प्रदूषण : नये मानकों के मायने

Last Updated 13 Oct 2021 12:14:30 AM IST

बीते हफ्ते ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने वायु प्रदूषण के मानकों में कुछ बदलाव किए हैं।


प्रदूषण : नये मानकों के मायने

इस बाबत नए दिशानिर्देश जारी कर दिए गए हैं। पिछले 16 सालों में यह पहला मौका है जब विश्व स्वास्थ्य संगठन नेप्रदूषण मानकों में संशोधन किए हैं। आखिरी बार 2005 में वायु प्रदूषण के मानक तय किए गए थे। इस नये दिशा-निर्देश की खास बात यह है कि पहले के बरक्स अब प्रदूषक के पैमाने और सख्त गए हैं।

पहले के मुकाबले अब इसकी स्वीकार्य सीमा में कमी की गई है। दरअसल, अब तक के नियम के मुताबिक वायु में पीएम-2.5 की सांद्रता 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक की इजाजत थी, लेकिन अब वायु में पीएम-2.5 की स्वीकार्य सीमा सिर्फ  5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर ही होगी।

इसी तरह, पीएम-10 या इससे बड़े आकार के पार्टिकुलेट कण के लिए अब तक नियम था कि वायु में इसकी सांद्रता 20 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर होनी चाहिए, लेकिन नये दिशा-निर्देश में इसकी सांद्रता घटा कर 15 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तय की गई है। ये पैमाने सालाना औसत के लिहाज से तय किए गए हैं।

सवाल है कि इन संशोधनों के मायने क्या हैं? इन संशोधनों का अर्थ है कि पहले जहां पीएम-2.5 की सांद्रता 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ज्यादा होने पर वायु को प्रदूषित समझा जाता था, अब 5 माइक्रोग्राम से अधिक होने पर ही प्रदूषित माना जाएगा। मतलब कि पैमाने सख्त हुए अर्थात गरीब और विकासशील देशों की मुश्किलें और बढ़ गई। अब इन देशों को वायु की गुणवत्ता को बेहतर करने के लिए और मशक्कत करनी होगी।

सवाल है कि जब पहले से निर्धारित लक्ष्य ही पूरे नहीं हो पा रहे हैं, तो नये और सख्त पैमानों को अमलीजामा पहनाना मुमकिन कैसे हो सकेगा? जो विकासशील और गरीब देश पहले से ही इन मुश्किलों से जूझ रहे हैं, क्या नियंत्रित करने के प्रयासों में इन देशों का उत्साह कम नहीं होगा? हालांकि, यह भी सच है कि अब तक निर्धारित मानक 16 साल पुराने थे और वैश्विक बदलाव के मद्देनजर इन्हें बदला जाना चाहिए था, लेकिन जब इस डेढ़ दशक पुराने लक्ष्य को ही अब तक हासिल नहीं किया जा सका है, तब इस बात की उम्मीद ही बेमानी है कि पहले से भी सख्त मानक पर विकासशील देश चल सकेंगे। अब भारत को ही ले लीजिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन की तुलना में भारत के राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक बहुत अधिक उदार हैं।

मिसाल के तौर पर 24 घंटे की अवधि में अनुशंसित पीएम-2.5 की सांद्रता 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है जबकि डब्ल्यूएचओ के 2005 मानक में यह 25 माइक्रोग्राम था, जिसे अब घटा कर 15 किया गया है। जाहिर है भारत  का यह स्तर निम्न है, लेकिन हैरानी की बात है कि भारत में इस स्तर को भी हासिल नहीं किया जा सका है। ग्रीनपीस के एक अध्ययन में 2020 में राजाधानी दिल्ली में पीएम-2.5 की औसत सांद्रता प्रदूषण के अनुशंसित स्तरों से लगभग 17 गुना अधिक पाई गई।

वहीं, मुंबई में प्रदूषण का स्तर आठ गुना, कोलकाता में नौ गुना और चेन्नई में पांच गुना ज्यादा था। ग्लोबल र्बडन ऑफ डिजीज स्टडी के मुताबिक भारत की 90 फीसद से ज्यादा आबादी पहले से ही उन क्षेत्रों में रहती है, जहां प्रदूषण का स्तर डब्ल्यूएचओ के वर्ष 2005 के मानदंडों से अधिक था। अपनी हालिया रिपोर्ट में डब्ल्यूएचओ ने यही बात दोहराई है। हालांकि, यह तथ्य केवल भारत के लिए नहीं है, बल्कि दुनिया भर की 90 फीसद आबादी दूषित हवा में सांस ले रही है। यानी डब्ल्यूएचओ के नये मानक दुनिया भर के लिए एक नई मुश्किलें खड़ी करेंगी। अमेरिका जैसे विकसित देशों को इस संशोधित मानक से ज्यादा मुश्किलों का सामना नहीं  करना पड़ेगा।

इसकी वजह है कि ये देश वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में बेहद कामयाब रहे हैं। मिसाल के तौर पर अमेरिका में पीएम-2.5 का सांद्रणडब्ल्यूएचओ के मानक से महज ढाई गुना ही ज्यादा है। यह सच है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के नये मानक सख्त हैं और लक्ष्य को असंभव देखकर भारत जैसे विकासशील देशों के हौसलों को चोट पहुंच सकता है, लेकिन हमें यह भी गौर करना होगा कि वायु प्रदूषण के चलते हर साल लाखों लोग असामयिक मौत मरते हैं।

एक बड़ी आबादी गंभीर बीमारियों का शिकार बनती है। ऐसी परिस्थितियां देश को आर्थिक मोर्चों पर खूब हानि पहुंचाती है। इसलिए नये मानकों को हासिल करने के लिए सरकारों को कमर कसना होगा ताकि नौनिहालों तक के लिए अभिशाप बन चुके वायु प्रदूषण के खतरों को कम किया जा सके।

रिजवान अंसारी


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