तीसरा मोर्चा : चंद्रशेखर राव की कवायद
पांच लंगाना के मुख्यमंत्री और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के सुप्रीमो के. चंद्रशेखर राव, जो कभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रति बेहद नरम दिल हुआ करते थे, बजट की आलोचना कर रहे हैं, तो संकेतों को समझे जाने की जरूरत है।
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चूंकि अब वे 2024 के लोक सभा चुनाव में भाजपा को केंद्र से अपदस्थ करने के लिए तीसरे मोर्चें के गठन की कवायद को भी बढ़ा रहे हैं, इसलिए देखने की बात यह भी है कि क्या भाजपा से उनका ‘मोहभंग’ उन्हें उनके उस कांग्रेस-विरोध से मुक्त करेगा या नहीं, जो तेलंगाना में उनके दलीय हितों के कारण कई बार अंधता की सीमा तक जाता दिखता है, और राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा जिसकी सबसे बड़ी लाभार्थी रही है।
अभी तेलंगाना में अपने हितों के मद्देनजर ही चंद्रशेखर राव ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की अघोषित मदद कर रहे ऑल इंडिया मुस्लिम इत्तिहादुल मुस्लिमीन के सुप्रीमो असदउद्दीन ओवैसी की कोशिशों का प्रमोशन करने वाले अंदाज में समर्थन किया है-उन्हें अपना भाई कहकर। बहरहाल, भाजपा की जहां तक बात है तो उसकी सबसे पुरानी सहयोगी शिवसेना उसके हिंदुत्व पर आक्रामक होने का मौका नहीं छोड़ती। पंजाब में अकाली दल ने किसानों के मुद्दे पर उसका हाथ झटक दिया है, जिसका फल है कि उस राज्य में भाजपा प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों तक के लिए भीड़ नहीं जुटा पा रही। तेलुगू देशम पार्टी के अध्यक्ष और आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने भी बजट के खिलाफ मुखर होकर भाजपा और मोदी सरकार से नाराजगी के संकेत दिए हैं। खुद चंद्रशेखर राव की बात करें तो उन्हें गत वर्ष नवम्बर में ही शिकायत हो चली थी कि जब वे भाजपा का समर्थन नहीं करते तो उसके नेता उन्हें देशद्रोही बताने लगते हैं। अपने विरोधियों को भाजपाई अर्बन-नक्सली वगैरह जानें क्या-क्या करार देते हैं। उन्हें यह सवाल भी सहन नहीं होता कि हर साल दो करोड़ नौकरियां देने के केंद्र सरकार के वादे का क्या हुआ? अब अपनी धुन में चंद्रशेखर राव पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को सेमीफाइनल की तरह देखने को भी तैयार नहीं हैं, और उनका मानना है कि भाजपा इनमें जीती भी तो उसकी सीटें इतनी कम हो जाएंगी कि उस जीत में कोई चमक नहीं होगी और तब मोदी सरकार को हटाना बेहद आसान हो जाएगा।
निस्संदेह, इस सबका संकेत है कि चंद्रशेखर राव राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका तलाश रहे हैं। कुछ अरसे में भाजपा-विरोधी नेताओं से मिलते रहे हैं। जनवरी के दूसरे सप्ताह में उनके बुलावे पर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव कुछ अन्य नेताओं के साथ तेलंगाना पहुंचे थे। इससे पहले चंद्रशेखर राव माकपा और भाकपा के नेताओं और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और द्रमुक नेता एमके स्टालिन से भी मिल चुके थे। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से भी जल्द ही मुलाकात करने वाले हैं। शिवसेना सांसद संजय राउत की मानें तो दोनों पार्टयिां 2024 का चुनाव साथ लड़ने के लिए विपक्षी दलों का मोर्चा बनाने की कोशिश में हैं। उनकी कोशिशों को इस संदर्भ में देखने की जरूरत है कि पिछले तीन दशकों में देश में गठबंधन राजनीति का ही जोर रहा है, और तीसरे मोर्चे की कई कवायदें भी हो चुकी हैं। पिछले लोक सभा चुनावों से पहले ममता बनर्जी ने भी ऐसी असफल कोशिश की थी और प. बंगाल के गत विधानसभा चुनाव के बाद एक बार फिर कांग्रेस की जगह तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को भाजपा का विकल्प बनाने की कोशिश में लगी हैं।
अभी पता लगना बाकी है कि चंद्रशेखर राव उनकी कोशिशों के सामने आए हैं, तो उन्हें लेकर ममता का दृष्टिकोण क्या है? कांग्रेस को लेकर खुद चंद्रशेखर राव का दृष्टिकोण ममता से कितना मेल खाता है? कई प्रेक्षकों की मानें तो जवाब इस प्रतिप्रश्न में है कि चंद्रशेखर राव ने मोदी सरकार को बंगाल की खाड़ी की बजाय हिंद महासागर या अरब सागर में फेंकने का विकल्प क्यों नहीं चुना? फिर प्रेक्षक खुद ही जवाब दे रहे हैं कि बंगाल की खाड़ी का जिक्र कर वे ममता को खास संदेश दे रहे हैं। ऐसा है तो इस सवाल को भी जवाब की दरकार होगी कि ममता उनकी कोशिशों के समर्थन में आती हैं, तो क्या कांग्रेस से अलग तीसरे मोर्चे की सरकार और उसके नेतृत्व को लेकर अपनी महत्वाकांक्षाएं त्याग देंगी? अगर नहीं तो क्या उनकी और चंद्रशेखर राव की महत्त्वाकांक्षाओं में भी टकराव नहीं होगा?
इस तथ्य से कौन इनकार कर सकता है कि अतीत में महत्त्वाकांक्षाओं के ऐसे टकराव ही तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को पलीता लगाते रहे हैं, और ऐसे पलीतों से तभी बचा जा सकता है, जब पहले ही टकरावों से बचाव के उपाय कर लिए जाएं। क्या चंद्रशेखर राव ऐसा कर सकेंगे? जवाब भविष्य के गर्भ में है, लेकिन उनकी कवायद का भविष्य इस पर भी निर्भर करेगा कि विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में भाजपा अपनी हनक बचा पाती है, या नहीं।
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