Atiq Episode : व्यवस्था बदलने से होगा सुधार

Last Updated 26 Apr 2023 01:38:19 PM IST

उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में अतीक अहमद (Atiq Ahmed) के चार दशक से भी लंबे माफिया आंतक का अंत सबसे सामने है। किसी सही व्यक्ति की अपराधी से हमदर्दी नहीं हो सकती, पर संविधान में इसके लिए बाकायदा कानून और न्याय व्यवस्था है।


अतीक प्रकरण : व्यवस्था बदलने से होगा सुधार

असद और अतीक प्रकरण (Asad and Atiq Episode)में उस व्यवस्था का कितना पालन हुआ? इसका पता शायद जांच समितियों की रिपोर्ट से चल पाए, पर किसी छुटभैये गुंडे को माफिया फिर माननीय बनाने वाली व्यवस्था से जुड़े अहम सवालों का जवाब ज्यादा जरूरी है।

13 अप्रैल को उसके बेटे असद (Asad) की शूटर गुलाम (Shooter Gulam) समेत पुलिस मुठभेड़ (Police Encounter) में मौत और फिर 15 अप्रैल की रात पुलिस कस्टडी (Police Custody) में अतीक एवं उसके भाई अशरफ की हत्या को फरवरी के अंत में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की विधानसभा में टिप्पणी: माफिया को मिट्टी में मिला देंगे, से जोड़ कर भी देखा जा रहा है। मुख्यमंत्री ने वह टिप्पणी तब की थी, जब राजू पाल हत्याकांड (Raju Pal murder case) के गवाह उमेश पाल (Umesh Palकी दिन दहाड़े हत्या (Umesh Pal's murder in broad daylight) के बाद विपक्ष राज्य में कानून व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठा रहा था। किसी मुख्यमंत्री द्वारा ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति जताने में कुछ भी गलत नहीं है, बशर्ते पुलिस ने उसे कुछ भी करने की खुली छूट न मान लिया हो। पुलिस निरंकुशता एक कड़वी वास्तविकता है, जिसकी कहानियां सिर्फ उत्तर प्रदेश नहीं, पूरे देश में अनिगनत हैं। बहुत पहले ही एक न्यायाधीश ने पुलिस को वर्दीधारी गिरोह करार दिया था।

फर्जी मुठभेड़ मामलों में पुलिस को सजा के उदाहरण भी बताते हैं कि एक बार निरंकुश हो जाने के बाद वह सही-गलत में विवेक का इस्तेमाल नहीं करती, बल्कि राजनीतिक आकाओं को खुश करने या फिर अपने निहित स्वाथरे की पूर्ति में तमाम हदें पार कर जाती है। कभी किसी अपराधी की गाड़ी पलट जाती है तो कभी किसी की मोटरसाइकिल फिसल जाती है। अकसर अपराधी को पकड़ने या खुद को बचाने के लिए चलाई गई पुलिस की गोली ऐसी जगह ही लगती है कि जानलेवा हो। अतीक-अशरफ के मामले में तो हद हो गई। पुलिस देर रात दोनों को मेडिकल कराने अस्तपाल ले गई, क्योंकि उन्होंने तबीयत ठीक न होने की शिकायत की थी। इस कहानी से उठने वाले सवाल अनुत्तरित हैं।

मसलन, अतीक-अशरफ ने तबियत ठीक न होने की बात पुलिस को बताई तो ऐसे खतरनाक अपराधी, जिसने अपनी हत्या की आशंका जता रखी हो, और पुलिस को भी आशंका हो कि उसे छुड़ाने की कोशिश की जा सकती है, को देर रात इतनी कम सुरक्षा में अस्पताल ले जाने के बजाय डॉक्टर को ही क्यों नहीं बुलाया गया? अतीक-अशरफ को अस्पताल ले जाया जा रहा है, इसकी सूचना मीडिया और मीडिया के वेष में पहुंचे हत्यारों को कैसे मिली? अतीक-अशरफ को मीडिया से बात करने के लिए आगे छोड़ ज्यादातर पुलिसकर्मी पीछे क्यों हट गए? जब हत्यारों ने अतीक-अशरफ पर नजदीक से गोलियां चलाई तो पास मौजूद पुलिसकर्मी उन्हें बचाने के बजाय खुद को बचाते हुए और पीछे क्यों हट गए? घटना के वीडियो में साफ दिख रहा है कि हत्यारों द्वारा आत्मसमर्पण के अंदाज में हाथ ऊपर कर दिए जाने तक उन्हें पकड़ने की कोई कोशिश नहीं की गई।

