एक बनियान जो नहीं फटती

Last Updated 11 Apr 2021 12:03:27 AM IST

यह एक बनियान के उस विज्ञापन की ‘कैच लाइन’ या कहें कि ‘पंच लाइन’ है, जो खबर चैनलों में अक्सर बजती रहती है: ‘डॉलर पहनने वालों की कभी नहीं फटती’।


एक बनियान जो नहीं फटती

बॉलीवुड का एक ‘सुपर स्टार’ विज्ञापन का हीरो है। विज्ञापन में एक निदेशिका के सामने एक ओर सुपर स्टार और दूसरी ओर उसका ‘डबल’ खड़ा होता है। दोनों बनियान फाड़ने का कंपटीशन करते हैं। सुपर स्टार अपने  ‘डबल’ की बनियान को दोनों हाथों से खींचकर फाड़ देता है, और फिर अपने ‘डबल’ से कहता है कि वो उसकी बनियान फाड़े। वह हीरो की बनियान फाड़ने की कोशिश करता है, लेकिन सुपर स्टार की बनियान नहीं फटती। अंत में सुपर स्टार ‘कैच लाइन’ बोलता है: ‘डॉलर पहनने वालों की कभी नहीं फटती!’ फिर  निदेशिका से कहता है, ‘अब आप बोरोलीन का टेस्ट कर लो’ तो निदेशिका शर्माते हुए कहती हैं: फिट है बॉस! यह विज्ञापन टीवी के खबर चैनलों में बार-बार आता है, और जितनी बार आता है, यह कैच लाइन बोली जाती है: ‘डॉलर वालों की कभी नहीं फटती।’ 
यहां ‘फटती’ क्रिया पद के कई निहितार्थ गूंजते हैं: पहला साधारण अर्थ ‘फटना’ जैसे किसी कपड़े का या कागज का फटना लेकिन जैसे ही क्रिया को स्त्रीलिंगी बनाया जाता है कि ‘डॉलर पहनने वालों की कभी नहीं फटती’ तो उसमें खास किस्म के ‘सेक्सिस्ट अर्थ’ गूंजने  लगते हैं। अगर विज्ञापन का सुपर स्टार हीरो बोलता कि ‘डॉलर ब्रांड बनियान कभी नहीं फटती’ तो ‘फटती’ का अर्थ बनियान  के साथ जुड़ कर ‘फिक्स’ हो जाता लेकिन ‘कैच लाइन’ कहलवाई ही कुछ इस तरह से गई है कि बनियान के ‘सेक्सिस्ट’ अर्थ प्रमुख हो जाएं और बनियान पहनने वाले ‘मर्दवादी (माचोवादी) मारकेट’ में हिट हो जाएं।

आजकल के सोशल मीडिया की युवा दुनिया में ऐसे बहुत शब्द चलते हैं, जो ‘सेक्सिस्ट’ अर्थ रखते हैं जैसे कि ‘वो बहुत बड़ा फाडू है’ या कि ‘उसकी तो उसने ‘ले ली’’ या ‘उसकी ‘फटती’ है’ या ‘नहीं फटती’ है..विज्ञापन इसी दुनिया के लिए है। यही भाषा का ‘सेक्सिस्ट छल’ है:‘फाडू’, ‘ले ली’ या ‘फटती’-सभी क्रियापद ‘सेक्सिस्ट’ मानी रखते हैं, और सभी खास प्रकार के ‘मर्दवादी-माचोवादी आक्रामक व्यवहार’ को औचित्य देते हैं। विज्ञापन की भाषा का ‘विखंडन’ करते ही साफ हो जाता है कि ऐसे तमाम क्रियापदों में खास प्रकार की ‘पुल्लिंगी ताकत’ काम करती है। स्त्रीत्ववादी पदावली में कहें तो विज्ञापन की भाषा ‘शिश्नकेंद्रिक’ (फैलोगोसेंटिक) है, जो पुरुष के शिश्न को ताकत देती है और ‘शिश्न की आक्रामकता’ को पापूलर बनाती है। ऐसे विज्ञापनों की ऐसी भाषा सुनकर हमारा ‘मर्दवादी अहं’ इन जुमलों में निहित ‘शिश्न की आक्रामकता’ का मजा लेता है, और उसे अपने शब्दकोश का हिस्सा बना लेता है! मर्दवादी वातावरण में ‘फटती’  की ‘व्यंजना’ का हम आनंद लेते हैं, लेकिन वैसा कहते लजाते हैं। जानते हैं कि ‘फटती’ क्रिया किस अंग की ओर इशारा करती है, लेकिन उसे वैसा कहते नहीं। इस भाषा की यही ‘छलना’ है कि विज्ञापन में निहित शिश्नवादी हिंसा सीधे नहीं कही जाती क्योंकि ऐसे कहना पकड़ा जा सकता है। ऐसा हर विज्ञापन की शिश्नकेंद्रिक सत्ता को स्थापित करता है, स्त्रीत्ववादी यौनिकता पर आक्रमण। ऐसी लंपटता को ‘नया चलन’ (न्यू नार्मल) बनाता चलता है।
सारे सेक्सिज्म की जननी ऐसी ही अकर्मक कियाएं होती हैं। क्रिया के साथ कर्म और कर्ता स्पष्ट हों तो क्रिया का अर्थ फिक्स हो जाएगा। कर्म और कर्ता के बिना सिर्फ क्रिया कई तरह के अथरे के लिए खुल जाती है। मराठी की फिल्म याद करें जिसका नाम था ‘आधी रात में दिया तेरे हाथ में’! ‘दिया’ ऐसी ही क्रिया थी जिसके दो अर्थ थे। नाम नहीं बताता था कि हाथ में क्या दिया? आपका मर्दवादी मन ‘आधी रात में क्या दिया?’ में निहित  ‘दोहरे अर्थ’-(दीपक और देना)-का आनंद लेता है, और फिल्म हिट हो जाती है।
यही स्थिति इस विज्ञापन की है। विज्ञापन में ‘फटती’ क्रिया ‘शिश्न के आक्रमण’ को आमत्रित करती ऐसी क्रिया है, जो अधूरी है और हमें उसे पूरा करने को आमंत्रित करती है, और इसलिए इसका सेक्सिस्ट पाठ बिकता है। विज्ञापन की कैच लाइन ‘डॉलर वालों की कभी नहीं फटती’ के जरिए ‘डॉलर कल्चर’ भी बेचती है। यहां ‘डॉलर’ का मतलब है ‘अमेरिका’ यानी ‘ताकत’ यानी ‘आक्रामकता’। डॉलर ताकतवर है, टिकाऊ है, भरोसमंद है। इसीलिए तो डॉलर वाले की कभी नहीं फटती। विज्ञापन एक ब्रांडेड बनियान के बहाने दो चीजें बेचता है: अमेरिका और उसके डॉलर की ताकत और शिश्न की ताकत! लेकिन चैनलों को इससे क्या! उनको तो पैसा कमाना है, कोई जहर बेचे या सेक्सिस्ट भाषा बेचे!

सुधीश पचौरी


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment