किसान संकट : पिछड़े क्षेत्रों में समाधान
हाल के वर्षो में किसानों का बढ़ता संकट देश के अनेक भागों में किसी न किसी संदर्भ में चर्चित रहा है।
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प्राय: इसके समाधानों की चर्चा अधिक विकसित क्षेत्रों के संदर्भ में ही होती है, पर हाल के समय में अनेक पिछड़े माने जाने वाले क्षेत्रों से भी ऐसे उदाहरण मिले हैं, जहां पर्यावरण की रक्षा वाली खेती, कम खर्च की खेती और प्राकृतिक खेती से बहुत अच्छे परिणाम मिले हैं। प्राकृतिक खेती के विषय में प्राय: कहा जाता है कि चाहे यह पर्यावरण रक्षा में कितनी ही सफल हो पर उत्पादन उच्च स्तर पर बनाए रखने में सफल नहीं है। बस, यहीं पर बात ठहर जाती है पर सच्चाई यह है कि जब प्राकृतिक खेती पूरी निष्ठा और सावधानी से की जाती है, तो यह पर्यावरण की रक्षा करने के साथ-साथ उत्पादन उच्च स्तर पर रखने में भी समर्थ है।
हाल में (जनवरी-फरवरी, 2023) इस लेखक ने तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश) के 7 जिलों के 28 से ज्यादा ऐसे गांवों का दौरा किया जहां बीते एक दशक से प्राकृतिक खेती के प्रसार के प्रयास हो रहे हैं। लेखक ने 270 से ज्यादा ऐसे किसानों विशेषकर महिला और छोटे किसानों, से बातचीत की जो प्राकृतिक खेती को या तो पूर्णत: या आंशिक तौर पर अपना चुके हैं। इनमें से किसी ने भी नहीं कहा कि प्राकृतिक खेती अपनाने से उन्हें क्षति हुई है, या वे इसे छोड़ना चाहते हैं। हां, अनेक किसानों (लगभग आधे किसानों) ने यह अवश्य कहा कि प्राकृतिक खेती अपनाने के आरंभिक दौर में कठिनाई जरूर आई और उत्पादन में कुछ कमी आई पर साथ ही यह भी कहा कि यह कठिन दौर वे जल्द ही पार कर गए या कर रहे हैं। अब उत्पादन पहले जितना या अधिक है। सभी किसानों ने एक स्वर में कहा कि फसल (चाहे अनाज हो या सब्जी-फल) की गुणवत्ता पहले से बेहतर है। अनेक किसानों ने यह भी कहा कि इस बेहतर गुणवत्ता की फसल की कीमत अधिक मिल रही है, अत: उत्पादन कुछ कम होने पर भी आय बढ़ी है। कुछ किसानों ने प्राकृतिक खेती अपनाने के बाद उल्लेखनीय उत्पादन वृद्धि के विषय में भी बताया। एल्हा गांव (ब्लॉक मानिकपुर, जिला चित्रकूट) में तालाब की वर्षो से जमा मिट्टी को निकाला गया। तालाब की जल-संग्रहण क्षमता बढ़ी, उधर बाहर निकाली गई बेहद उपजाऊ मिट्टी को किसानों के खेतों में पहुंचाया गया। तालाब में वर्ष भर पानी रहने लगा, सिंचाई बेहतर हुई, पशु-पक्षियों को भी राहत मिली। इस तरह धरती में पानी का रिचार्ज बढ़ा, कुओं में भी बेहतर पानी प्राप्त होने लगा और पेयजल का संकट कम हुआ।
इस बेहतर स्थिति का श्रेय जाता है समाज सेवा संस्थान और सृजन संस्थाओं के एक कार्यक्रम को जिसमें जल-संरक्षण और प्राकृतिक खेती का सुंदर समागम है। रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के स्थान पर किसानों ने इस कार्यक्रम में गोबर और गोमूत्र का बेहतर से बेहतर उपयोग कर भूमि के प्राकृतिक उपजाऊ पन को बढ़ाने और फसल की कीड़ों, बीमारियों से रक्षा करने का भरपूर प्रयास किया। राम बिशुन यादव और शिव अवतार यादव जैसे किसान और सामाजिक कार्यकर्ता गजेन्द्र विास से कहते हैं कि उनका उत्पादन बढ़ा है। उन्होंने हिसाब-किताब लगा कर बताया कि मौसम ठीक रहे तो इन