भारत : फिर कैसे बने गणराज्य?

Last Updated 15 Feb 2021 12:07:23 AM IST

दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र, अमेरिका नहीं भारत है। 600 ईसा पूर्व भारत में सैकड़ों गणराज्य थे।


भारत : फिर कैसे बने गणराज्य?

जहां बिना लिंग और जाति भेद के समाज के हर वर्ग के प्रतिनिधि खुली चर्चाओं के बाद शासन के नियम और कानून तय करते थे। फिर राजतंत्र की स्थापना हुई और दो हजार से ज्यादा वर्षो तक चली। माना यह जाता है कि आजादी की लड़ाई के दौरान पश्चिमी विचारों से प्रभावित हो कर समानता, स्वतंत्रता व बंधुत्व का भारत में प्रचार हुआ और उसी से जन्मा हमारा आज का लोकतंत्र। जिसे आज पूरी दुनिया में  इसलिए सराहा जाता है क्योंकि इसमें बिना रक्त क्रांतियों के चुनाव के माध्यम से शांतिपूर्ण तरीके से सरकारें बदल जाती हैं, जबकि हमारे साथ ही आजाद हुए पड़ोसी देशों में आए दिन सैनिक तख्तापलट होते रहते हैं।
आज पूरी दुनिया मानती है कि शासन का सबसे बढ़िया प्रारूप लोकतंत्र है। क्योंकि इसमें किसी के अधिनायकवादी बनने की संभावना नहीं रहती। एक चाय बेचने वाला भी देश का प्रधान मंत्री बन सकता है या एक दलित भारत का राष्ट्रपति या मुख्य न्यायाधीश बन सकता है। अपनी इस खूबी के बावजूद भारत के लोकतंत्र की खामियों पर सवाल उठते रहे हैं। सातवें दशक में गुजरात के छात्र आंदोलन और फिर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संघषर्वाहिनी के माध्यम से पैदा हुए जनआक्रोश की परिणिति पहले आपातकाल की घोषणा और फिर केंद्र में सत्ता पलटने से हुई। तब से आज तक अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों और क्षेत्रीय आंदोलनों के कारण प्रांतों और केंद्र में सरकारें चुनावों के माध्यम से शांतिपूर्ण तरीके से बदलती रही हैं, लेकिन हमारे लोकतंत्र की गुणवत्ता नहीं सुधरी। इसके विपरीत राजनीति में जवाबदेही और पारदर्शिता का तेजी से पतन हुआ है।

