विश्लेषण : जनजाति कानून में संशोधन हाे
लगातार घटती घटनाओं के कारण कुछ ऐसे आंदोलन सुर्खियां नहीं बनते जिन्हें वास्तव में चर्चा में होना चाहिए।
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अलग-अलग राज्यों के स्थानीय अखबारों और टीवी चैनलों को देखें तो जनजातियों यानी आदिवासियों के बड़े-बड़े सम्मेलन हो रहे हैं। आदिवासी शब्द पर विवाद रहे हैं क्योंकि यह भारतीय इतिहास के अनुकूल नहीं है। इसके लिए ‘जनजाति वनवासी’ शब्द उपायुक्त है। पूरे देश में इन दिनों जनजाति सुरक्षा मंच द्वारा डीलिस्टिंग आंदोलन चलाया जा रहा है। डीलिस्टिंग का अर्थ क्या है?
संविधान के अनुच्छेद 342-जो अनुसूचित जनजाति के लिए है-उनसे धर्म परिवर्तन करने वालों को बाहर कर दिया जाए। आप अनुसूचित जनजाति की सूची यानी लिस्ट में तभी तक हैं जब तक धर्म नहीं बदला है। जैसे ही आपने धर्म बदला, आपको अनुसूचित जनजाति की सूची से डीलिस्ट यानी बाहर कर दिया जाएगा। इस आंदोलन की रैलियों में उपस्थिति को देखें तो पता चलेगा कि इसे व्यापक समर्थन प्राप्त है। अनुसूचित जनजाति से जुड़े सभी राज्यों की राजधानियों में भी महारैली का आयोजन जनजाति सुरक्षा मंच कर रहा है। जिन लोगों ने अनुसूचित जनजाति के रोजगार, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक स्थिति पर अध्ययन किया है उनका निष्कर्ष यही है कि ए और बी श्रेणी की ज्यादातर नौकरियां धर्मातरित ईसाई समुदाय को मिली है। आम अनुसूचित जनजाति के लोग दूसरा धर्म अपनाने के कारण अधिकारों से वंचित हैं।
धर्मांतरित होते हुए भी अनुसूचित जाति का दर्जा पाने वाले लोग प्रभाव से दूसरों को भी अपने धर्म में लाने की कोशिश करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 341 अनुसूचित जाति से संबंधित है। इसमें धर्मातरित होते ही संबंधित व्यक्ति को अनुसूचित जाति की सूची से बाहर कर दिया जाता है। यही प्रावधान अनुच्छेद 342 में नहीं है। मांग यही है कि 342 को भी 341 की तरह संशोधित कर दिया जाए। गहराई से देखें तो इस मांग को स्वीकारने में समस्या नहीं है। जाति की व्यवस्था हिंदू समाज में है। अगर कोई ईसाई या इस्लाम या अन्य धर्म अपनाता है तो उसके साथ उसकी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार संवैधानिक व्यवहार किया जाना चाहिए। जनजातियों के सामने इनसे समस्याएं पैदा हुई हैं, जनजाति सुरक्षा मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, अन्य संगठनों के प्रचार से व्यापक जन जागरण भी हुआ है और वे संघर्ष में शामिल हो रहे हैं। हालांकि यह आंदोलन 2003 से ही आरंभ हो गया था। 2006 में ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ की स्थापना के बाद आंदोलन तेज हुआ। 2009 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को 28 लाख हस्ताक्षरों का ज्ञापन दिया गया, जिसमें सरकार से संविधान में संशोधन कर डीलिस्टिंग की मांग की गई। 30 अक्टूबर, 2018 को कार्तिक उरांव की जयंती पर जिलाधिकारियों को निवेदन किया गया। पिछले वर्ष जनजाति सुरक्षा मंच ने लोक सभा एवं राज्य सभा के सांसदों के बीच अभियान चलाया और 450 सांसदों से भेंट कर यह विषय रखा। इसके बाद कई सांसदों ने दोनों सदनों में इस विषय को उठाया भी।
