निकाय चुनाव मतदान : पीछे रह गए बड़े शहर

Last Updated 18 May 2023 01:42:36 PM IST

दिल्ली (Delhi) से सटे गाजियाबाद (Ghaziabad) का ऊंची इमारतों वाला एक इलाका है क्रोसिंग रिपब्लिक। यहां 29 हाऊसिंग सोसायटी हैं।


निकाय चुनाव मतदान : पीछे रह गए बड़े शहर

साक्षरता दर लगभग शत प्रतिशत। यहां कुल 7358 मतदाता पंजीकृत हैं। उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में दूसरे चरण के नगर निगम चुनाव में इनमें से महज 1185 लोग वोट डालने गए। कोई 16 फीसदी मात्र। वैसे तो पूरे नगर निगम क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या किसी लोक सभा सीट से कम नहीं है 15 लाख 39 हजार 822, लेकिन इनमें से भी 36. 81 प्रतिशत लोग ही वोट डालने पहुंचे। यहां से विजेता मेयर पद की प्रत्याशी को 350905 वोट मिले अर्थात कुल मतदाताओं के महज 22 फीसदी की पसंद की मेयर।  

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकायों  के चुनाव में दो चरणों में संपन्न 17 नगर निगमों के चुनाव का मतदान बेहद निराशाजनक रहा। अयोध्या (Ayodhya) में मतदान हुआ- 47.92 प्रतिशत और विजेता को इसमें से 48.67 प्रतिशत वोट ही मिले। बरेली 41.54 वोट गिरे और विजेता को उसमें से भी साढ़े सैतालिस प्रतिशत मत मिले। कानपुर (Kanpur) में 41.34 प्रतिशत मतदान हुआ और विजेता को उसका भी 48 प्रतिशत मिला। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ  (Yogi Adityanath) के शहर गोरखपुर (Gorakhpur) में तो मतदान 34.6 प्रतिशत ही हुआ और विजेता को इसका आधा भी नहीं मिला। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस (Banaras) के शहर के मात्र 38.98 लोग वोट डालने निकले और मेयर बन गए नेता जी को इसका 46 प्रतिशत मिला। देश की सियासत का सिरमौर रहे इलाहाबाद अर्थात प्रयागराज (Prayagraj) में तो मतदान महज 31.35 प्रतिशत रहा और इसमें से भी 47 प्रतिशत पाने वाला शहर का मेयर हो गया।

राजधानी लखनऊ (Lucknow) के हाल तो और भी बुरे रहे, वहां पड़े-मात्र 35.4 प्रतिशत वोट और विजेता को इसमें से मिले 48 प्रतिशत। सभी 17 नगर निगम में सहारनपुर (Saharanpur) के अलावा कहीं आधे लोग भी वोट डालने नहीं निकले और विजेता को भी लगभग इसका आधा या उससे भी कम मिला।

जाहिर है विजयी मेयर भले ही तकनीकी रूप से बहुमत का है, लेकिन ईमानदारी से शहर के अधिकांश लोगों का प्रतिनिधित्व करता ही नहीं। गौर करने वाली बात है जो शहर जितना बड़ा है, जहां विकास और जन सुविधा के नाम पर सरकार के बजट का अधिक हिस्सा खर्च होता है, जहां साक्षरता दर, प्रति व्यक्ति आय आदि औसत से बेहतर हैं, वहीं के लोग वोट डालने नहीं निकले। विदित  हो कि उत्तर प्रदेश में कुल 17 नगर  निगम में 1420  वार्ड हैं, जिनमें मतदाताओं की संख्या एक करोड़ नब्बे लाख सत्तासी हजार सात सौ चौतीस (1,90,87734) है, जो देश के कई राज्यों से अधिक है। नगर पालिकाओं की संख्या 199 है, जिनमें 5327 वार्ड और एक करोड़ 79 लाख 1176 मतदाता हैं। नगर पंचायतों की संख्या 544, इनमें वाडरे की संख्या 7177 और मतदाताओं की संख्या 93,50541 है।