प्रयासों के मिले-जुले असर से 1 बीघा में गेहूं का उत्पादन 2 से 4ंिटल हो रहा है यानी 4000 से बढ़कर 8000 रुपये गेहूं का उत्पादन हो रहा है। प्राकृतिक खेती में रासायनिक खाद और कीटनाशक दवा का उपयोग न होने से प्रति बीघा खर्च में 2200 रुपये की बचत हो रही है। भूसा अधिक प्राप्त होने से 1000 रुपये प्रति बीघे का लाभ भी प्राप्त हो रहा है। इस तरह प्रति बीघे 7200 रुपये का लाभ होने से किसानों की स्थिति में बहुत फर्क आया है, जो प्रयासों का मिला-जुला परिणाम है और इसमें किसान संकट का समाधान नजर आ रहा है। जिन्होंने बहु-स्तरीय सब्जी उत्पादन को अपनाया है, उन्हें और भी अधिक लाभ की संभावना नजर आ रही है। इसी प्रखंड के सकरौंहा गांव की सरिता और राजबोहर ऐसी ही समृद्ध सब्जी की खेती के लिए जाते हैं। उन्होंने ऐसी बहुस्तरीय बागवानी को अपनाया है, जिसमें वैज्ञानिक मिश्रित पद्धति से छोटी वाटिका में अनेक सब्जियों को इस तरह उगाया जाता है, जिससे पौधे एक-दूसरे के पूरक, सहायक और रक्षक हों। इस कार्यक्रम के अंतर्गत सरिता प्राकृतिक कृषि केंद्र का संचालन भी करती हैं, जिसमें गोबर और गोमूत्र की प्राकृतिक खाद और प्राकृतिक फसल रक्षा दवा का अतिरिक्त उत्पादन भी किया जाता है ताकि अन्य किसान आवश्यकता होने पर सस्ती दर पर यहां से खाद्यान्न प्राप्त कर सकें।
राजबोहर, रामनिवास जैसे सब्जी उत्पादक, जो स्वयं बाजार में बिक्री के लिए जाते हैं, बताते हैं कि प्राकृतिक विधि से लगाई गई सब्जी की सहज बिक्री अच्छी कीमत पर हो जाती है और इसे बेचने वालों को बाजार में विशेष पहचान प्राप्त होती है। अपने घरेलू अनुभव के आधार पर महिलाएं बताती हैं कि जब से प्राकृतिक खेती के उत्पाद खा रहे हैं, बीमारियां कम हो गई हैं, स्वास्थ्य बेहतर हो गया है और भोजन परिवार में सभी को अधिक स्वादिष्ट लगता है। पकाने पर ये सब्जियां जल्दी पकती हैं और ईधन की भी बचत होती है। सकरौंहा में भी शुरुआत वासुदेव पोखरा तालाब की सफाई से आरंभ हुई और इस जल-संरक्षण और उपजाऊ मिट्टी की उपलब्धि ने प्राकृतिक खेती के लिए अच्छी नींव तैयार की है। कुछ यही स्थिति गिदुरहा गांव की भी है। यहां के अनुभवी किसान पी एम चरण कहते हैं कि इस कार्यक्रम के कारण ही वे वृद्धावस्था में भी नये सिरे से कृषि की ओर आकषिर्त हुए। चरण ने सब्जी, फल, अनाज, दलहन उत्पादन सभी में रुचि ली है। राम वाह कुशवाहा के परिवार के पास चूंकि 100 गाय हैं, अत: गोबर आधारित खेती तो वे पहले भी करते थे पर इस कार्यक्रम ने गोबर और गोमूत्र के बेहतर उपयोग से उत्पादन वृद्धि में सहायता की।
कार्यक्रम के अनेक गांवों में ऐसे ही उत्साहवर्धक परिणाम नजर आ रहे हैं जिससे प्रतीत होता है कि जल संरक्षण और प्राकृतिक खेती के सुंदर संगम से लागत बहुत कम करते हुए भी उत्पादन वृद्धि या उत्पादन पहले जैसा बनाए रखने की संभावना अनेक किसानों के खेतों पर नजर आ रही है। अब इन प्रयासों को प्रशासन और सरकार का व्यापक समर्थन और सहयोग देते हुए अधिक प्रसारित किया जा सकता है। ये प्रयास बेहद रचनात्मक रहे हैं और किसानों विशेषकर महिला किसानों ने इन्हें आगे बढ़ाने में बेहद रचनात्मक संभावनाओं का परिचय दिया है, जिससे इनके प्रति उम्मीद और बढ़ती है।
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