मुद्दा : सरकारों की सांप्रदायिक भाषा

Last Updated 09 Feb 2021 03:13:24 AM IST

देशभर के किसान केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए तीन कृषि उत्पाद कानूनों के खिलाफ 26 नवम्बर से राजधानी दिल्ली के चारों तरफ लाखों की तादाद में घेराव किए हुए हैं।


मुद्दा : सरकारों की सांप्रदायिक भाषा

अब सरकार ने 88 पृष्ठों की एक पुस्तिका प्रकाशित की है, जिसका शीषर्क है-प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार, सिखों के साथ विशेष संबंध। पुस्तिका में मोदी सरकार सिख धर्म में आस्था रखने वालों को याद दिला रही है कि उसने कैसे सिखों के धार्मिंक सवालों का सम्मान किया है। संसद द्वारा पारित कृषि कानूनों को किसान अपने भविष्य के लिए खतरे के रूप में देख रहे हैं, लेकिन सरकार सिख धर्म मानने वालों के साथ अपने रिश्तों की याद क्यों दिला रही है?

भारतीय राजनीति का खास तौर से सत्ताधारी दलों के लिए धर्म ही एक औजार बचा है, जिसका राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सवालों को खतरनाक दिशा की तरफ ले जाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है? सिख धर्म और मोदी सरकार के रिश्ते पर पुस्तिका छापने से पहले जब किसान दिल्ली के चारों तरफ प्रदेशों की सीमाओं पर पहुंच गए तो उनके बीच ‘खालिस्तान’ समर्थकों के आरोप को बढ़-चढ़कर प्रचारित किया गया। इससे पहले 2019 के दिसम्बर महीने में संसद ने नागरिकता कानून में बदलाव किया था और उसे संविधान के विरुद्ध बताया जा रहा था तब भी उस कानून के विरोध में होने वाले आंदोलन को मुस्लिमों के आंदोलन के रूप में देश के सामने प्रस्तुत किया गया था। सरकार द्वारा नागरिकता कानून के जरिए संविधान के मूल चरित्र पर चोट पहुंचने की दलीलें पेश की गई और इसके विरोध में पूरे देश में आंदोलन शुरू हुए, लेकिन उस आंदोलन को मुस्लिमों के विरोध के रूप में पेश किया गया। सत्ताधारी दल द्वारा धर्म को राजनीतिक दलों द्वारा इस्तेमाल करने का यह सच इतना साफ है कि वह प्रवृत्ति नई आर्थिक व्यवस्था के बनाने की योजना में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लगे बहुत सारे दलों में साफ दिखाई देती है। इसके भी तथ्य सामने आ सकते हैं कि प्रवृत्ति ब्रिटिश सत्ता विरोधी आंदोलनों में भी देखी गई हो।

प. बंगाल में 2007 में जब वाम मोर्चे की सरकार थी तब नंदीग्राम में कृषि भूमि के अधिग्रहण का विरोध देशव्यापी असर पैदा करने वाला आंदोलन साबित हुआ। नंदीग्राम के इलाके में मुस्लिम किसान सबसे ज्यादा प्रभावित होते दिख रहे थे। सरकार द्वारा जोर जबरदस्ती पर 14 नवम्बर, 2007 को कोलकाता की  सड़कों पर विरोध प्रदर्शन हुआ। इस बीच ऑल इंडिया मुस्लिम फोरम नाम के बैनर लगाकर किसानों के खिलाफ सरकार की कार्रवाइयों का विरोध किया गया, लेकिन उसके साथ बांग्लादेश में जन्मी लेखिका तसलीमा नसरीन का वीजा रद्द करने की मांग जोड़ दी गई। प. बंगाल में  वाम मोर्चे की सरकार थी जो अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि पर किसी तरह का दाग नहीं होने का दावा करती थी, लेकिन उसने  नंदीग्राम में विरोध को स्वीकार करने के बजाय तसलीमा को राज्य से बाहर करने का फैसला तत्काल कर लिया। वाम मोर्चे सरकार के इस फैसले का लगभग पांच सालों के बाद केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस ने किस तरह इस्तेमाल किया, यह भी दिलचस्प है। केंद्र में मनमोहन सिंह की अल्पमत वाली सरकार थी और वाम मोर्चा का उसे समर्थन था। हुआ यह कि अमेरिकी झुकाव वाले मनमोहन सिंह अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करना चाहते थे। वाम मोर्चा अमेरिकी परमाणु समझौते का विरोधी था। वाम मोर्चा ने मनमोहन सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। तब कांग्रेस के प्रवक्ता ने 5 फरवरी, 2013 को बताया कि वाम मोर्चा सरकार ने मनमोहन सिंह सरकार के तसलीमा के भारत में ठहरने के वीजा की अवधि बढ़ाए जाने का विरोध किया था जिसकी वजह से वीजा पर केंद्र सरकार का फैसला कई महीनों तक टला था।
भारतीय राजनीति में यह एक दिलचस्प खेल चलता है कि हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक विचारधारा धर्मनिरपेक्षता को अल्पसंख्यकों की तरफ झुकाव रखने वाली और हिंदुओं के विरोध वाली विचारधारा बताकर सांप्रदायिकता के रूप में पेश करती है। साथ ही, अल्पसंख्यकों के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर जनतांत्रिक और संवैधानिक विरोध को भी सांप्रदायिक करार देने की कोशिश करती है, लेकिन दूसरी तरफ जो धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते हैं, उनके बीच भी जब मौका होता है तब वे एक दूसरे के खिलाफ सांप्रदायिक होने या सांप्रदायिकता की तरफ झुकने का आरोप लगाते हैं। जब तक ऐसे दलों के बीच साथ-साथ रहने का समझौता होता है, तब तक वे एक दूसरे के लिए धर्मनिरपेक्ष होते हैं। साथ छूटते ही एक दूसरे के लिए सांप्रदायिक हो जाते हैं। सांप्रदायिकता के विरोध को राजनीतिक दल अपने संबंधों के लिए आधार मानते रहे हैं।

अनिल चमड़िया


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