वैश्विकी : फिरोजपुर और विदेश नीति
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 6 जनवरी को अमेरिकी संसद (कांग्रेस) पर डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों द्वारा धावा बोले जाने की घटना की बरसी पर लोकतंत्र की बहुत दुहाई दी और संसद की गरिमा बनाए रखने पर लंबा प्रवचन दिया।
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एक दिन पहले अमेरिका की धरती पर मुक्त रूप से विचरण कर रहा खालिस्तानी नेता गुरुपतवंत सिंह पन्नू दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के निर्वाचित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ फिरोजपुर (पंजाब) में हुए घटनाक्रम का जश्न मना रहा था। संतोष की बात यह है कि पंजाब सहित पूरे देश का सिख समाज खालिस्तानी दुष्प्रचार को खारिज करता है। पन्नू का संगठन ‘सिख फॉर जस्टिस’ ही नहीं, ब्रिटेन, कनाडा, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया में बैठे खालिस्तानी तत्व भी खुशी का ऐसा इजहार कर रहे थे मानो उन्होंने कोई जंग जीत ली हो।
इन सभी देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था है, लेकिन यहां के किसी भी नेता ने न तो नरेन्द्र मोदी का कुशलक्षेम पूछा, न ही फिरोजपुर घटनाक्रम पर चिंता व्यक्त की। लोकतंत्र के स्वयंभू ठेकेदार पश्चिमी देशों के मीडिया ने भी फिरोजपुर घटना को कोई तवज्जो नहीं दी। इससे भारतीय विदेश मंत्रालय की आंखें खुल जानी चाहिए। इस घटना के बाद भी यदि विदेश मंत्री एस. जयशंकर और उनके सहयोगी उदासीनता और अकर्मण्यता का प्रदर्शन करते हैं तो यह विदेश नीति की एक बड़ी असफलता होगी। वास्तव में विदेश मंत्रालय को वीजा संबंधी काली सूची को फिर से सक्रिय करना चाहिए। पिछले दिनों खुफिया इनपुट के बावजूद भारत में प्रवेश रोकने संबंधी काली सूची में लगातार कटौती की जा रही है।
फिरोजपुर घटना को लेकर सारी चर्चा आंतरिक सुरक्षा, पुलिस एवं खुफिया एजेंसियों की भूमिका तक केंद्रित है। इसके साथ जुड़े विदेशी हाथ के पहलू पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह चिंता की बात है। कुछ अथरे में फिरोजपुर की घटना भारतीय विदेश नीति की असफलता है। पिछले एक वर्ष के दौरान यह साफ हो गया था कि पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के आसपास किसान आंदोलन के तार विदेशों से जुड़े हैं। कृषि कानूनों को लेकर किसानों की मांगों का समाधान देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के जरिये हो सकता था। सरकार और किसान नेताओं के बीच बातचीत के जरिये ऐसा प्रयास भी किया गया, लेकिन अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन सहित पूरी दुनिया में फैले भारत विरोधी नेटवर्क ने ऐसे किसी समाधान में बाधा पैदा की। विदेश मंत्री एस. जयशंकर को उसी समय सावधान हो जाना चाहिए था, जब कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने किसान आंदोलन के समर्थन में बयान दिया था। उस समय विदेश मंत्रालय ने ट्रूडो के बयान को हल्के में लिया था। इस तथ्य को भुला दिया गया कि खालिस्तान आंदोलन का आधारभूत ढांचा कनाडा में ही है। ट्रूडो मंत्रिमंडल के कई सदस्य खालिस्तानी आंदोलन को समर्थन देते हैं। उनका नेटवर्क भारत में खालिस्तान समर्थक तत्वों को समर्थन और संसाधन मुहैया कराता है। कनाडा के विरुद्ध भारत कई राजनयिक कदम उठा सकता था। एक विकल्प यह था कि कनाडा के साथ राजनयिक संबंधों के दज्रे को कम कर दिया जाए। वहां भारत के राजनयिक मिशनों की संख्या में भी कमी की जा सकती थी। यह प्रधानमंत्री ट्रूडो के लिए स्पष्ट संदेश होता कि ‘भारत के साथ पंगा मत लो’।
फिरोजपुर की घटना जिस समय हुई उस समय यूरोप सहित पश्चिमी देशों में कथित खालिस्तानी रेफरेंडम चल रहा था। भारत सरकार और राष्ट्रीय मीडिया ने इसे पाकिस्तान का खेल बताकर खारिज कर दिया। यह शुतुरमुर्ग जैसा रवैया है। हकीकत यह है कि पश्चिमी देशों में खालिस्तान समर्थक मानसिकता और सोच के खिलाफ लोगों की संख्या कम नहीं है। ब्रिटेन की संसद में किसान आंदोलन को लेकर हुई चर्चा से भी यह बात साबित हो गई है। ब्रिटिश संसद के सदस्य प्रीत कौर गिल और तनमनजीत सिंह ढेसी जैसे नेता खुलेआम भारत विरोधी भावनाएं भड़काते हैं। ब्रिटेन का मुख्य विपक्षी दल लेबर पार्टी भी खालिस्तानी दुष्प्रचार को हवा देता है।
अब समय आ गया है कि विदेश मंत्रालय वीजा संबंधी काली सूची को फिर से सक्रिय करने पर पुनर्विचार करे। राष्ट्रीय हितों पर खतरा पैदा करने वाले किसी भी व्यक्ति को भारत की धरती पर पांव रखने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। पाकिस्तान की सरजमीं से होने वाला सीमा पार आतंकवाद यदि स्वीकार नहीं किया जा सकता तो कुछ मायने में उससे भी अधिक खालिस्तानी भारत विरोधी वैचारिक आतंकवाद को भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
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