वैश्विकी : तालिबान का असली चेहरा

Last Updated 01 Aug 2021 12:25:14 AM IST

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन की दो दिवसीय भारत यात्रा के दौरान पूरी दुनिया की नजर अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर केंद्रित थी।


वैश्विकी : तालिबान का असली चेहरा

पहले यह अनुमान लगाया गया था कि इस यात्रा में इंडो-पैसिफिक की सुरक्षा व्यवस्था, भारत में मानवाधिकारों की स्थिति और पेगासस जासूसी कांड के मुद्दे भी वार्ता में शामिल होंगे, लेकिन अफगानिस्तान में तेजी से बदल रहे घटनाक्रम ने भारत, चीन, रूस और ईरान सहित विभिन्न क्षेत्रीय देशों की प्राथमिकता बदल दी। पिछले 20 वर्षो के दौरान अफगानिस्तान के कार्यसंचालन में अमेरिका ने मुख्य भूमिका निभाई थी, लेकिन अपनी सैनिक और राजनीतिक असफलता के उजागर होने के दौर में उसने अफगानिस्तान से पल्ला झाड़ लिया। अमेरिका केवल इस बात से संतुष्ट है कि अफगानिस्तान की सुरक्षा और उसके राष्ट्रीय हितों को कोई खतरा नहीं है। यह बात दूसरी है कि अफगानिस्तान के आसपास के देशों के लिए खतरा पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है।
कई मायनों में भारत को अन्य देशों के मुकाबले ज्यादा खतरा है। तालिबान नियंत्रित पाकिस्तान और अफगानिस्तान का गठजोड़ भारत के लिए भयावह चुनौती पेश करेगा। नरेन्द्र मोदी सरकार के दौरान देश में आतंकवादी हमलों पर जो रोक लगी है तथा आंतरिक सुरक्षा की स्थिति में जो सुधार हुआ है, उनके लिए नई समस्या पैदा हो जाएगी। यह गौर करने की बात है कि घटनाक्रम से प्रभावित होने वाला केवल भारत ही ऐसा देश है, जो तालिबानी आतंकवादियों को वैधता प्रदान करने के लिए तैयार नहीं है। अमेरिका ने तालिबान को वार्ता में साझेदार बनाया जबकि चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने पाकिस्तान के पिट्ठू तालिबानी नेता मुल्ला अब्दुल गनी ब्रादर से मुलाकात की। इस तरह एक आतंकवादी नेता को सम्मानित राजनयिक का दरजा मिल गया। जहां तक भारत का सवाल है, उसने कतर की मध्यस्थता से कुछ तालिबानी नेताओं के साथ संपर्क अवश्य कायम किया, लेकिन इस प्रयास में उसकी मंशा यह थी कि तालिबान अफगानिस्तान में पिछले 20 वर्ष के दौरान हुए सकारात्मक बदलाव के विरुद्ध काम न करे।

अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद से ही तालिबानी आतंकवादियों ने अपना पुराना रूप दिखाना शुरू कर दिया है। पाकिस्तान के मदरसों के तालिब (शागिर्द) रहे मध्ययुगीन नेता इस्लाम की कट्टरपंथी विचारधारा को मानते हैं और इस पर अमल करते हैं। तालिबान के कब्जे वाले क्षेत्रों में महिलाओं को कोड़े मारने और उदारवादी लोगों की हत्या करने का क्रम फिर शुरू हो गया है। भारतीय फोटो पत्रकार दानिश सिद्दीकी की नृशंस हत्या तालिबान की वहशी कार्यप्रणाली का एक सबूत है। घायल अवस्था में एक मस्जिद में शरण लेने वाले दानिश को तालिबान लड़ाकुओं ने गोलियों से छलनी कर दिया और उनका सिर कुचल दिया। यह घटना उन लोगों के लिए एक सबक है, जो मानते हैं कि तालिबान का हृदय परिवर्तन हो सकता है तथा उन्हें लोकतंत्र की मुख्यधारा का हिस्सा बनाया जा सकता है।
फिलहाल अफगानिस्तान में अमेरिकी सेनाओं की वापसी से पैदा हुई शून्यता को भरने के लिए विभिन्न देश अपने-अपने तरीके से काम कर रहे हैं। रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार भारत ने काबुल और आसपास के सूबों में अपना कब्जा कायम रखने वाली सरकारी सेनाओं को सैनिक साजो-सामान मुहैया कराना शुरू किया है। आधिकारिक रूप से इसकी जानकारी नहीं है, लेकिन यह निश्चित है कि भारत यह नहीं चाहता कि काबुल पर तालिबान का कब्जा हो। दो दशक पहले अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा था। उस समय भारत ने अहमद शाह मसूद के नेतृत्व वाले नार्दन एलायंस को समर्थन दिया था। शाह मसूद के लड़ाकुओं ने तालिबानी सत्ता को कड़ी चुनौती दी थी। दो दशक बाद अब भारत को काबुल को किसी तरह बचाये जाने की चिंता है।
भारत के लिए समस्या यह है कि सीधे रूप से उसकी सीमाएं अफगानिस्तान से नहीं मिलती हैं। 1971 में बांग्लादेश और राजीव गांधी के कार्यकाल में श्रीलंका में सैनिक भूमिका जैसी स्थिति दोहराने के बारे में भारत नहीं सोच सकता। काबुल को बचाने का काम भी वह अपने बलबूते करने की स्थिति में नहीं है। इस काम में सबसे कारगर भूमिका शंघाई सहयोग संगठन और ब्रिक्स जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन ही निभा सकते हैं।

डॉ. दिलीप चौबे


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