मंदी की आशंका : साहसिक फैसले से समाधान संभव
कोरोना की वैश्विक आपदा के बाद दुनिया आर्थिक सुस्ती से बाहर आ पाती इससे पहले ही रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को मंदी की ओर धकेल दिया है।
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ऊर्जा के जिन संसाधनों का इस्तेमाल जीवन की बेहतरी के लिए होना चाहिए, वह सैन्य और आर्थिक शह-मात का जरिया बन चुके हैं। फरवरी में शुरू हुए रूस-यूक्रेन युद्ध के अहम कारकों में यूरोप में ईधन की बिक्री को लेकर रूस और अमेरिका के बीच चल रही आक्रामक प्रतिस्पर्धा भी रही है।
युद्ध में ऊर्जा संसाधनों को हथियार के रूप में इस्तेमाल किए जाने की सबसे बड़ी वजह ऊर्जा के आपूर्ति तंत्र में एक देश की दूसरे पर पारस्परिक निर्भरता है। ईधन की मांग और आपूर्ति में दुनिया के किसी भी कोने में आई बाधा से बेअसर रहना आज किसी भी देश के लिए मुमकिन नहीं। युद्ध मैदान से निकली ‘एनर्जी डिप्लोमेसी’ कैसे दुनिया को आर्थिक मंदी की ओर ले जा रही है, इसे हालिया घटनाक्रमों से डिकोड कर सकते हैं। रूस की आर्थिक समृद्धि का सबसे बड़ा घटक तेल व प्राकृतिक गैस है। रूस और सऊदी अरब दोनों बारह-बारह प्रतिशत कच्चे तेल का उत्पादन करते हैं। परदे के पीछे रहकर युद्ध का सबसे सक्रिय किरदार अमेरिका दुनिया में सबसे अधिक 16 फीसद कच्चा तेल उत्पादित करता है। रूस की आमदनी का 43 प्रतिशत हिस्सा ऊर्जा संसाधनों के निर्यात से आता है। वैश्विक तेल आपूर्ति में रूस की हिस्सेदारी दस फीसद है। यूरोप की एक तिहाई और एशियाई देशों की प्राकृतिक गैस और कच्चे तेल की बड़ी जरूरत रूस से ही पूरी होती है।
यूरोप में तो रूस ने हजारों किलोमीटर तक गैस परिवहन के लिए पाइपलाइन बिछाई है। ये बेलारूस, पोलैंड, जर्मनी समेत अनेक देशों को गैस की सप्लाई करते हुए गुजरती हैं। यानी जिन ऊर्जा परियोजनाओं को निशाना बनाया जा रहा है, वह कभी द्विपक्षीय रिश्तों के बेहतरीन स्मारक करार थे। युद्ध शुरू होने के कुछ दिनों बाद ही ब्रिटेन और ईयू द्वारा रूस पर प्रतिबंध लगाए गए। इन प्रतिबंधों का मकसद रूस से होने वाली तेल और गैस की सप्लाई को बाधित करना था। रूस पर लगे बैंकिंग प्रतिबंधों का सीधा असर तेल टैंकरों व जहाज को मिलने वाली क्रेडिट गारंटी पर पड़ा। अमेरिका ने रूस से तेल, गैस और कोयले के आयात पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है। ब्रिटेन भी साल के अंत तक चरणबद्ध तरीके से रूस के तेल पर अपनी निर्भर रहने की रणनीति पर काम शुरू कर चुका है। जवाबी कार्रवाई में रूस ने भी जुलाई में नॉर्ड स्ट्रीम-1 पाइपलाइन से मेंटिनेंस का हवाला देकर गैस की सप्लाई रोक दी है। इससे आधे यूरोप को गैस की आपूर्ति होती थी। हालात यह हैं कि ईयू के पास ऑयल रिजर्व के नाम पर कुल क्षमता का लगभग आधा ही बचा है। सनद रहे, ईयू (यूरोजोन में) जर्मनी सबसे बड़ी इकोनॉमी है। ये बात भी सच है कि युद्ध का असर रूस पर ज्यादा पड़ा है।