आज राजनीति में न तो विचारधारा का कोई महत्त्व बचा है और न ही ईमानदारी का। हर दल में समाज के लिए जीवन खपाने वाले कार्यकर्ता कभी भी अपना उचित स्थान नहीं पाते। उनका जीवन दरी बिछाने और नारे लगाने में ही समाप्त हो जाता है। हर दल चुनाव के समय टिकट उसी को देता है जो करोड़ों रुपया खर्च करने को तैयार हो या उसके समर्थन में उसकी जाति का विशाल वोट बैंक हो। फिर चाहे उसका आपराधिक इतिहास रहा हो या उसने बार-बार दल बदले हों, इसका कोई विचार नहीं किया जाता। यही कारण है कि आज भारत में भी लोकतंत्र सही मायने में जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य नहीं कर रहा। हर दल और हर सरकार में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अधिनायकवादी प्रवृत्तियां ही देखी जाती हैं। परिणामत: भारत हमेशा एक चुनावी माहौल में उलझा रहता है। चुनाव जीतने के सफल नुस्खों को हरदम हर दल द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। नतीजतन देश में साम्प्रदायिक, जातिगत हिंसा या तनाव और जनसंसाधनों की खुली लूट का तांडव चलता रहता है, जिसके कारण समाज का हर वर्ग हमेशा असुरक्षित और अशांत रहता है। ऐसे में आमजन के सम्पूर्ण विकास की कल्पना करना भी बेमानी है। मूलभूत आवश्यकताओं के लिए आज भी हमारा बहुसंख्यक समाज रात दिन संघषर्रत रहता है।
पिछले कुछ हफ्तों से चल रहे किसान आंदोलन को मोदी जी किसानों का पवित्र आंदोलन बताते हैं और आंदोलनजीवियों पर प्रहार करते हैं। अपनी निष्पक्षता खो चुका मीडिया का एक बड़ा हिस्सा आंदोलनकारियों को आतंकवादी, खलिस्तानी या नक्सलवादी बताता है। विपक्षी दल सरकार को पूंजीपतियों का दलाल और किसान विरोधी बता रहे हैं। पर सच्चाई क्या है? कौन सा दल है जो पूंजीपतियों का दलाल नहीं है? कौन सा दल है जिसने सत्ता में आकर किसान मजदूरों की आर्थिक प्रगति को अपनी प्राथमिकता माना हो? धनधान्य से भरपूर भारत का मेहनतकश आम आदमी आज अपने दुर्भाग्य के कारण नहीं बल्कि शासनतंत्र में लगातार चले आ रहे भ्रष्टाचार के कारण गरीब है। इन सब समस्याओं के मूल में है संवाद की कमी। आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच जो परिस्थिति आज पैदा हुई है वह भी संवाद की कमी के कारण हुई है। अगर ये कृषि कानून समुचित संवाद के बाद लागू किए जाते तो शायद यह नौबत नहीं आती। आज दिल्ली बॉर्डर से निकल कर किसानों की महापंचायतों का एक क्रम चारों ओर फैलता जा रहा है और ये सिलसिला आसानी से रुकने वाला नहीं लगता। क्योंकि अब इसमें विपक्षी दल भी खुल कर कूद पड़े हैं।
हो सकता है कि इन महापंचायतों के दबावों में सरकार इन कानूनों को वापस ले ले, पर उससे देश के किसान मजदूर और आम आदमी को क्या उसका वाजिब हक मिल पाएगा? ऐसा होना असंभव है। इसलिए लगता है कि अब वो समय आ गया है कि जब दलों की दलदल से बाहर निकल कर लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत किया जाए, जिसके लिए हमें 600 ईसा पूर्व भारतीय गणराज्यों से प्रेरणा लेनी होगी। जहां संवाद ही लोकतंत्र की सफलता की कुंजी था। सत्तारूढ़ दलों सहित देश के हर दल को इसमें पहल करनी होगी और साथ ही समाज के हर वर्ग के जागरूक लोगों आगे आना होगा। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी महापंचायत हर तीन महीने में हर जिले के स्तर पर आयोजित की जाए, जिनमें स्थानीय, प्रांतीय और राष्ट्रीय मुद्दों पर जनता के बीच संवाद हो। इन महापंचायतों में कोई भी राजनैतिक दल या संगठन अपना झंडा या बैनर न लगाए, केवल तिरंगा झंडा ही लगाया जाए और न ही कोई नारेबाजी हो।
महापंचायतों का आयोजन एक समन्वय समिति करे, जिसमें चर्चा के लिए तय किए हुए मुद्दे मीडिया के माध्यम से क्षेत्र में पहले ही प्रचारित कर दिए जाएं और उन पर अपनी बात रखने के लिए क्षेत्र के लोगों को खुला निमंत्रण दिया जाए। इन महापंचायतों में उस क्षेत्र के सांसद और विधायकों की केवल श्रोता के रूप में उपस्थिति अनिवार्य हो, वक्ता के रूप में नहीं। क्योंकि विधान सभा और संसद में हर मुद्दे के लिए बहस का समय नहीं मिलता। इस तरह जनता की बात शासन तक पहुंचेगी और फिर धरने, प्रदर्शनों और हड़तालों की सार्थकता क्रमश: घटती जाएगी। अगर ईमानदारी से यह प्रयास किया जाए तो निश्चित रूप से हमारा लोकतंत्र सुदृढ़ होगा और हर भारतवासी लगातार सक्रिय रहकर अपने हक को पाने के लिए सचेत रहेगा। फिर उसकी बात सुनना सरकारों की मजबूरी होगी।

विनीत नारायण


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