अब असल सवाल पर आते हैं। कोई भी गुंडा रातों-रात इतना बड़ा माफिया नहीं बन जाता कि समानांतर व्यवस्था चलाने लगे। अतीक भी अचानक इतना बड़ा अपराधी नहीं बन गया था। घटनाक्रम बताता है कि तब के इलाहाबाद, और अब के प्रयागराज, के छुटभैये गुंडे अतीक को पुलिस ने ही तत्कालीन बड़े गुंडे चांद बाबा के मुकाबले शह दी। उसीके चलते अतीक के मंसूबे और हौसले बढ़ते गए। वह निर्दलीय विधायक बना और एक दिन चांद बाबा की दिन दहाड़े चौराहे पर हत्या हो गई।

इलाहाबाद पश्चिमी सीट से अतीक तीन बार निर्दलीय विधायक बना तो उसके लिए मतदाताओं की शोध का विषय है, लेकिन फिर उसे राजनीतिक संरक्षण देने की शर्मनाक कहानी तो सबके सामने है। यह भी कि आतंक के सहारे राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने के लिए माफिया को माननीय विधायक/सांसद बनाने तक में हमारे राजनीतिक तंत्र ने संकोच नहीं किया। नतीजतन अतीक और उसका अपराधी कुनबा कानून राज के लिए तो खुली चुनौती बन ही गया, जब-तब खुद उन राजनेताओं के लिए भी मुश्किलें खड़ी करता रहा, जिन्होंने उसे पाला-पोसा। किस-किस दल और नेता ने अतीक को बड़ा माफिया और फिर माननीय बनाने में भी योगदान दिया-वह तो जगजाहिर है। इसके अलावा जिस कालखंड में अतीक इतना बड़ा माफिया और फिर माननीय विधायक/सांसद बना, उस दौर में जिन दलों की उत्तर प्रदेश में सरकारें रहीं वे भी अपनी जिम्मेदारी-जवाबदेही से मुक्त नहीं हो सकते।

यह सच है कि अतीक के बुरे दिन उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनने के बाद शुरू हुए, पर राज्य में भाजपा सत्तारूढ़ तो उससे पहले भी कई बार रही? आखिर व्यवस्था को व्यक्ति केंद्रित क्यों होना चाहिए? पुलिस-प्रशासन तंत्र को संविधान के मुताबिक बिना राग-द्वेष के अपने दायित्व को अंजाम देना चाहिए-और वैसा करते हुए राजनीतिक नेतृत्व के भी अनुचित दबाव को दरकिनार कर देना चाहिए, क्योंकि वह अकसर अपने तात्कालिक स्वाथरे से संचालित होता है। योगी राज में पुलिस मुठभेड़ की घटनाओं में जबर्दस्त वृद्धि पर उठते सवाल अब जांच की मांग के रूप में सर्वोच्च अदालत भी पहुंच गए हैं। बेशक कानून-व्यवस्था बनाए रखना सरकार और पुलिस की संवैधानिक जिम्मेदारी है। यह काम छुटभैये गुंडों के बड़े बनने से पहले ही उन पर अंकुश लगा कर करना चाहिए। उनके माफिया और राजनीतिक मुद्दा बनने का इंतजार नहीं करना चाहिए।

यह सबक इसलिए भी जरूरी है कि अतीक पहला माफिया नहीं था। हमारे व्यवस्था तंत्र से लगता है कि वह आखिरी माफिया भी साबित नहीं होगा, क्योंकि सिर्फ  उत्तर प्रदेश नहीं, शेष देश में भी राजनीति-पुलिस-अपराध के नापाक गठजोड़ से पनपे माफियाओं की फेहरिस्त काफी लंबी है। जिस बसपा विधायक राजू पाल की हत्या का उमेश पाल गवाह था, वह भी हिस्ट्रीशीटर ही था। कभी वह अतीक का गुर्गा भी रहा। अपराधी के खात्मे के लिए उसके मुकाबले अपराधी खड़ा करने वाली व्यवस्था सकारात्मक और शांतिपूर्ण समाज नहीं बना सकती। इस व्यवस्था का खात्मा भी जरूरी है।
 

राज कुमार सिंह


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