सामयिक : ताकि सुंदर बनी रहे राज्य सभा

Last Updated 02 Jun 2022 12:37:35 AM IST

भारतीय संसदीय प्रणाली में संसद के दोनों सदनों का लगभग एक समान महत्त्व है।


सामयिक : ताकि सुंदर बनी रहे राज्य सभा

हालांकि दोनों  के बीच अंतर भी अनेक हैं। मसलन, लोक सभा में सदस्य कौन होंगे, यह तय करना देश के मतदाताओं का काम है। पार्टयिां चुनाव लड़ती हैं, और मतदाता अपनी-अपनी पसंद के उम्मीदवारों को वोट देते हैं। जिसे सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं, वह विजयी माना जाता है, और लोक सभा में बैठने का अधिकार पाता है। यह बात राज्य सभा के सदस्यों के लिए लागू नहीं होती। राज्य सभा के साथ राज्य शब्द जुड़ा है, और यहां राज्य का मतलब कोई प्रांत नहीं है। यहां राज्य का मतलब वह हुकूमत है, जो वर्तमान में सत्तासीन है। ऐसी सभा अकेले भारत में नहीं है, बल्कि उन सभी देशों में है, जो एक समय ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा थे। भारतीय राजनीति में राज्य सभा को उच्च सदन और लोक सभा को निम्न सदन की उपाधि हासिल है।
व्यवहारगत बात करें या कार्यवाहियों की, लोक सभा और राज्य सभा की कार्यवाहियों में बहुत अधिक फर्क नहीं है। दोनों सदनों का काम नीतियां बनाना ही है। राज्य सभा का महत्त्व इस मायने में भी है कि बहुमत के आधार पर ही फैसले न लिए जाएं, बल्कि हर मामले में समग्रतापूर्वक विचार हो। इसलिए भारत में सरकार द्वारा प्रस्तुत कोई विधेयक तब तक विधेयक कहलाता है, जब तक कि दोनों सदनों द्वारा उसे मंजूरी न मिल जाए। इस प्रकार हम देखते हैं कि राज्य सभा का अपना महत्त्व है, और समय-समय पर इसके उदाहरण सामने आते रहे हैं कि जब सत्तासीन सरकार ने बहुमत के आधार पर लोक सभा में किसी विधेयक को मंजूरी हासिल कर ली हो, लेकिन राज्य सभा ने उस पर अपनी असहमति व्यक्त की। यह सत्ता में संतुलन बनाए रखने का उपक्रम भी है लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी रहा है।