पहले चरण में नौ मंडलों में कुल 390 स्थानों पर चुनाव हुए। सर्वाधिक निराशा महानगरों में मतदान को लेकर है, जो लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। भले ही कुछ लोग जीत जाएं लेकिन वे कुल मतदाता के महज पंद्रह से बीस प्रतिशत लोगों के ही प्रतिनिधि होंगे। यह भी समझना  होगा कि जिन बड़े शहरों में कम मतदान हो रहा है, वहां विकास के नाम पर सबसे अधिक सरकारी धन लगाया जाता है, और अधिक मतदान वाले छोटे कस्बे गंदगी, नाली जैसी मूलभूत सुविधाओं पर भी मौन रहते हैं। एक बारगी आरोप लगाया जा सकता है कि पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग घर बैठ कर लोकतंत्र को कोसता तो है, लेकिन मतदान के प्रति उदासीन रहता है। विचारणीय है कि क्या वोट न डालने वाले आधे से अधिक प्रतिशत से ज्यादा लोगों की निगाह में चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवार या मौजूदा चुनाव व्यवस्था नालायक थी?

जिन परिणामों को राजनैतिक दल जनमत की आवाज कहते रहे हैं, ईमानदारी से आकलन करें तो यह सियासी सिस्टम के खिलाफ अविास  मत था। जब कभी मतदान कम होने की बात होती है, तो प्रशासन और राजनैतिक दल अधिक गरमी या, छुट्टी न होने जैसे कारण गिनाने लगते हैं लेकिन इस बार तो मौसम भी सुहाना था। कड़वे सच को सभी राजनेताओं को स्वीकारना होगा कि मत देने न निकलने वाले लोगों की बड़ी संख्या उन लोगों की है, जो स्थानीय निकायों की कार्य प्रणाली से निराश और नाउम्मीद हैं। यह भी दुखद पहलू है कि आम लोग नहीं जानते कि स्थानीय निकाय के प्रतिनिधि से उन्हें क्या उम्मीद है, और विधायक व सांसद से क्या। वे सांसद से सड़क, नाली की बात करते हैं, और पाषर्द चुनाव में पाकिस्तान को मजा चखाने के भाषण सुनते हैं।

एक बात और, हजारों लोग सड़क पर ऐसे मिले जिन्होंने लोक सभा और विधानसभा में वोट डाला, उनके पास मतदाता पहचान पत्र हैं, लेकिन उनके नाम स्थानीय निकाय की मतदाता सूची में थे ही नहीं। मतदाताओं की बढ़ती संख्या के साथ-साथ उम्मीदवारों की संख्या अधिक हो रही है, लेकिन  इसकी तुलना में नये मतदान केंद्रों की संख्या नहीं बढ़ी है। मतदाता सूची में नाम जुड़वाना जटिल है, और उससे भी कठिन है मतदाता पहचानपत्र पाना। एक आंकड़े को बारीकी से देखें तो मतदाता सूची तैयार करने या उसमें नाम जोड़ने में आने वाली दिक्कतों का आकलन हो सकता है।

उत्तर प्रदेश में नगर निगम वाले 17 शहरों में पुरुष मतदाता तो एक करोड़ 27 हजार 203 हैं, लेकिन महिला मतदाताओं की संख्या है महज 88 लाख 17 हजार 531-बड़े शहरों में इतना अधिक लैंगिक विभेद का आंकड़ा होता नहीं, लेकिन स्पष्ट है कि महिला मतदाता के पंजीयन के काम में उदासी है। चुनाव से बहुत पहले बड़े-बड़े रणनीतिकार मतदाता सूची का विश्लेषण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज या इलाके के वोट चाहिए ही नहीं यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। चुनाव लूटने के ये हथकंडे कारगर हैं, क्योंकि चाहे एक वोट से जीतो या पांच लाख वोट से, दोनों के ही सदन में अधिकार बराबर होते हैं।

नगरीय निकायों में कुल मतदान और जीत के अंतर के हिसाब से इलाके की जनसुविधा और पाषर्द की हैसियत तय करने का कानून आए तो प्रतिनिधि न केवल मतदाता सूची में लोगों के नाम जुड़वाएंगे, बल्कि मतदाता को वोट डालने के लिए भी प्रेरित करेंगे। राजनैतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि मतदान अधिक हो क्योंकि इसमें उनके सीमित वोट बैंक के अल्पमत होने का खतरा बढ़ जाता है। वस्तुत: हमारा लोकतंत्र अपेक्षाकृत आदर्श चुनाव पण्राली की बाट जोह रहा है, जिसमें मतदाताओं का पंजीयन हो और मतदान ठीक तरीके से होना सुनिश्चित हो सके।

पंकज चतुर्वेदी


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