सेंट्रल बैंक पर पश्चिमी देशों के प्रतिबंध से रूसी अर्थव्यवस्था को झटके लगने लगे हैं। रूसी मुद्रा रूबल रिकॉर्ड निचले स्तर पर है। रूस की प्रमुख पेट्रोलियम कंपनी शेल ने रूस के स्वामित्व वाली गैस कंपनी गैजप्रोम के साथ सभी साझा उपक्रम बंद कर दिया है। यूएस एनर्जी इंटरनेशनल एडमिनिस्ट्रेशन के मुताबिक रूस यूरोप को 48 प्रतिशत क्रूड ऑयल की सप्लाई करता है। ओईसीडी (ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) से बाहर के सदस्यों को 9 प्रतिशत और अमेरिका को एक फीसद गैस की आपूर्ति रूस द्वारा होती है। नेचुरल गैस की बात करें तो रूस कुल उत्पादन का यूरोप को 72 प्रतिशत गैर ओईसीडी देशों को 17 और एशियाई देशों को 11 प्रतिशत आपूर्ति करता है। ऊर्जा संकट के बीच अब जर्मनी ब्रिटेन, डेनमार्क, नॉर्वे, नीदरलैंड से उसी गैस की खरीद करना चाहता है, जो उसे रूस से कहीं अधिक सस्ती पड़ रही थी। अमेरिका अब इटली की ट्रांस एड्रियाटिक पाइपलाइन और टर्की की ट्रांस अंनाटोलियन पाइपलाइन से गैस की सप्लाई की रणनीति पर काम कर रहा है। अमेरिका का कहना है कि वह 2023 तक ईयू को 15 बिलियन क्यूबिक मीटर एलएनजी का अतिरिक्त निर्यात करेगा। ऊर्जा के इस संकट ने दुनिया के हर देश का एनर्जी बिल बढ़ा दिया है। इसका सीधा असर महंगाई के मोर्चे पर पड़ रहा है। अमेरिका में महंगाई दर पिछले चार दशक के शीर्ष पर जा पहुंची है।
पिछले साल की तुलना में उपभोक्ताओं के लिए कीमतों में यह 9.1 प्रतिशत की वृद्धि के रूप में देखी गई है। यह 1981 के बाद सबसे अधिक है। ब्रिटेन में ब्याज दर एक प्रतिशत के स्तर पर आ गई है। बैंकिंग ब्याज दरों का यह 2009 के बाद सबसे निचला स्तर है। मार्च में जो महंगाई की दर 7 प्रतिशत थी, वह साल के अंत तक 10 प्रतिशत के स्तर पर पहुंचने का अनुमान है। ब्रिटेन का एनर्जी बिल 40 प्रतिशत बढ़कर 2,800 पाउंड हो गया है। यूरोजोन में महंगाई की दर 8.2 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच चुकी है। सिटी ग्रुप के एक रिसर्च के मुताबिक महंगाई और ऊर्जा संकट के बीच राजस्व के दबाव से आर्थिक मंदी का नया दौर शुरू हो सकता है। साल के अंत तक कच्चे तेल की दरें 65 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर आ सकती हैं। ब्रेंट क्रूड ऑयल जुलाई के पहले सप्ताह में 100 रु पये डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर है जबकि मार्च 2022 में यह 128 डॉलर तक पहुंच गया था। इसका सीधा असर वैश्विक विकास दर पर पड़ेगा। विश्व बैंक के मुताबिक अगले साल यह 2.9 प्रतिशत के स्तर पर रहने का अनुमान है। जाहिर है आर्थिक मंदी की मौजूदा आहट के पीछे विकसित देशों द्वारा पैदा किया गया ऊर्जा का वह संकट जिम्मेदार है, जिसे वह अपने फायदे के लिए दशकों से इस्तेमाल करते आए हैं। दुनिया को जब टिकाऊ विकास के लिए ऊर्जा के नये संसाधन विकसित करने चाहिए; उस वक्त अमीर देश बेरोजगारी और जीवन स्तर की बदहाली को ऊर्जा दे रहे हैं।
यहां विदेश मंत्री एस. जयशंकर का वह बयान प्रासंगिक है कि यूरोप को हर बार अपनी समस्या विश्व की समस्या लगती है। उसे इस सोच से बाहर आना होगा। भारत ने यूरोप निर्मिंत इस ऊर्जा संकट के बीच रूस से तेल का निर्यात एक से बढ़ाकर 18 प्रतिशत कर दिया है। यह निर्णय भले ही अमेरिका व ब्रिटेन जैसे देशों को चुभ रहा हो, लेकिन समाधान की राह ऐसे ही साहसिक फैसलों से आएगी।
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