दरअसल, राज्य सभा में अधिकांश सदस्यों का निर्वाचन राजनीतिक दलों द्वारा किया जा जाता है। यह इस पर निर्भर करता है कि विभिन्न दलों की विधानसभाओं में स्थितियां क्या हैं। यह व्यवस्था भी इसलिए है ताकि राज्य सभा में पूरे देश का प्रतिनिधित्व हो। ऐसा न हो कि कोई राजनीतिक दल, जिसके पास विधानसभा सीटें अधिक हों, खास राज्य अथवा क्षेत्र के लोगों को ही राज्य सभा का सदस्य बनाए परंतु अब इसमें परिवर्तन आया है।
राज्य सभा की सदस्यता को राजनीतिक दलों के लिए अवसर की तरह लिया जाने लगा है। इन दिनों राज्य सभा चुनावों की कार्यवाहियां जारी हैं। लगभग सभी दलों ने अपने-अपने उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है, और लगभग तय है कि ये सभी राज्य सभा में बैठने के अधिकारी होंगे। बिहार का उदाहरण लें तो जदयू इस बार दो ऐसे लोगों को राज्य सभा भेज रहा है, जिनका संबंध बिहार से नहीं है। ये हैं खीरू महतो और अनिल हेगड़े। खीरू झारखंड के पूर्व विधायक हैं, वहीं हेगड़े कर्नाटक के रहने वाले हैं। हालांकि हेगड़े के बारे में बताया जाता है कि वे लंबे समय से बिहार में रह रहे हैं। कांग्रेस की बात करें तो छत्तीसगढ़ विधानसभा में अपना बहुमत होने के कारण उसने वहां से अपने अधिक लोगों को उम्मीदवार बनाया है। इनमें राजीव शुक्ला और रंजीता रंजन सहित अनेक गैर-छत्तीसगढ़ी हैं।  
दरअसल, राज्य सभा चुनावों के मामले में त्रासदी यही है कि इसे पिछला दरवाजा बनाया जा रहा है जबकि मूल अवधारणा में यह पिछला दरवाजा नहीं है। लेकिन हो यह रहा है कि पार्टयिां वैसे लोगों को राज्य सभा का उम्मीदवार बना रही हैं, जो या तो लोक सभा का चुनाव लड़ नहीं पाते या फिर पार्टयिां अपनी मनमर्जी करती हैं। वजह यह है कि इसकी सदस्यता के लिए जनता के पास जाने की जरूरत नहीं होती। अब एक उदाहरण देखें, कांग्रेस ने रंजीता रंजन को छत्तीसगढ़ से उम्मीदवार बनाया है। रंजीता 2019 में लोक सभा का चुनाव हार गई थीं। वैसे ही राजद ने डॉ. मीसा भारती को लगातार दूसरी बार राज्य सभा का उम्मीदवार बनाया है। वह भी 2019 में चुनाव हार गई थीं। हालांकि तब वह राज्य सभा की सदस्य थीं। राजद के विपक्षी यह आरोप भी लगाते हैं कि उन्हें इसलिए राज्य सभा भेजा जा रहा है, क्योंकि लालू प्रसाद की बेटी हैं। वैसे परिवारवाद का आरोप लालू पर ही नहीं है, करीब-करीब सभी दलों में यह बीमारी है।
लेकिन ये ऐसे उदाहरण हैं, जिनके बारे में चिंतन आवश्यक है। मूल सवाल यह है कि राज्य सभा को केवल पिछला दरवाजा नहीं बनाया जाना चाहिए और न ही यह पार्टी के उन कार्यकर्ताओं को खुश करने का उपक्रम हो, जिन्हें लोक सभा का चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिल सका। राज्य सभा की मर्यादा तभी सुनिश्चित होगी जब इसमें पूरे देश का समुचित प्रतिनिधित्व हो। कहने का आशय यह कि यदि बिहार के लिए दस सीटें आरक्षित हैं, तो ये सीटें बिहार के लोगों से ही भरे जाएं। ऐसा न हो कि किसी और प्रांत से व्यक्तियों को बुलाकर जगह दे दी जाए। अभी जदयू ने ऐसा ही किया है। समाजवादी पार्टी ने भी कपिल सिब्बल को उम्मीदवार बनाकर इसी तरह का उदाहरण पेश किया है।  इसमें दो समस्याएं हैं। एक तो यह कि बाहरी लोगों को उम्मीदवार बनाए जाने से राज्य के प्रतिनिधित्व में कमी आती है जो हर हाल में गैरवाजिब है। दूसरा यह कि जब बाहरी लोग यानी दूसरे राज्यों के लोग किसी दूसरे राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो बेशक, वे बड़े नेता क्यों न हों, उस राज्य के सवालों को नहीं उठाते जिनका वे प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं।
सनद रहे कि भारतीय संविधान के हिसाब से भारत कोई एक राष्ट्र नहीं है। यह प्रांतों का संघ है और यहां संघीय ढांचा है। यह इसलिए भी है ताकि इस ढांचे में सभी शामिल हों। फिर चाहे पूर्वोत्तर के राज्य हों या दक्षिण भारत के राज्य। ऐसा करना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि राज्य सभा में लोक सभा की तरह आरक्षण का प्रावधान नहीं है कि 15 फीसद सीटें अनुसूचित जातियों और साढ़े सात फीसद सीटें अनुसूचित जनजातियों के लोगों के लिए आरक्षित हों। यदि राज्य सभा की इस खूबसूरती, कि इसमें पूरा देश शामिल है, को राजनीतिक फायदे के लिए घटाया-बढ़ाया जाएगा तो निस्संदेह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक होगा।
(लेखक फार्वड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं)

नवल किशोर कुमार


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