हताशा से निपटने का दिखाना होगा हौसला
पिछले कुछ दिनों से सिल्वर स्क्रीन एक अजीब दहशत से गुजर रहा है। छोटे पर्दे पर अपने अभिनय का जलवा बिखेरने वाले अभिनेता और हुस्न के जादू से दुनिया को चकाचौंध करने वाली टीवी अभिनेत्रियां आत्महंता बन पर्दे की चमक को फीका और मटमैला कर रहीं हैं।
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तेलुगु अभिनेत्री अनुराधा हो या कन्नड़ एक्ट्रेस साई मादप्पा, साउथ इंडस्ट्री की दीपा या ससुराल सिमर फेम वैशाली ठक्कर, तुनिषा शर्मा या टीवी फेम प्रत्युषा बनर्जी, क्राइम पेट्रोल की प्रेक्षा मेहता या सीरियल ‘दिल तो हैप्पी है जी’ फेम सेजल, हताशा और निराशा ने एक-एक कर इन प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों को लील लिया है। क्या अवसाद का कोहरा इतना घना है कि जीने की चमक को धुंधला कर रहा है। महज बीस-पच्चीस साल की इन आदाकाराओं के अंतर्मन में हताशा और निराशा इतने गहरे कैसे धंस गई की वे जिंदगी की खूबसूरत लौ को स्वयं बुझा रही हैं। दूसरों के लिए योद्धा, रोल मॉडल और प्रेरक शक्ति बनने वाले युवा सितारों का मन कमजोर और आत्मविास अगर ढीला पड़ रहा है तो ये गहन मंथन और समाजिक चिंतन का विषय है।
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार भारत में हर साल डेढ़ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिसमें लगभाग तैंतीस प्रतिशत पारिवारिक और आर्थिक समस्याओं, सत्रह प्रतिशत बीमारी और सबसे अधिक आत्महत्याएं प्रेम प्रसंग और वैवाहिक समस्याओं के चलते हो रही हैं। हाल के दिनों में स्थितियां तेजी से बदली हैं और जीवन कागज की सस्ती रद्दी सी हो गई है। अवसाद, तनाव और अकेलेपन ने खिलखिलाती दुनिया को मायूसी के बंजर धरती में तब्दील कर दिया है। सवाल है क्या रोमांच और उत्साह के साथ जीवन जीना वाकई इतना कठिन हो गया है। क्या हम बाहर से भरे और भीतर से खाली होते जा रहे हैं।
परिवार से विलगाव और अकेले रहने के उभरते चलन ने हमें भावनात्मक रूप से एकांगी बनाया है। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि छद्म दिखावे, क्षणभंगुर शोहरत और भौतिक लालसा की अंधी दौड़ तेजी से हमारी नस्लों के मानसिक स्वास्थ्य को प्राभावित कर रही है। क्या हमारे समाजिक ताने-बाने को बदलने की जरूरत नहीं, जहां बिखराव और हताशा से निपटने की कोई कारगर और अचूक तकनीक मौजूद नहीं। विडंबना है कि न तो हमें कभी ऐसे हालतों से निपटने की कोई खास सामाजिक तकनीक बताई जाती है और न ही ऐसे हालात से उबरने के बाद सकारात्मकता के साथ खुद को जीवन की रफ्तार में ढालने के कोई कारगर उपाय सुझाए जाते हैं। अगर जीवन को देखने का एक खास नजरिया कि-‘चाहे जो भी हो मैं हर हाल में सुखी रहूंगी’, विकसित कर लें तो खुदकुशी जैसे दानव से निपटना आसान होगा।
आज ज्यादातर अभिनेत्रियां स्वांत: सुख के लिए अकेलेपन की निज रेखा अपने चारों ओर खींच रही हैं और निजता की ये परिधि इतनी ऊंची और मोटी है जिसके पार कोई झांक तो क्या पर भी नहीं मार सकता। मन में उठने वाली व्यथा और तकलीफ बांटने वाला कोई बचा नहीं क्योंकि हमने खुद को एकांतिक बना लिया है और वही हमारा सुख बन गया है। ये आत्म हिंसा नहीं तो और क्या है। कुंठा और मनोरोग से बचना है तो हमे भीड़ का हिस्सा बनना होगा अर्थात अपने आसपास अपनों की भीड़ खड़ी करनी होगी जो हमें दुख, निराशा और घुटन मे साहस, संबल और सहारा दे सके। हमें स्वीकारना होगा कि हम अकारण अकेले होते जा रहे हैं।
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