इसके समानांतर आंदोलन के दूसरे चरण में देश के जनजातीय बाहुल्य 230 जिलों में सुरक्षा मंच ने रैलियों का आयोजन किया। छत्तीसगढ़, झारखंड, राजस्थान, गुजरात, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, पूर्वोत्तर, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और केरल में 10 लाख से अधिक जनजाति समाज के लोगों ने इनमें भागीदारी की। आंदोलन गांव टोलों तक पहुंच चुका है। देश में लगभग 11 करोड़ जनजाति समाज की आबादी है। इनमें अपनी संस्कृति, परंपराओं, मान्यताओं, श्रद्धा, धर्म आदि को बचाकर रखने वाले धर्मातरित लोगों के कारण आर्थिक-सामाजिक-विकास में पिछड़ते जा रहे हैं। मूल जनजाति तथा धर्मातरितों के बीच संघर्ष और टकराव भी सामने आते हैं। देखा जाए तो धर्मातरित लोग जनजाति कहलाए ही नहीं जाने चाहिए। धर्मातरित ईसाइयों को आरक्षण का लाभ मिलने के कारण जनजाति समाज में विषमता बढ़ी है। अध्ययन यह भी बताता है कि केंद्र सरकार की एक श्रेणी की नौकरियों का ज्यादा लाभ पूर्वोत्तर के ईसाई बहुल राज्यों को ही मिला है। आबादी कम होने के बावजूद ज्यादातर नौकरियां इनके हिस्से जा रही है। इसका कारण समझना कठिन नहीं है। मध्य भारत के राज्यों की जनजातियां आबादी में कई गुना अधिक होने के बावजूद सरकारी नौकरियों में काफी पीछे हैं।
जनजाति समूह को चिह्नित करने के लिए लोकुर समिति बनाई गई थी जिसने पांच मानक तय किए-संबंधित समुदाय का प्राचीनतम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक रूप से पृथक होना, समाज की मुख्यधारा से संपर्क बनाने में संकोच और आर्थिक पिछड़ापन। लोकुर समिति के मानक को स्वीकार किया जाए तो धर्मातरित ईसाई और मुस्लिम इनका हिस्सा नहीं माने जा सकते। इन पांच मानकों पर धर्मातरित खरे उतरते ही नहीं। समय-समय पर न्यायालयों ने भी इसके संबंध में फैसले दिए हैं। उदाहरण के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने केरल राज्य बनाम चंद्रमोहन मामले में स्पष्ट लिखा है कि धर्मातरण के साथ पुरानी परंपरा, रीति, कर्मकांड आदि त्यागने की स्थिति के बाद कोई व्यक्ति जनजाति का दर्जा खो देता है। किसी अनुसूचित जनजाति कैसे माना जाता है? उसकी मूल बातें क्या है? प्रकृति पूजा पहली विशेषता है। ईसाई या इस्लाम धर्म कर्म करने के बाद कोई प्रकृति पूजा कर नहीं सकता। दूसरी विशेषता है, पूर्वजों के रीति-रिवाज का पालन करना। रीति-रिवाजों में धार्मिंक, सामाजिक, सांस्कृतिक सारे आयाम हैं, जिनका पालन धर्मातरित नहीं करते। तीसरा है, आदिवासियों का पहनावा। ईसाई और इस्लाम ग्रहण करने के साथ पहनावा भी बदलने लगता है। जरा दूसरे तरीके से सोचिए।
जब ईसाई और इस्लाम मजहब में जाति व्यवस्था है ही नहीं तो वह रहेगा कैसे। ईसाई या मुसलमान बनने के बाद वह व्यक्ति उस जाति में नहीं रह सकता तो फिर अनुसूचित जनजाति का हिस्सा उसे मानना तर्क की किसी कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता। विडंबना देखिए, धर्मांतरित ईसाई और मुसलमान एक साथ अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक समुदाय का लाभ उठाते हैं। क्या इसे आप संविधान के तहत अवसरों की समानता का उदाहरण मान सकते हैं? समय आ गया है जब पूरे देश के जनजाति समाज की आवाज को स्वीकार कर संवैधानिक व्यवस्था को उसके मूल चरित्र के अनुरूप संशोधित कर दिया जाए।
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