनों से बनी हुई है। जंगल में लगी आग के लिए कौन और किसको दोषी माना जा रहा है, पूरी तरह कोई कुछ कहने को तैयार नहीं है। वास्तव में आग लगने की यह कोई नई घटना नहीं है।

इसी तरह से हर बार अकस्मात एक पहाड़ी की चोटी पर आग का धुआं पैदा होता है जो धीरे-धीरे घाटी तक पहुंच जाता है। गांव के नजदीक के जंगल से लेकर हिमालय के ऊंचे से ऊंचे यहां तक कि ग्लेशियर के निकट भी आग फैलती हुई दिखाई देती है। पिछले 40 वर्षो से आग लगने की घटनाएं तेजी से सामने आ रही हैं, जिनका कोई समाधान वन विभाग के पास तो नहीं ही है, लेकिन शासन-प्रशासन को गंभीरतापूर्वक इस संवेदनशील विषय पर जो कार्यवाही करनी चाहिए थी, वह भी नहीं है। हर बार जब भी आग लगाई जा रही है, तो उसमें सबसे पहले तो लोगों को ही दोषी बताया जाता है, लेकिन आग लगने की घटनाओं से अनुभव आता है कि अधिकांश समय में आग ऊंचे पहाड़ से होते हुए घाटी की ओर फैलती दिखाई देती है जो बहुत ही चिंतनीय है कि इतनी ऊंचाई पर कौन जाकर आग लगा देता है। किसी को दोषी बनाया जाता है तो उसकी फाइल का वहीं पर अंत हो जाता है। यह जरूर है कि जंगल में आग लगने के बाद वन निगम को सूखे, सिरटूटे और जड़पट पेड़ों के नाम पर वनों का कटान करने में परेशानी नहीं झेलनी पड़ती।

वनों में आग लग गई तो वन विदोहन के रास्ते खुल जाते हैं। वन विभाग से वन निगम के लिए अग्नि प्रभावित वन क्षेत्र में जाकर सूखे हुए पेड़ तो बहुत दिखाई देने लगते हैं। इसका निस्तारण करने के लिए वन निगम को लॉट आवंटित किए जाते हैं, जिसका कोई विरोध भी नहीं कर सकता है, लेकिन कोरोना कल से लेकर के अब तक देखा गया है कि जब लोग कोरोना के डर से घरों में थे, तो उस दौरान भी जंगल माफिया ने बड़े स्तर पर पहाड़ी इलाकों में जंगलों का अवैध दोहन किया। हरे पेड़ों का अंधाधुंध कटान किया। इसकी शिकायत वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में भी की गई, जिन्होंने कई बार उत्तराखंड के प्रमुख सचिव (वन) को आदेश किया है कि वन कटान के दोषियों को सजा दी जाए लेकिन आज तक जितनी भी जांच हुई हैं, उनकी पूरी तरह सूचना तक सामने नहीं आई है। दूसरी बात यह है कि हर साल वृक्षारोपण हो रहा है। करोड़ों पेड़ लगाने की राज्य सरकारों की योजना जारी रहती है।

वष्रात में लगाए गए पेड़ पौधे शीतकाल से जलने शुरू हो जाते हैं। जब तक बारिश नहीं होती है तब तक जलते रहते हैं। फिर 5 जून वि पर्यावरण दिवस के दिन से उन्हीं स्थानों पर हर नए पेड़ लगाते हैं। अत: जंगल जलने और वृक्षारोपण का चक्र चलता रहता है और उत्तरकाशी और उत्तराखंड के जंगलों में फैली यह आग बढ़ती ही जा रही है। जैव विविधता धू-धूकर जल रही है। पहले शीतकाल में पर्याप्त बर्फ  और बारिश होती थी तो आग जंगलों में दिखाई भी नहीं देती थी। अब जहां सारी दुनिया के लोग पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षों की अहम भूमिका पर चर्चा कर रहे हैं वहीं जंगलों की इस दुर्दशा से कैसे पर्यावरण की रक्षा हो सकेगी, यह प्रश्न हर साल लग रही आग से पैदा हो रहा है? इसके समाधान के लिए राज-समाज को मिलकर काम करना चाहिए। वनों की परंपरागत व्यवस्था को को लौटाने की आवश्यकता है।

सुरेश भाई


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